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June 1970

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अपनी आत्मा की महत्ता से बड़ी कोई महत्ता नहीं है। अपनी आत्मा के भीतर जो सार्वलौकिकता है उससे परे कोई सार्वलौकिकता नहीं है।

-इनैस्टहाकिंग

वृद्ध की यह दशा देखकर अनमीषि की करुणा उमड़ उठी आँखों से अश्रु धारा प्रवाहित करते हुये अनमीषि बोले ऐसा न कहे तात। हम जाति के पुजारी नहीं जीवमात्र में व्याप्त आत्मा के उपासक हैं। आप जो भी हों हमारे लिये तो वंदनीय आत्मा हैं आप में यह जो कुछ चेतन है वही तो परमात्मा है उसे छोड़कर हम अन्न ग्रहण करने का पाप कैसे कर सकते हैं।

यह कहकर उन्होंने उस श्वपच के हाथ पकड़े। उसे सादर कुटी में लाये और स्नान कराकर नूतन वस्त्र पहनायें, अतिथि को भोजन कराने के बाद ही उन्होंने अन्न ग्रहण किया।

उस रात जब अनमीषि सोये तो भगवान अग्निदेव प्रकट हुये और बोले-दान रुचि। तू ही ईश्वर का भक्त है जो ब्राह्मण और चाण्डाल, हाथी और कुत्ते में कोई भेद नहीं करता वहीं सच्चा ईश्वर भक्त है।


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