एक और सलीब– हू-ब-हू ईसा जैसा

June 1970

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कई दिन से लोग पीछे पड़े थे– “तुम हिमालय (भारतवर्ष) जाकर योगविद्या सीखकर आये हो, तो कोई चमत्कार भी तो दिखाओ। कैसे पता चले कि भारतीय योग में भी कुछ शक्ति है और तुमने उस शक्ति का कुछ भाग पा लिया है?” ऐसे प्रश्न बराबर पूछे जा रहे थे।

बात दक्षिण अफ्रीका के न्यूकैसिल शहर की है। एक साधारण सी दुकान में काम करने वाले युवक पीटरवान डेनबर्ग ने किसी से सुन लिया था कि भारतवर्ष योगियों का देश है, वहाँ आसन, प्राणायाम, ध्यान, धारणा आदि के ऐसे योगाभ्यास सिखाये जाते हैं, जिनसे मनुष्य अतिमानवीय एवं अपरोक्ष शक्ति और अनुभूतियाँ भी प्राप्त कर सकता है। सामान्य लोग कोई कौतूहलपूर्ण बात सुनते हैं, तो थोड़ा मनोरंजन-सा उन्हें होता है और बात आई-गई हो जाती है; पर पीटरवान डेनबर्ग ने सोचा– यदि सचमुच ऐसा कुछ है, तो उसे जानना और सीखना चाहिए; कथन की सत्यता को परखा ही जाना चाहिए।

वह तिब्बत होता हुआ हिमालय पहुँचा। हिमालय धरती का स्वर्ग पवित्रता की विरासत ही योग विद्या और ज्ञान की खान आज भी है। “जिन खोजा तिन पाइयाँ” कहावत के अनुसार पीटरवान को किसी योगी के दर्शन हुए। उन्हीं से वह योगविद्या सीखकर गये थे। यह जानकर तो उसका भारतवर्ष के प्रति प्रेम और आदरभाव और भी उमड़ पड़ा। उसे दुःख इतना ही है कि भारतीयों में स्वयं ही अपने धर्म और योगविद्या के प्रति श्रद्धा नहीं रही है।

योगविद्या सीखकर वह अपनी जन्मभूमि लौट पड़ा। यहाँ आकर उसने लोगों को भारतीय तत्त्व दर्शन से परिचित कराना प्रारम्भ किया। वह यह भी बताया था कि वह योगविद्या स्वयं भी सीखकर आया है। तभी लोग उसके पीछे पड़ गये थे और कोई चमत्कार दिखाने का आग्रह कर रहे थे।

पीटरवान ने बहुतेरा समझाया कि योग का उद्देश्य आत्मकल्याण है। अपनी लघुतम चेतना का विस्तार करके विश्व सम्पदा का स्वामी बनना और भावनात्मक आनन्द लूटना है। चमत्कार से किसी का कुछ भला नहीं होता; पर लोग तो लोग ही ठहरे; उनकी जिद कम न हुई।

28 जुलाई 69 का दिन– उसने चमत्कार दिखाना स्वीकार कर लिया। हम भारतीय अपने तत्त्व दर्शन, धर्म व संस्कृति की महत्ता को पहचानते भी हैं, पर उसके प्रति अपनी न तो निष्ठा व्यक्त कर पाते हैं, न स्वाभिमान; पर डेनबर्ग देर तक यह उपेक्षा सहन नहीं कर सके। उन्होंने कहा– मैं ईसा की तरह सलीब पर चढूँगा और यह दिखाऊँगा कि ईसा का क्रूस पर चढ़ना मनगढ़न्त बात नहीं है और न ही मनगढ़न्त है भारतीय योगविद्या। दोनों वैज्ञानिक उपलब्धियों की तरह सुनिश्चित तथ्य हैं।

उस दिन की तैयारी की गई। लाउडस्पीकर बजने लगा। कस्बे के बाहर एक खेत में जहाँ यह प्रदर्शन होने वाला था, हजारों की संख्या में लोग एकत्रित हो गये। मजबूत सलीब मंगाया गया। पत्थर के कोयलों में आग लगा दी गई। जब कोयले दहकने लगे, तो उन्हें जमीन पर बिखेर दिया गया। डेनबर्ग ने दोनों हाथ जोड़कर दर्शकों को अभिवादन कर कहा– मैं कोई ईश्वर नहीं, ईश्वर का दूत भी नहीं। मैं तो एक साधारण मनुष्य हूँ और लोगों को यह बताना चाहता हूँ कि मनुष्य सब कुछ भौतिक ही नहीं है, वह अधिकांश आध्यात्मिक शक्तियों से ओतप्रोत प्राणी हैं। उसकी आध्यात्मिकता, भौतिकता की अपेक्षा कहीं अधिक समर्थ है– यही प्रदर्शन करने के लिये आज मैं यहाँ उपस्थित हुआ हूँ।

इसके बाद वह दहकते अंगारों पर चल पड़ा। बड़ी देर तक उसने दहकते अंगारों पर आराम से चहलकदमी की। पाँवों में न तो कोई जलन न कोई पीड़ा। लोगों के आग्रह पर जब वे बाहर निकलकर आये, तो उनके पैरों में एक भी छाला नहीं था। लोगों ने फूल−मालाओं से उन्हें लाद दिया। उन्होंने कहा कि यह मेरा सम्मान नहीं, सम्मान तो उस विद्या और गुरु का है, जिसके अभ्यास और मार्गदर्शन से मैंने उस सत्ता की अनुभूति की। उन्होंने भावविभोर होकर कहा– "भारतवर्ष में सचमुच मनुष्य को भगवान बना देने की विद्या है, पर अभी तो भारतीय ही अपना दर्शन आप भूल बैठे हैं। हाँ, अब कोई आत्मा वहाँ आ गई है और वह आध्यात्मिकता का प्रकाश फैला रही है। जल्दी ही सारा विश्व भारतवर्ष के चरणों में प्रणिपात करेगा।"

इस बीच 6 फीट लम्बा सलीब (दो लकड़ियाँ बाँधकर बनाया गया वैसा क्रूस, जिस तरह के क्रूस पर ईसा को सूली दी गई थी) आ गया। डेनबर्ग प्रसन्नतापूर्वक उस पर लेट गये। लोगों के दिल धड़कने लगे, पर योगी शांत और संयत। उनके हाथ-पैरों में इस्पात की 6-6 इंच लम्बी कीलें ठोंक दी गईं। एक कील बायें पैर की जंघा पर भी ठोंक दी गई और सलीब को उठाकर खड़ा कर दिया गया। डेनबर्ग ने संस्कृत का एक श्लोक पढ़ा और कहा कि मैं बहुत प्रसन्न हूँ, मुझे पीड़ा या मृत्यु का कोई भय तक नहीं है।

आधा घण्टे बाद उन्हें सलीब से उतारा गया। उनकी आँखें छलक आईं। उन्होंने कहा– मनुष्य आत्मशक्तियों का विकास करके कितना शक्तिशाली और आनन्दपूरित हो सकता है, पर कैसा अज्ञान है कि लोग मनुष्य शरीर जैसा अलभ्य और बहुमूल्य ईश्वरीय अनुदान प्राप्त करके भी दीन-दुःखी व दरिद्रता की स्थिति में पड़े हुए हैं।

डेनबर्ग के शरीर में रक्त के एक-दो छींटों के अतिरिक्त कहीं कोई घाव भी नहीं था। मरहम-पट्टी की भी आवश्यकता नहीं थी। लोग वहाँ से बड़ा आश्चर्य, कौतूहल और जिज्ञासाएँ लेकर लौटे। यह समाचार संसार भर के समस्त दैनिकपत्रों में छपा, तो अविश्वासियों को भी यह विश्वास करने के लिये बाध्य होना पड़ा कि योग निरर्थक कल्पना नहीं, उसका आधार एक ऐसे विलक्षण विज्ञान पर आधारित है, जिसकी जानकारी अभी सर्वसाधारण को नहीं हो पाई।


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