क्या हम भविष्य में अति कुरूप हो जायेंगे?

June 1970

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लम्बाई अब की अपेक्षा कुछ अधिक 7 फुट तक, छाती कुल 12 इंच, सारस जैसी सीर्कियाँ टाँगे, मुँह में दाँत नहीं, पाँव में कुल चार अँगुलियाँ आँख कबूतर जैसी नाक, गीध की सी चोंच, सर पूरे फुटबाल जितना पर उनमें एक भी बाल नहीं, स्त्रियों को भी जूड़ा बाँधने से मुक्ति- यह होगी अब से कुछ शताब्दियों बाद मनुष्य की रेखागणित। अभी तक जो मनुष्य देवाकृति जैसा स्वरूप और सुन्दर दिखाई दिया करता था अब उसी में वह परिवर्तन उभर रहे हैं जो मनुष्य को 1 लाख वर्ष बाद बिलकुल कार्टून की सी स्थिति में बदल देंगे। इसके लिए दोषी परिस्थितियाँ न होंगी वरन् परिस्थितियों को विद्रूप करने वाला आज का मनुष्य ही होगा जो आज अपनी विद्या और बुद्धि के अभिमान में फूला नहीं समा रहा।

मनुष्य का दोष इसलिए होगा कि परमात्मा के दिए हुए सर्वांग सुन्दर वाहन शरीर को जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए जैसा उचित प्रयोग करना चाहिए था नहीं कर रहा। एक पहिये से खींचने पर गाड़ी की जो दुर्दशा हो सकती है मनुष्य शरीर के एकाँगी भौतिक उपयोग के कारण भी वही दुर्दशा हो सकती है।

प्रसिद्ध जीव-शास्त्री लेमार्क, जिसका पूरा नाम बेप्टाइज लेमार्क था ने विकासवाद सिद्धान्त के अंतर्गत एक सिद्धान्त प्रतिपादित किया जिसका नाम है- “लेमार्क थ्योरी आफ यूज एण्ड डिस्यूज।” लेमार्क ने अनुभव किया कि नये जीवों का वातावरण बदलने का कारण होता है। वातावरण बदलने से आवश्यकताएं बदलती हैं और आवश्यकताओं के अनुसार आकृति में भी परिवर्तन होता है वे जीव इन परिवर्तनों को आगे आने वाली पीढ़ी को उत्तराधिकार में दे देते हैं इसमें अन्तर पड़ता चला जाता है आज वह जीव जिस आकृति में होता है उसकी कई पीढ़ियों के बाद का बच्चा आकृति में उससे बिलकुल भिन्न होता है।

उदाहरण के तौर पर लेमार्क ने बताया कि पहले जो बन्दर थे वे पेड़ों पर रहते थे सुरक्षा के लिए उनकी आँख हड्डी की परिधि के भीतर रहती थी। पेट की बनावट सीधी थी। कन्धे की हड्डी स्पष्ट थीं। हाथ की दोनों हड्डियों रेडियस और “अलना” कभी एक में जुड़ी रहती थी। हाथ और पैर में पाँच-पांच उँगलियाँ रहती थीं इनमें पूँछ भी होती थी क्योंकि पेड़ों पर चढ़ने के लिए इन्हें उछाल लेनी पड़ती थी। बन्दर, लंगूर, भील वानर तब इसी श्रेणी में आते थे। यही जब ‘अलक’ श्रेणी में आये अर्थात् जब इन्होंने धीरे-धीरे पेड़ों की अपेक्षा पृथ्वी पर भी रहना प्रारम्भ कर दिया तो इनकी आकृति में अन्तर आ गया। उछलने की आवश्यकता न रहने से पूँछ घिस गई। विकासवाद के समर्थक कहते हैं मनुष्य की रीढ़ की हड्डी जहाँ समाप्त होती है उसके पास आज भी ‘टेल बरटिग्री’ पाई जाती है यह वही स्थान है जहाँ पहले पूँछ रहती थी किन्तु उसका उपयोग न होने के कारण यह होते-होते “अलक” में बिलकुल ही समाप्त हो गई।

लेमार्क सिद्धान्त के दूसरे मत के अनुसार जीवन काल में अंगों के उपयोग और अनुपयोग का शरीर पर बहुत प्रभाव पड़ता है। जो अंग बराबर काम में प्रयुक्त होते रहते हैं उनमें स्थिरता बनी रहती है उस अंग के परमाणु क्रियाशील रहते हैं इसलिए वह स्थान बलवान और स्थानाविक बना रहता है। यह अंग बढ़ता और अधिक शक्तिशाली होता रहता है। किन्तु जो अंग प्रयोग में नहीं आते थे धीरे-धीरे दुर्बल होते हुए क्षीण एवं अनुपयोगी हो जाते हैं। हम इस सिद्धान्त को मानते हैं हमारा विश्वास भी ऐसा ही है। पर उसके योनियों के अपने अंशानुक्रम प्रभावित होते हैं ऐसा नहीं होता कि एक जीव ही दूसरे जीव में बदल जाता है। ये परिवर्तन जो व्यक्ति के जीवन काल में प्रयोग और अप्रयोग (यूज एण्ड डिसयूज) के कारण होते हैं उन्हें अपने में जोड़ लेने या बढ़ा लेने को “एम्बायर्ड करेक्टर” कहते हैं। नेमार्क के मतानुसार यह गुण आगे आने वाली पीढ़ियों में लक्षण सूत्रों (जीन्स) के रूप में “पास” हो जाते हैं इसलिए कई पीढ़ियों बाद मानवाकृति में पूर्णकृति से भिन्नता आ जाती है।

इस सिद्धान्त का मनुष्य के भविष्य से गहरा सम्बन्ध है इसलिये इसका प्रतिपादन आवश्यक है हम देखते हैं कि आज हमारी परिस्थितियाँ हमारे रहन-सहन का ढाँचा ऐसा हो गया जिसमें कुछ आवश्यकताओं की ओर मनुष्य बिलकुल ध्यान नहीं देता, कुछ बातों में यह आवश्यकता से अधिक महत्व देता है महत्व पाने वाले अंग तेजी से विकसित होंगे किन्तु जिनकी उपेक्षा की जा रही है वह नष्ट होंगे या ऐसे क्षीण होंगे कि आने वाली पीढ़ियों में इतना अन्तर आ जायेगा कि वह अब की मनुष्याकृति न रहकर ‘कार्टून’ सा बन जायेगा।

हमारे पूर्वजों का रहन-सहन इस तरह का था कि वे अधिक से अधिक प्रकृति के संपर्क में रहते थे। फलों के लिये वे वृक्षों पर चढ़ा करते थे। पहाड़ों की सैर करते थे खेती करते थे। भरपूर परिश्रम करने से उनकी श्वास-प्रश्वास क्रिया गहरी बनी रहती थी। फेफड़े इतने फूलते थे कि छाती में पर्याप्त हवा भरी रहती थी उससे सीने चौड़े और सारा शरीर सुडौल बना रहता था किन्तु जीवन में अब कृत्रिमता आ जाने से शरीर का पर्याप्त श्रम करना रुक गया इसलिए अब के युवकों की छातियाँ अपने पिता, बाबाओं की छाती की तुलना में छोटी पड़ गई। परिश्रम और पूरी साँस न लेने का ही परिणाम होगा कि आने वाली पीढ़ियाँ 12 इंच से अधिक चौड़े सीने वाली नहीं होंगी। पेट भी इनका सिकुड़ता चला जायेगा।

आवश्यकता इस बात की थी कि हम अपने पूर्वजों से कुछ ग्रहण करते पर हुआ यह कि अपनी बुद्धिमत्ता सिद्ध करने के लिए आज के मनुष्य ने अधिक से अधिक कामोपभोग करने में अपनी क्षमतायें लगाई फलस्वरूप उसके शरीर में उतार होता चला जा रहा है। योरोप और अमरीका में इस सम्बन्ध में गहन सर्वेक्षण हुआ है पिछले 50 वर्षों के जो निष्कर्ष सामने आये हैं वह बताते हैं कि आज का मनुष्य 1.37 इंच अधिक लम्बा हो गया है। वह इस दिशा में निरन्तर प्रगति कर रहा है। आणविक विकरण के प्रभाव और शुद्ध ऑक्सीजन शरीर को न मिलने के कारण लक्षण सूत्र (जीन्स) विकृत हो रहे हैं। जिससे मनुष्य की आकृति शिवजी के बरातियों की सी हो सकती हैं इन परिवर्तनों को अधिकतर वही रोक पायेंगे जो कृत्रिमता को दूर रखकर, संयम पूर्वक आहार-विहार में शुद्धता रखकर अपने शरीर और बीजकोषों को शुद्ध और बलवान बनाये रखेंगे।

लोहार के हाथ (मसल्स) बहुत मजबूत होते हैं किन्तु शहरी बाबुओं के हाथ परिश्रम न करने के कारण कमजोर और पतले होते हैं। गाँव के चरवाहे और किसानों को औसत 10 मील प्रति दिन चलना पड़ता है किन्तु नौकरी पेशे वालों को 1 मील जाकर घूमने और शुद्ध हवा लेना भी मुश्किल लगता है इससे उनकी जंघा और टाँगें पतली होती चली जा रही हैं। सरीसृप श्रेणी के सभी जीवों के पैर होते हैं- मगर, घड़ियाल, कछुये, छिपकली, कोतरी, बम्हनी, गोह इन सब के पैर होते हैं क्योंकि इनमें से जल में रहने वाले जीव भी बराबर जल से बाहर आकर अपने पैरों का उपयोग करते रहते हैं। इनके पैरों में कोई अन्तर नहीं आया पर साँप ने रेंगकर चलने के कारण अपने पैरों का उपयोग नहीं किया इसलिए उसके पेट में हाथ और पाँव के छोटे-छोटे दाने (इम्प्रेशन) मात्र रह गये। प्रारम्भ में साँप इतना बड़ा न होता था। रेंगकर चलने में उसे शरीर को खींचना पड़ता है जिससे वह बड़ा भी होता गया। अपने शरीर का विधिवत उपयोग न करने के कारण मनुष्य की भी यही स्थिति होगी।

धरती के भीतर रहने वाले जीव जैसे मेंढक, केंचुए, गुबरैले और दूसरे कीड़ों की आंखें बिलकुल कमजोर होती हैं क्योंकि उन्हें आँखों का काम नहीं लेना पड़ता, जबकि खुली हवा में आकाश में उड़कर केवल अपने शिकार की ही ढूंढ़ में रहने वालों की आंखें बहुत तेज होती हैं। परिश्रम और भरपूर प्रयोग से अंगों में दबाव पड़ने की अपेक्षा शक्ति आती है यह बात भूलने के कारण ही हम अपने शरीरों को कुछ का कुछ बनाते चले जा रहे हैं।

जीव वैज्ञानिकों का मत है कि अब से कई शताब्दियों पूर्व जब वन अधिक थे जंगलों में दूसरे जीवों का बाहुल्य था तब मनुष्यों की चिन्ताएँ कम थीं, कम से कम आवश्यकताओं में वह अधिक से अधिक मस्ती का जीवन-यापन करता था, तब उसका सिर 814 घन सेन्टीमीटर था अब मस्तिष्क के घनत्व का औसत 1350 घन सेन्टीमीटर था अब यन्त्र विज्ञान इतना बढ़ गया है कि आने वाली पीढ़ियाँ को कम से कम एक पुस्तक नाम तो, उन पुर्जों के याद रखने पड़ेंगे जो उनके सामान्य जीवन के उपयोग के होंगे। शरीर को काम करना पड़ेगा नहीं, इसलिये वे तो कमजोर हो जायेंगे पर सिर अनुमान है 1725 घन सेन्टीमीटर अर्थात् वनमानुष युग से दोगुना बड़ा होगा। पाँच लाख वर्ष बाद सिर फुटबाल की तरह और शरीर उन पुतलों जैसा हो जायेगा जो गाँवों की स्त्रियाँ व्यास पूजा पर दीवारों पर काढ़ा करती हैं।

जीव वैज्ञानिकों के अनुसार पहले लोग कच्चा खाने और तरकारियाँ खाने, मेवे चबाने में दाँतों को पर्याप्त व्यायाम देते रहते थे, इसलिये तब दाँत बहुत मजबूत थे। किन्तु अब पेयों का बहुत प्रचलन हो गया है, कामुकता के कारण लोगों के पेट की माँस पेशियाँ दुर्बल पड़ जायेंगी, जिससे वह कच्ची वस्तुएँ पका ही नहीं सकेगा। तब पेयों की मात्रा और अधिक बढ़ेगी, इससे लोगों के दाँत समाप्त हो जायेंगे। कुछ लोगों के दाँत होने पर बहुत दुर्बल, अधिकाँश पोपले हुआ करेंगे। भाँहों की हड्डी भी, अनुमान है बिलकुल फुटबाल या धोख जैसा लगेगा। यह सब इसलिए होगा कि हम अपनी परिस्थितियाँ, अपना वातावरण ऐसा बनाते चले जा रहे हैं कि सारे शरीर का उपयोग ही नहीं होता। जिन अंगों का उपयोग बढ़ा रहे हैं वह तो बड़े और भोंड़े हो सकते हैं जबकि प्रयोग में न आने वाले अंग या तो समाप्त ही हो सकते हैं या फिर ऐसे होंगे जिन्हें देखते ही ऐसे हँसी आ जाये जैसे कार्टून को देखकर हँसी आ जाती है।

इन परिस्थितियों में क्या हम सोचेंगे कि हमारे जीवन में पनप रही कृत्रिमता, परिश्रम का अभाव और यन्त्रीकरण का प्रेम हमें कहाँ से कहाँ और क्या से क्या बना सकता है।

(क्रमशः)


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