साहस का देवता और उसकी उपासना

June 1970

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भगवान ने मनुष्य को अगणित शक्तियों का भण्डागार बनाकर इस धरती पर इसलिए भेजा है कि वह उन क्षमताओं का उपयोग करके अपने लिए सुख-शान्ति, समृद्धि और प्रगति के साधन उपलब्ध करे और दूसरों के लिए मार्गदर्शन एवं सहयोग के सरंजाम जुटाये। मानव जीवन की सफलता इन शक्तियों को पहचानने उन्हें विकसित एवं उपयुक्त दिशा में प्रयोग कर सकने पर निर्भर है।

जो अपनी इन शक्तियों को जानते नहीं और अभिवर्धन एवं प्रयोग की व्यवस्था नहीं बनाते थे इस संसार में दीन दुःखी, दरिद्र, असहाय और उपेक्षित बने हुए अभाव एवं तिरस्कार का दण्ड पाते रहते हैं इस आत्म विस्मृति की दुःखदायी प्रतिक्रिया का नाम नरक है। अपने आपे को भूल कर-अपनी क्षमताओं की उपेक्षा कर -अपने साहस को त्यागकर हम स्वयं अपने लिए नरक का सृजन करते हैं। मनुष्य अभावग्रस्त और दीन दुःखी जीवन यापन करने के लिए पैदा नहीं किया गया। अभाव और क्लेश अपने आपे को ठीक तरह समझने और उसका समुचित प्रयोग न कर सकने का परिणाम मात्र है। अपनी उपेक्षा करना एक बहुत भारी अपराध है। नियति इसे सहन नहीं कर सकती, इस प्रकार के अपराधी दुर्भाग्य के कुचक्र में पिसते हुए निरन्तर काँपते देखे जाते हैं।

आध्यात्म की प्रथम शिक्षा- अपनी महत्ता को समझना अपनी शक्तियों को ढूंढ़ निकालना और उनके सदुपयोग में जुट जाना है। इस साधना में प्रवृत्त व्यक्तियों के ऊपर ऋद्धि-सिद्धि छाया किये खड़ी रहती और उस पर चंवर डुलाती देखी गई है।

उच्च स्तर के लोग अपनी क्षमताओं को समझते और विकसित तो करते ही हैं साथ ही इतना साहस और करते हैं कि अपनी विभूतियों के उपयोग का क्षेत्र लोभ-मोह एवं वासना तृष्णा तक सीमित न रख कर उसका प्रयोग क्षेत्र उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता के लिए व्यापक बना देते हैं। ऐसे ही व्यक्ति आत्म-कल्याण का शाश्वत शान्ति का और जीवन-लक्ष्य की पूर्ति का प्रयोजन पूरा करते हैं। इन्हें इतिहास महामानव के रूप में स्मरण रखता है।

सामान्य सफलता से भी यह मूल्य कीमती है कि उनके लिये प्रबल पुरुषार्थ किया जाय। कृषि, व्यवसाय, शिल्प अध्ययन, नौकरी, कला, कौशल कोई भी दिशा क्यों न हो प्रगति के लिए कठोर श्रम एवं तन्मयतापूर्ण अध्यवसाय हर हालत में चाहिए। कोई विद्वान्, कलाकार, धनी, नेता एवं शीर्षस्थ व्यक्ति ऐसा न मिलेगा जिसे पुरुषार्थ की कसौटी पर कसकर खरा सिद्ध न होना पड़ा हो।

साहस के देवता की प्रथम साधना शारीरिक श्रम से प्रसन्नता अनुभव करने के साथ आरंभ करनी होती है। आलस्य हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। दरिद्रता और अस्वस्थता उसी के अभिशाप हैं। शरीर को आराम तलब बना लेना, बैठे ठाले रहने में सन्तोष करना, मेहनत से जी चुराना, समय रहने के लिए मटरगश्ती करना, तथाकथित यार-दोस्तों में गप-शप लड़ाते रहना, ऐसे दुर्गुण हैं जो जहाँ भी रहेंगे वहाँ दरिद्रता आकर रहेगी। पूर्व उपार्जित पूँजी धीरे-धीरे समाप्त हो जायगी। ठोकर पाकर साथी और कर्मचारी अनुचित लाभ उठाने को उत्सुक होंगे और जो मुट्ठी में हैं उसको सुरक्षित रख सकना भी सम्भव न रहेगा। यह विचार सही नहीं है जो अमीर होते हैं वे मौज करते हैं जो गरीब हैं उन्हीं को श्रम करना पड़ता है।’ सचाई यह है कि जो श्रमशील हैं वे ही अमीर बनते हैं और जो आरामतलबी के शिकार हैं वे क्रमशः गरीबी के गत में चले जाते हैं।

प्रगति किसी भी दिशा में करनी हो, सफलता किसी भी क्षेत्र में पानी हो उसके लिए कठोर श्रम से ही काम चलेगा। चालाकी और बेईमानी के सहारे कई व्यक्ति बिना श्रम के भी सफलतायें पाते देखे जाते हैं पर यह पूरी तरह ध्यान रखना चाहिए कि उन उपलब्धियों की जड़ें खोखली होती हैं। उनके विदा होते इतनी भी देर नहीं लगती जितनी बादल की छाँह को। टिकाऊपन केवल परिश्रम के उपार्जन में है। धन ही नहीं स्वास्थ्य भी श्रम पर ही टिका हुआ है। यह गाँठ बाँध रखनी चाहिए कि निरोग एवं परिपुष्ट वे रहेंगे जिनका शरीर कठोर श्रम में निरत रहेगा, जिन्होंने हाथ पैर चलाने में आना-कानी कि उन्हें अस्वस्थता की विविध विधि पीड़ायें सहने के लिए विवश होना पड़ेगा। शरीर और धन उनका पुष्ट रहेगा जो समय को श्रमशीलता के साथ जोड़े रहेंगे। गहरी नींद और कड़ी भूख का आनन्द उन्हें मिलेगा जो मेहनत मशक्कत से अपने आपको थकाकर दूर करने में उत्साह एवं आनन्द अनुभव करते होंगे। हमारा साहसिक प्रथम चरण यही हो सकता है कि आलस्य को मार भगायें। एक क्षण भी बेकार बर्बाद न करें और निरन्तर क्रमबद्ध कार्य में व्यस्त रहने की आदत डालें।

साहस के देवता की साधना का दूसरा चरण मन की अस्त-व्यस्तता दूर करना है। देखा गया है कि कितने लोगों का मन बड़ा चंचल रहता है। अनर्गल और अनावश्यक विचार मस्तिष्क में घुमड़ते रहते हैं। जिन बातों का अपने से सीधा सम्बन्ध नहीं उन निरर्थक और अनर्गल बातों को सोचते रहते हैं और चिन्तन की एक बहुत बड़ी शक्ति का महत्वपूर्ण अंश यों ही निरर्थक खर्च हो जाता है। अपने स्वभाव में जिन अनावश्यक आदतों की घुसपैठ है उन्हें हटाने के लिए क्या किया जाए? जो सद्गुण एवं सत्प्रवृत्तियाँ अपने में नहीं हैं उनका अभ्यास अभिवर्धन कैसे किया जाय? इन प्रश्नों पर कभी सोचने का प्रयत्न नहीं किया जाता। अपना व्यक्तिगत जीवन क्रम कितना अस्त-व्यस्त है और पारिवारिक ढाँचे को सुधारने बदलने के लिए क्या किया जाना चाहिए? जिन कारणों ने अपने प्रगति पथ को अवरुद्ध कर रखा है उन्हें कैसे व्यवस्थित किया जाय? यदि इन प्रश्नों पर हम अपनी विचारशक्ति को लगायें। जीवन जीने की कला, समस्याओं के समाधान तथा उत्कर्ष की दिशा में होने वाले प्रयोगों एवं अनुभवों को पढ़ें, सुनें, समझें उन पर चिन्तन-मनन करें तो हमारा मस्तिष्क हमारे लिए कल्प वृक्ष का काम कर सकता है। पर उसका अधिकाँश भाग तो अनर्गल चिन्तन में ही नष्ट हो जाता है। तृष्णा, वासना, लोभ-मोह, शौक-मौज, द्वेष-दुर्गुणों के द्वारा उत्पन्न की हुई इतनी ज्यादा शक्तियाँ सामने होती हैं कि उनका हल ढूंढ़ना ही मस्तिष्क के विचार के लिए कठिन पड़ता है। ऐसी दशा में बौद्धिक चेतना की ज्ञानवृद्धि एवं सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्द्धन में कैसे लगाया जाय? इसी कुचक्र में पड़े हुए हम अपनी मानसिक क्षमताओं को नष्ट-भ्रष्ट करते रहते हैं और खाली हाथ इस संसार से उठ जाते हैं। यदि इस कुचक्र को तोड़ने की मनस्विता का परिचय दिया जा सके तो समझना चाहिए कि हमने साहस के देवता की पूजा का दूसरा चरण पूरा कर लिया शरीर और मन को व्यवस्थित और सत्प्रवृत्तियों का अनुगामी बनाने के लिये जो अपने आप में संघर्ष करना पड़ता है वही गीता में वर्णित महाभारत है। इसमें विजय प्राप्त कर लेना एक ऐसा पुरुषार्थ है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति की महत्ता और उपयोगिता में आशाजनक अभिवृद्धि होती है और वह साधारण परिस्थितियों में रहते हुए भी अपने आपको बहुत समुन्नत एवं सन्तुष्ट अनुभव करने लगता है।


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