“कुबेर हो या रंक जब तक परिश्रम के कमाये हुये धन का एक अंश लोकहित में समर्पित नहीं करता तब तक यह अधर्म का खाता है।”
इतने से अक्षर महर्षि अनमीषि के लिये शास्त्र हो गये। उन्होंने अपनी धर्मपत्नी सहित प्रतिज्ञा की जब तक वे किसी अपने से भी दीन-दुखी को भोजन नहीं करा दिया करेंगे तब तक स्वयं भी ग्रहण नहीं किया करेंगे भले ही उन्हें वह दिन निराहार ही क्यों न बिताना पड़े।
उन दिनों आज की तरह की स्थिति नहीं थी। तब प्रायः हर व्यक्ति धार्मिक उदार वृत्ति का हुआ करता था, अधिकाँश लोग आत्म-कल्याण और लोक-सेवा की साधनाओं में लगे रहते थे इसलिए उन्हें उदर पोषण के लिए थोड़े धान्य की ही समस्या रहती थी इसीलिए अन्नदान और किसी को भोजन करा देना उन दिनों सबसे बड़ा पुण्य माना जाता था। आज की स्थिति उल्टी है इसलिए परम्परा को भी उलट देना चाहिये। अब अधिकाँशतः सारे संसार की चिन्ता कैसे भी कमाई की है। आत्म-कल्याण या लोक सेवा की बात तो कभी किसी के मस्तिष्क में ही नहीं आती इसलिये पुरुषार्थी का कर्तव्य है कि वह किसी को अन्न या खाना न खिलावें पर सद्प्रवृत्ति का कहीं अंकुर उगता दिखाई दे तो अपने साधनों का अंजलि जल डालकर उसके पनपने में सहायक अवश्य हो।
महर्षि, अनमीषि, को यह संकल्प निबाहते हुये वर्षों बीत गये कभी ऐसा न हुआ जब साधना में अवरोध आया हो। किन्तु आज कोई भी तप परीक्षा के बिना जरा सिद्ध हो गया हो ऐसा कभी हुआ नहीं। एक दिन अनमीषि के जीवन में भी ऐसा आया कि उस दिन कोई भी सेवा का अधिकारी द्वार तक आना तो क्या किसी की छाया भी नहीं झाँकी।
अनमीषि और उनकी धर्मशील धर्मपत्नी दोनों बड़े दुःखी हुये। प्रश्न एक दिन भूखे रहने का नहीं था व्रत के अंकित हो जाने की कल्पना से ही वे अत्यन्त दुःखी हो रहे थे।
तभी उन्होंने देखा वृक्ष के नीचे एक कुष्ठ रोग से पीड़ित वृद्ध खड़ा काँप रहा है। शरीर में घाव हो जाने के कारण वह कराह रहा था वृद्ध कोई अन्त्यज दिखाई देना था।
अनमीषि आगे बढ़कर वहाँ पहुँचे और बोले-अतिथि देव। बड़ी कृपा हुई आपकी चलिये हमारी कुटी को पवित्र कीजिये। भोजन तैयार है आप भोजन ग्रहण कर कृतार्थ करें।
वृद्ध ने कराहते हुए कहा- आर्य श्रेष्ठ! भगवान आपका मंगल करें। किन्तु मैं आपकी इस महान उदारता का अधिकारी नहीं हूँ मैं तो जाति का चाण्डाल हूँ। सम्भव हो तो घर में कुछ रोटियाँ बची हों तो यहाँ फेंक जायें उन्हें उठाकर अपना पेट भर लूँगा।