युग परिवर्तनकारी शिक्षा और उसकी रूपरेखा

June 1970

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व्यक्ति और समाज का भावनात्मक कायाकल्प करने के लिए हमें रचनात्मक और संघर्षात्मक मोर्चे खोलने पड़ेंगे। रचनात्मक कार्यों में शिक्षा और कला दो क्षेत्र ऐसे हैं जिन्हें विनाश की दिशा में मोड़कर विकास के लिए प्रयुक्त किया जाता है। हमें एक समान शिक्षा संगठन खड़ा करना है। जिसमें नौकरी दिलाने वाले प्रमाण पत्र ही न मिल सकेंगे पर इतनी प्रतिभा जरूर उत्पन्न कर दी जायगी जो दूसरे अनेकों को नौकर रख सकें। जीवन जीने की कला और समाज के समग्र पुनरुत्थान की प्रक्रिया इस प्रशिक्षण की आधारशिला होगी। बिना आवश्यक भार ढोने हर शिक्षार्थी अपने काम आने वाली भौतिक जानकारियाँ प्राप्त कर ले और कृषि, पशु-पालन, शिल्प आदि के माध्यम से अपनी आजीविका स्वयं कमा ले इतना शिक्षण अनिवार्य रूप से दिया जायगा। साथ ही यह भी ध्यान रखा जायेगा कि समय उतना ही लिया जाय जितना नितान्त आवश्यक है। व्यर्थ के बड़े-बड़े पौधे काटकर विभाग की उपयोगी शक्ति को नष्ट होने से बचाया जाय और न्यूनतम समय से अधिक से अधिक सिखा देने का प्रयत्न किया जायगा। आरम्भिक बाल कक्षाओं से लेकर-वयोवृद्धों तक के-श्रमिक मजूरों से लेकर वयस्क महिलाओं तक के लिए उनकी सुविधा के समय रात्रि पाठशालायें, प्रौढ़ पाठशालायें, बाल मन्दिर, स्वाध्याय मंडल, क्लब आदि के गठन की एक सुव्यवस्थित योजना हमारे दिमाग में है। इन दिनों उसकी झाँकी भर करा रहे हैं, समाज भर बता रहे हैं। क्योंकि इस विदाई वर्ष और कुछ करने के लिये नहीं कहेंगे अन्यथा लोगों का ध्यान बटेगा और संगठन की जड़ मजबूत बनाने की बात से उचटकर ‘जड़ सींचना भूले और पत्ते सींचे’ वाली कहावत चरितार्थ करने लगेंगे।

अगले वर्ष एक ऐसे विश्व विद्यालय की स्थापना करेंगे जो गैर सरकारी-जन स्तर का होते हुए भी उस अभाव की पूर्ति करेगा जो सरकार नहीं कर सके। सरकारी शिक्षा पद्धति बदली जाय यह गाते फिरने का अरण्य रोदन निरर्थक है। वे अपना काम-अपनी अक्ल से अपने ढंग से करेंगे। हम जन स्तर पर एक विशाल शिक्षा योजना खड़ी करेंगे और जन-सहयोग के आधार पर उसे इतनी ऊँची उठा देंगे कि सत्ता को उसका अनुकरण करना उचित एवं आवश्यक अनुभव होने लगे। यह शिक्षा नया व्यक्ति, नया समाज, नया युग विनिर्मित करने में अति महत्वपूर्ण भूमिका का सम्पादन करेगी।

भौतिक मन पर सबसे अधिक प्रभाव इन दो आधारों से ही पड़ता है। शिक्षा का क्षेत्र केवल लेखन, वाचन, हिसाब, ज्यामिति, भूगोल, इतिहास आदि सामान्य जानकारियों तक ही सीमित नहीं है वरन् मानवीय कर्तव्यों के प्रति निष्ठा एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों को वहन करने की जिम्मेदारी भी उसी के साथ संलग्न विद्या भी जुड़ी हुई है। शिक्षा और विद्या मिलकर ही बौद्धिक समर्थता प्रदान करने का माध्यम बनती हैं। अकेली शिक्षा एक कला-कौशल मात्र है। प्रशिक्षण का कम ठीक हो तो 10 वर्ष में बड़ा राष्ट्र बनकर खड़ा हो जाता है। आज जो बच्चे दस पन्द्रह वर्ष के हैं उन्हें ठीक तरह प्रशिक्षण मिल सके तो अगले दस वर्ष में जब वे 25-25 वर्ष की आयु के होंगे। समर्थ बनकर हर क्षेत्र को प्रभावित करेंगे और उनके स्तर का राष्ट्र बनकर खड़ा हो जायगा, सभी जानते हैं कि पिछले दिनों जर्मनी, चीन, रूस आदि ने अपने देश को अभीष्ट स्तर का बनाने के लिए सबसे पहले शिक्षा पद्धति को हाथ में लिया था और विद्यालयों की टकसाल में बहुत सिक्के ढलते चले गये थे। प्राचीन भारत की महानता और गौरव गरिमा के उद्गम अपने गुरुकुल ही थे। आगे कभी किसी राष्ट्र को किसी विशेष दिशा में ढालना हो तो उसे अपनी शिक्षा पद्धति का निर्माण एक दूरगामी एवं व्यवस्थित दृष्टिकोण लेकर ही करना होगा।

शिक्षा को यहाँ दो भागों में बाँट सकते हैं। एक धर्मतत्व प्रधान, दूसरी साक्षरता प्रधान। धर्मतत्व प्रधान में उन प्रवचन सम्मेलन, कथा, गोष्ठी आदि की गणना होगी जो किसी धार्मिक आयोजन के साथ जुड़े तो हों पर मूल प्रयोजन जन-मानस की विकृतियाँ का निराकरण और विवेकी दृष्टिकोण का सम्वर्धन हो। साक्षरता प्रधान में उन स्कूल, कालेज, रात्रि पाठशाला, प्रौढ़ पाठशाला, शिल्प, कृषि उद्योग आदि की गणना होगी। जिसमें व्यक्ति निर्माण की तथा स्वस्थ समाज की संगठना कर सकने वाले तत्व पर्याप्त मात्रा में घुले हों आज धार्मिक कथा प्रवचन तो होते हैं पर उनका निष्कर्ष निकलने पर निरर्थकता, अलंकारिता, प्रतिगामिता, अवाँछनीयता एवं भ्रान्ति उत्पन्न करने वाले प्रशिक्षण की ही भरमार दीखती है। विवेकशीलता और उपयोगिता रहित धर्म शिक्षण शक्ति का अपव्यय ही नहीं हानिकारक भी है। स्कूली शिक्षा में गणित, भूगोल, ज्यामिति जैसी सामान्य जानकारियाँ भर हों तो उसे भी अपूर्ण ही कहा जायगा व्यक्ति के कर्तव्य और स्वस्थ समाज के आधार गले उतरने वाले तत्व जिस शिक्षा में मिले न हों उसे पेट पालने में काम आने वाला एक उद्योग भर कहा जा सकता है।

प्रतिगामिता को गाली देने अवाँछनीयता को कोसने से अमीर लोगों का क्षणिक आवेश भर शान्त हो सकता है पर उनसे कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता आवश्यकता इस बात की है कि बुरी वस्तु की तुलना में दूसरी अच्छी चीज सामने रखी जाय ताकि सार्वजनिक विवेक एक को छोड़ने तथा दूसरी को ग्रहण करने का निर्माण कर सके। यदि सामने एक ही वस्तु होगी तो जैसी भी कुछ है उसी से काम चलाया जाता रहेगा। धर्म मंच का प्रगतिशील स्वरूप यदि जन साधारण के सामने प्रस्तुत किया जा सके तो निस्संदेह उसे सराहा और स्वीकारा जायगा। अपव्यय का सदुपयोग की दिशा में मोड़ने के लिए प्रगतिशील कार्यक्रम के साथ प्रतिभाशाली और उत्कृष्टता सम्पन्न व्यक्तित्वों को आगे आकर कमान संभालनी चाहिये। पिछले बीस वर्ष से हम यही प्रयत्न कर रहे हैं रामायण, गीता, भगवत् आदि की कक्षाओं के सहारे प्रगतिशील प्रशिक्षण की भी काफी गुंजाइश है। धर्म सम्मेलनों द्वारा लोक रुचि को परिष्कृत करने की पूरी सम्भावना है। पर्व त्यौहार यदि सामूहिक रूप से मनाये जाने लगें और उनके पीछे दिये हुए रहस्यों को समझाया जा सके तो समाज निर्माण की चेतना उछल भी सकती है। संस्कारों के कर्मकाण्डी व्यक्ति और परिवार की अभिनव रचना का पूरा प्रशिक्षण हो सकता है। जन्म दिन मनाने की परम्परा में आम चिन्तन, आत्म सुधार, आत्म-निर्माण और आत्म-विकास की महती सम्भावना विद्यमान है। विवाह दिन मनाने की परिष्कृत प्रथा चल पड़े तो हमारा दाम्पत्य जीवन व परिवार नई हरियाली से सुशोभित हो सकता है गायत्री महामन्त्र के तत्वज्ञान को समझाकर विवेकशीलता की समस्त धाराएँ प्रवाहित की जा सकती हैं भावनात्मक नव-निर्माण का जैसा सुन्दर तत्वज्ञान इन चौबीस अक्षरों में भरा पड़ा है वैसा अन्यत्र कही नहीं मिलेगा। इन महामन्त्र को उपासना का माध्यम बनाकर विशृंखलित समाज का केन्द्रीयकरण किया जा सकता है आत्म-दल बढ़ाने की दिशा मिल सकती है और विचार क्रान्ति की महान आधुनिक आवश्यकता को प्राचीनतम आधार के सहारे भली-भाँति पूरा किया जा सकता है इसी प्रकार यज्ञीय कर्मकाण्ड से चिर-परिचित, चिर अभ्यस्त भारतीय जनता यज्ञीय जीवन, यज्ञीय परम्पराओं का प्रकाश ग्रहण कर सकती है और व्यक्ति वाद को समूहवाद में- स्वार्थ को परमार्थ में बदलने की व्यापक भूमिका बन सकती है।

धर्म तन्त्र के माध्यम से नव-निर्माण की सम्भावनाओं को साकार करने की सुव्यवस्थित और साँगोपाँग योजना हम बहुत पहले प्रस्तुत कर चुके हैं आवश्यकता उसे क्रियान्वित कर सकने वाले समर्थ व्यक्तित्वों की है। यदि राजनीति जैसी दिलचस्पी प्रबुद्ध वर्ग इस दिशा में लेने लगे तो जो कार्य राजतन्त्र के द्वारा सौ वर्ष में नहीं हो सकता वह पाँच वर्ष में सम्भव हो जायगा। भारत जैसे 80 प्रतिशत अशिक्षित और गहन देहात में फैले हुए देश के लिए जन-जागरण का आधार ‘धर्म तन्त्र’ के अतिरिक्त दूसरा हो ही नहीं सकता। गाँधी जी इस मर्म को समझते थे और उन्होंने स्वतन्त्रता आन्दोलन में इस तत्व का समावेश भी किया और आशाजनक सफलता भी पाई। आज भी ऐसे दूरदर्शी लोगों की जरूरत है जो गाँधी जी की तरह इस देश की वस्तु स्थिति समझने का प्रयत्न करें और नव-निर्माण के लिये धर्म तन्त्र की विपुल क्षमता को प्रयुक्त करने के लिए योगदान दे सकें।

धर्म तन्त्र के माध्यम से अपने हिन्दू समाज में उत्कृष्टता आदर्शवादिता एवं प्रगतिशीलता उत्पन्न करने के लिए एक सर्वांग, सुन्दर योजना हम बहुत दिनों से चला रहे हैं। आवश्यकता इस बात की है कि ऐसी ही योजनायें अन्य देशों के लिए अन्य भाषा-भाषियों के लिए अन्य धर्म सम्प्रदायों के लिए भी बनाई जाय। आधार, उद्देश्य, प्रवाह तो सबका एक हो पर क्षेत्रीय एवं परम्परात्मक स्थिति को ध्यान में रखकर बाह्य कलेवर अलग-अलग ढंग से बना दिये जायँ। अपनी योजना हिन्दू समाज की परम्पराओं के आधार पर चल रही है। अब समय आ गया कि इसे बहुमुखी बनाया जाय। अपने देश में भी अभी जैन, बौद्ध, सिक्ख, द्रविण तथा प्रान्त एवं सम्प्रदायों के हिसाब से बहुत भिन्नता है। इन भिन्नताओं को ध्यान में रखते हुए स्थानीय भाषाओं तथा परम्पराओं का सम्मिश्रण करते हुए अलग-अलग क्रिया-प्रक्रिया बन सकती है और बननी चाहिए। हिन्दू धर्म के बाहर का क्षेत्र भी अछूता नहीं छोड़ा जा सकता। मुसलमान, ईसाई, यहूदी, पारसी, बौद्ध आदि अनेक धर्म एवं संस्कृतियों का संसार में विस्तार है। उनके लिए भी उन्हीं वर्गों के लोग उनकी रुचि एवं परम्परा मिश्रित योजनायें लेकर अग्रसर हो सकते हैं और अपने क्षेत्र तथा वर्ग को प्रभावित कर सकते हैं। अभी वह समय नहीं आया कि एक ही रीति-नीति को सब पर थोपा जा सके। यह प्रयत्न इतिहास में अनेक बार हो चुके हैं और हर बार असफल हुए हैं। एक धर्म या संस्कृति के नीचे सारे विश्व को लाने के लिए एक सर्व-सम्मत धर्म तन्त्र की रचना करनी होगी। वर्तमान तन्त्रों में ऐसे कोई एक अपना प्रभुत्व सार्वभौम बढ़ाना चाहे तो यह सम्भव न होगा। आग्रह दुराग्रह वर्तमान मान्यताओं के साथ इतने जुड़ गये हैं कि कोई किसी की प्रभुता स्वीकार करने को तैयार नहीं। योरोप में ईसाई धर्म हिन्दुस्तान में इस्लाम धर्म फैलाने के लिए प्रचार से लेकर प्रलोभन और आवक तक के तरीके काम में लाये जा चुके हैं। पर वे सदा असफल ही सिद्ध हुए हैं। एक सार्वभौम धर्म की- सार्वभौम संस्कृति की निस्सन्देह अति आवश्यकता है पर उसके लिए आग्रहवाद भूमिका को नरम करने के उपरान्त एक सर्वसम्मत आधार को गढ़ देने का धैर्य रखना होगा। सम्भव है ऐसे तत्व भारतीय धर्म और संस्कृति में ही छिप जायें जो उपरोक्त प्रयोजन की अधिकाँश आवश्यकता पूरी कर दें। पर अभी तो इतना कदम उठाना ही सामयिक होगा कि अपने धर्म और संस्कृतियों के दायरों में उसी वर्ग के लोगों द्वारा उसी परिधि एवं परम्परा को आगे रखकर युग-निर्माण के मूल तत्व ज्ञान को सर्वत्र हृदयंगम कराया जाय। इन दिनों धर्म-तन्त्र के प्रति जो उदासीनता एवं उपेक्षा दिखाई पड़ रही है यदि वह दूर हो सके तो यह अति सरल है कि एक दिशा देने वाली विभिन्न परम्परायुक्त योजनायें बनकर तैयार हो जायें और धर्म तन्त्र का महान प्रयोजन विपन्न वर्ग और क्षेत्रों में समान गति से क्रियान्वित हो सके।

इस सार्वभौम सर्व-सम्प्रदाय सम्मत धर्म मंच के लिए कितनी बड़ी योजना बनानी पड़ेगी, कितनी तैयारी करनी पड़ेगी और उसे कार्यान्वित करने के लिए कितनी-कितनी विशाल सीमा निर्धारित करनी तथा कितने साधन जुटाने पड़ेंगे यह सब असम्भव और आश्चर्यजनक लगता है। किन्तु यह ध्यान रखा जाय जो कुछ अब तक किया जा चुका है और जो आगे किया जाने वाला है वह निस्सन्देह आश्चर्य ही है। अगले दिनों अपना कोई कदम चमत्कार से कम गिना जाने वाला नहीं है। विश्व मानव की उत्कृष्टता की एक मैन धुरी पर केन्द्रित करने के प्रयास और प्रयत्नों को अद्भुत अनुपम एवं चमत्कार से कम कहा नहीं जा सकता।

साक्षरता प्रधान शिक्षा को सुविस्तृत बनाने के लिए एक सुव्यवस्थित योजना हमारे सामने होनी चाहिए। लोगों को कहा जाना चाहिए कि नौकरी के लोभ में नहीं, वरन् व्यक्तित्वों के विकास के लिए शिक्षा प्राप्त की जानी चाहिए। कोई जमाना था जब स्कूल-कालेज की पढ़ाई के बाद आसानी से नौकरी मिल जाती थी। अब शिक्षा का व्यापक प्रसार हो जाने से यह सर्वथा असम्भव हो गया। धीरे-धीरे सभी पढ़ जायेंगे। सभी नौकरी करें तो उन्हें रखेगा कौन? अभी भी शिक्षितों की बेकारी समाज में विद्रोह उत्पन्न कर रही है। आगे तो वह एक संकट ही खड़ा कर देगी। इसीलिए “नौकरी के लिये पढ़ाई” वाली दृष्टि तुरन्त बढ़ती जानी चाहिए और घर-घर जाकर अभिभावक-अभिभावक से, बच्चे-बच्चे से, यह कहना चाहिए कि पढ़ाते या पढ़ते समय यह भली-भाँति समझा दिया जाय कि नौकरी के लिये नहीं, योग्यता के लिये-आवश्यकता के लिये ही शिक्षा प्राप्त की जानी चाहिए। वर्तमान पीढ़ी का यह वहम जितनी जल्दी निकाला जा सके, निकालने का प्रयत्न करना चाहिए कि पढ़ने के बाद नौकरी करेंगे। यह भ्रम निकल जाय तो व्यक्तियों को विकसित कर सकने वाली शिक्षा पद्धति को जड़ जमाने का अवसर मिल सकता है और वह बिना सरकारी सहयोग के भी अपने पाँवों पर आप खड़ी होकर व्यक्तित्वों के निर्माण का महान उद्देश्य आसानी से पूरा कर सकती है।

सरकारी वर्तमान शिक्षा पद्धति बहुत ही उलझी हुई है। उसमें निरर्थक पाठ्यक्रम की भरमार है। औसत व्यक्ति के लिये जितनी जानकारी चाहिए, अनावश्यक अंश बहुत ज्यादा है। फिर वार्षिक परीक्षा लेने का क्रम ऐसा है जिसे जुआ खेलने की बाजी ही कहा जा सकता है। शिक्षार्थी का बहुमूल्य, समय, श्रम और धन इस ऊबड़-खाबड़ जंगल में भटकते ही नष्ट होता रहता है। यदि जीवन में काम आने जितनी बातें ही सीखनी हों तो वर्तमान पाठ्यक्रमों में से तीन चौथाई अंश हटा देना पड़ेगा और नया जो अति आवश्यक है, उतना ही-लगभग तीन चौथाई ही-और जोड़ना पड़ेगा। तभी एक स्वर्ग सुन्दर पाठ्यक्रम की रचना हो सकेगी। जिन्हें किसी विशेष क्षेत्र में प्रवेश करना हो, उनके लिये विशेष शिक्षा की व्यवस्था रहे पर सर्वसाधारण को-जिसे सर्वसाधारण ही रहना है- उसे वह शिक्षा मिलनी चाहिए जो उसके भावी जीवन में बहुत करके काम आती रहे।

इस शिक्षण से व्यक्तिगत जीवन को विकसित एवं परिपुष्ट बनाने वाली, शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक सभी स्तर समुचित रूप से समाविष्ट रहेंगे। समाज के सामने प्रस्तुत समस्याओं के कारण और निवारण भी समझाए जाने चाहिए और यह बताया जाना चाहिए कि समाजों के उत्थान-पतन किन आधारों पर निर्भर रहते हैं। भूगोल, इतिहास, गणित आदि उतने ही पढ़ाने चाहिए जिनसे काम चलाऊ ज्ञान हो जाय और सामान्य जानकारियों का मोटा सिलसिला दिमाग में ढला रहे। ऐसी शिक्षा ही सर्वांगपूर्ण शिक्षा कही जा सकती है।

आज की स्थिति में उपरोक्त शिक्षा-पद्धति को सरकारी पाठ्यक्रमों के साथ नहीं जोड़ा जा सकता। स्कूली कोर्स और परीक्षा के ढंग ऐसे हैं कि शिक्षार्थी का पूरा दिमाग उसी में उलझ कर रह जाता है। अध्यापक अपनी कार गुजारी रिजल्ट अच्छा रखने में केन्द्रित रखते हैं। इसलिये वे बच्चों को कोर्स से बाहर की चीजें न पढ़ने को दबाते हैं। बच्चों के कमजोर मस्तिष्क और बढ़े-चढ़े पाठ्यक्रमों का वह बोझ ऐसा है जिसका ताल-मेल बिठाने में ‘ट्यूशन’ पढ़ना अनिवार्य हो गया है। स्कूल में और घर पर वही तोता रटन्त करनी पड़ती है, तब कहीं पास होने की नाव किनारे लगती है। यदि साल में अन्य पाठ्यक्रम भी जोड़कर रखे जायें तो पार पड़ने वाली नहीं है।

यह प्रयोग सर्वथा असफल हो चुका है कि सरकारी पाठ्यक्रमों के साथ जीवन-निर्माण की शिक्षा भी जोड़कर चलाई जा सकती है। इस आशा में कितने ही शिक्षण-संस्थान कितनी बड़ी-बड़ी आशायें लेकर चलाये गये। पर वे आदर्शवादी ख्वाब धूलि में मिल गये और ऊँचे आदर्शों के लिये स्थापित विद्यालय मात्र अन्य स्कूलों की लकीर की फकीर पीटने वाले, उसी ढाँचे में ढले हुए- उसी ढर्रे पर चलने वाले बन गये। गुरुकुलों के पाठ्यक्रम जब तक अपने थे, तब तक उनमें जान रही। अब जब सरकारी पाठ्यक्रम सरकारी मदद लेकर, सरकारी नौकरी ढालने के लिए राज्याश्रय स्वीकार कर लिया गया तो उनमें और दूसरे मामूली स्कूलों में कोई अन्तर नहीं रह गया।

हमें यह स्पष्ट मस्तिष्क लेकर चलना चाहिए कि परखे हुए अध्यापकों द्वारा व्यक्ति और समाज का सर्वांगपूर्ण विकास प्रस्तुत कर सकने में समर्थ शिक्षा-व्यवस्था होनी चाहिए और उसे प्राप्त करने वाले के मस्तिष्क में यह तथ्य स्पष्ट रहना चाहिए कि नौकरी के लिये नहीं वरन् प्रतिभा के लिये पढ़ा जा रहा है। स्पष्ट मनः स्थिति में ही 1-समान पाठ्यक्रम का निर्माण 2-परीक्षा विधान 3-अध्यापकों का चयन सम्भव है। हमारी दृष्टि में अनुभवी, चरित्रवान और वयोवृद्ध शिक्षक होना चाहिए। सरकारी दृष्टि में 25 वर्ष से कम उम्र का अनुभवहीन और गधा पच्चीसी की उम्र का उच्छृंखल लड़का ही गुरु पद स्वीकार करने का अधिकारी है। शिक्षक की योग्यता प्रमाणपत्रों के आधार पर सरकार आँकती है पर अपनी कसौटी इसमें सर्वथा भिन्न है। दो विपरीत भिन्नताओं के आपस के जोड़ने से आधा तीतर आधा बटेर बनेगा। इसलिए अच्छा यह है कि जो कुछ बनना हो स्पष्ट दृष्टिकोण से बने। जो नौकरी के लिए पढ़ना चाहें वे सरकारी पढ़ें। जिन्हें जीवन निर्माण की शिक्षा लेनी है वे नौकरी के लिए आवश्यक समझे जाने वाले प्रमाणपत्रों का लोभ छोड़ दें। अपने देश में आज की स्थिति में यह विलगाव और स्पष्टीकरण है। किसी समय काशी विद्या पीठ, गुजरात विद्यापीठ, नेशनल कॉलेज, गुरुकुल काँगड़ी, प्रेम महाविद्यालय की स्थापना भी इसी आधार पर हुई थी। अब भी यदि वे ही परिस्थितियाँ बनी हुई हैं, तो वह विलगाव भी आवश्यक है।

इस आधार पर विनिर्मित एक शिक्षा पद्धति का छोटा-सा नमूना गायत्री तपोभूमि में ‘युग-निर्माण विद्यालय’ के नाम से खड़ा किया गया है। यह अति आरम्भिक और साधन-रहित छोटा-सा प्रयोग है, इसलिए उसका पाठ्यक्रम भी एक वर्ष का ही रखा गया है। फिर भी उसके पीछे एक स्पष्ट दिशा विद्यमान है। इस विद्यालय में जापान के ढंग की बिजली से चलने वाली छोटी-छोटी मशीनों द्वारा संचालित दस्तकारियाँ सिखाई जाती हैं। प्लास्टिक के खिलौने, फाउन्टेन पेन, डाट पेन्सिलें, मोजे, बनियान बुनना, त्वरित कपड़े धोने की मशीनें, चश्मों के लेंस, साबुन बनाना, कितने ही प्रकार के केमिकल, रेडियो-ट्राँजिस्टर बनाना तथा साधारण बिजली की फिटिंग तथा विद्युत यन्त्रों की मरम्मत, प्रेस उद्योग की शिक्षा, रबड़ की मुहरें, तरह-तरह के खिलौने, फोटोग्राफी आदि ऐसे उद्योग सिखाये जाते हैं, उसमें विद्युत शक्ति और कला-कौशल के आधार पर अच्छी जीविका कमाई जा सके। जापान जैसे छोटे देश ने इतनी आर्थिक सम्पन्नता इस विद्युत संचालित कुटीर उद्योग से विकसित की है। यह अपने देश में भी शिक्षितों की बेकारी दूर करने का महत्वपूर्ण माध्यम हो सकता है।

इस औद्योगिक शिक्षण के साथ-साथ व्यक्ति एवं समाज से सम्बन्ध प्रायः सभी समस्याओं के कारण और निवारण का हल बताया जाता है। आज ऐसी ही शिक्षा की आवश्यकता है। साधन-सम्पन्न संस्थायें इस प्रयोग को बड़े पैमाने पर कर सकती हैं। अनुभवी रिटायर्ड वयोवृद्ध वानप्रस्थ लेकर अवैतनिक या निर्वाह मात्र लेकर अपनी बहुमूल्य सेवायें ऐसी संस्थाओं को दे सकते हैं। इस प्रकार इन संस्थाओं का खर्च बहुत थोड़ा रह जायगा, जिसे छात्रों की फीस, उत्पादन अथवा दान आदि में आसानी से चलाया जा सकता है। देश भर में ऐसी शिक्षण संस्थाओं का जाल फैल सकता है और उनके माध्यम से व्यक्ति एवं समाज का नव-निर्माण कर सकने की प्रवृत्ति व्यापक रूप से फैल सकती है।

अपने देश में अधिकाँश व्यक्ति दिन भर आजीविका के लिये कठोर श्रम करते हैं। छोटे बच्चों तक को बाप का हाथ बटाना पड़ता है। ऐसी दशा में देश के 20 प्रतिशत अशिक्षितों को शिक्षित बनाने की शिक्षा प्रौढ़ पाठशालाओं एवं रात्रि पाठशालाओं द्वारा ही हल हो सकती है। भारतीय नारी में असुरक्षा की भावना होती है, उन्हें पढ़ने के लिए प्रोत्साहन भी नहीं मिलता, दिन भर वे काम में भी लगी रहती हैं। ऐसी दशा में उनको फुरसत वाला तीसरा पहर वाला समय ही उपयुक्त रह सकता है। निरक्षरों को साक्षर बनाने और साक्षरों को आगे की योग्यता बढ़ाने के लिए ऐसे शिक्षण प्रयासों की भारी आवश्यकता है। स्वतन्त्र पाठ्यक्रम बन जाने- आवश्यकतानुसार परीक्षा व्यवस्था रहने, शिक्षार्थियों के उपयुक्त समय निर्धारित रहने, सेवानिवृत्त वानप्रस्थों द्वारा सस्ती शिक्षा मिलने के आधार पर एक देशव्यापी ऐसी शिक्षा-व्यवस्था बन सकती है जो न केवल निरक्षरता का उन्मूलन करे वरन् व्यक्तिगत जीवन के आदर्श एवं सामाजिक परम्पराओं को सुव्यवस्थित चलाने की आवश्यकता पूरी करे।

नव-निर्माण के लिए ऐसा प्रशिक्षण सुसंगठित एवं व्यापक बनाया जा सकता है। यह देखने भर में ही कठिन है, वस्तुतः इसका व्यवहार अति सरल है। इस प्रक्रिया के अंतर्गत छोटे बालकों के शिशु-मन्दिरों से लेकर वयोवृद्धों के स्वाध्याय मण्डलों तक- युवकों की व्यायामशालाओं से लेकर महिलाओं के ग्रह-उद्योगों शिक्षण तक- अनेक धाराओं में यह प्रक्रिया बन सकती है और उसका संचालन, कार्यकर्त्ताओं का प्रशिक्षण एक केन्द्रीय सूत्र के अंतर्गत हो सकता है। धर्मतन्त्र के माध्यम से जन-जागृति पैदा करने वाले कार्यकर्त्ताओं का भी प्रशिक्षण केन्द्र बन सकता है। ऐसी रचना निस्सन्देह जन-जीवन का कायाकल्प प्रस्तुत कर सकती है।

इस प्रयोजन को पूर्ण करने वाली एक शिक्षा प्रक्रिया तो इन दिनों भी चल रही है। विज्ञप्तियों की संख्या पिछले दिनों 50 तक छपी है। सन् 70 में शेष 50 और लिखकर उन्हें पूरी 100 कर देंगे। एक विज्ञप्ति रोज पढ़ाने या सुनाने का क्रम चलाकर- 5 छुट्टी काटकर 25 दिन के महीने में- 25 हर महीने पढ़ाई जा सकती हैं और यह कोर्स 4 महीने में पूरा हो सकता है। नव-निर्माण की दिशा देने की दृष्टि से एक सामान्य परिचय की तरह यह पाठ्यक्रम भी अतिमहत्वपूर्ण सिद्ध होगा। अपनी विज्ञप्तियाँ अन्य भाषाओं में भी छपनी आरम्भ हो गई हैं। उनके माध्यम से 14 भाषा-भाषी भारत के कोने-कोने में तथा विश्व में यह विचारधारा पढ़ाई-सुनाई एवं परिचित कराई जा सकेगी।

दूसरा प्रयत्न इन दिनों 25 पैसे वाले निबन्ध-ट्रैक्टों का है। अभी ये 200 हैं। कुछ दिनों में इनकी संख्या 300 हो जायेगी। छुट्टी काटकर 25 दिन का महीना मानें तो 12 महीने में हर रोज एक ट्रैक्ट पढ़ने के हिसाब से यह भी एक सर्वांगपूर्ण प्रशिक्षण सिद्ध होगा।

विज्ञप्तियों का कोर्स दस मिनट प्रतिदिन पढ़ने या सुनने वाले 4 महीने में पूरा कर सकेंगे। इस दूसरे कुछ ऊँचे ट्रैक्टों को पढ़ाने वाले ऊँचे कोर्स के लिए प्रतिदिन एक घंटा समय पढ़ाने या सुनाने के लिए और एक वर्ष का समय इस अवधि के पूरा करने के लिए चाहिए।

इन दोनों कोर्सों की एक परीक्षा विधि भी है। जो उन्हें पूरा कर ले उनके ज्ञान को जाँचने की लिखित परीक्षायें हुआ करें। छोटे विज्ञप्तियों वाले कोर्स की हर चार महीने बाद वर्ष में तीन बार। बड़े कोर्स की वर्ष में एक बार। प्रश्न-पत्र मथुरा से जाया करें और उत्तीर्ण लोगों को अति सुन्दर एवं आकर्षक प्रशंसा-पत्र, प्रमाण-पत्र दिये जाया करें।

इसके अतिरिक्त तीसरा पाठ्यक्रम इन सबमें ऊँचा और विशाल है। बाल कक्षा एवं पहले दर्ज से लेकर दसवें दर्जे तक का एक सा समान पाठ्यक्रम बनाया जायगा जिससे जीवन में काम आने वाली भाषा, गणित, भूगोल, इतिहास, शरीर शास्त्र, चिकित्सा, दीवानी फौजदारी कानून, सेल टैक्स, इनकम टैक्स, यात्रा, रेलवे, बैंक आदि के नियम विश्व की राजनैतिक एवं सामाजिक स्थिति आदि सामान्य जानकारियाँ तो दी ही जायें साथ ही व्यक्तित्व का विकास परिवार की सुव्यवस्था एवं समाज के समग्र विकास के आधार एवं प्रयोग समझाने वाली सामग्री प्रस्तुत की जाय। गृह शिल्प एवं कुटीर-उद्योग का भी इसमें सम्मिश्रण हो। पानी के हैंडपंप, फ्लेश के पखाने, निर्धूम और स्वल्प ईंधन से जलने वाले चूल्हें, गोबर गैस, चीनी मिट्टी के बर्तन, बिस्कुट, डबल रोटी, फलों के रस सुरक्षित रखना, साबुन, घरेलू शाक वाटिका, खिलौना उद्योग जैसे नये शिल्पों का तेजी से विकास होने वाला है। घर की पुताई, किवाड़ों तथा फर्नीचरों को वार्निश, टूटे बर्तनों की मरम्मत तथा सिलाई, रंगाई, चारपाई बुनना आदि दर्जनों गृहशिल्प ऐसे हैं जिनकी घर में आय दिन जरूरत पड़ती रहती है। इसी शिक्षण से सम्बन्धित रहेंगे और यदि सम्भव हुआ तो बिजली से चलने वाले ऐसे दर्जनों स्वल्प लागत के उद्योग सम्मिलित किये जायेंगे जो हर शिक्षित व्यक्ति को सम्मानपूर्ण अच्छी जीविका देकर उसकी बेरोजगारी की समस्या हल कर सकें। जापान जैसे छोटे देश ने अपनी आश्चर्यजनक आर्थिक प्रगति इसी आधार पर की है। हमें भी भारत जैसे निर्धन, अशिक्षित और देहातों में फैले हुए देश की आर्थिक समस्या सुलझाने के लिए कुटीर उद्योगों को ही प्रोत्साहन देना होगा। अपनी शिक्षा-प्रक्रिया में उपरोक्त सभी तत्वों का सम्मिश्रण होगा।

गायत्री तपोभूमि में आगे से जो एक वर्ष का पाठ्यक्रम चला करेगा उसमें छात्रों को उपरोक्त प्रथम कक्षा से दसवें कक्षा तक चलने वाली शिक्षा को उसी अवधि में पूरा करा दिया जायगा और उन्हें इस योग्य बना दिया जायगा कि वे अपने निज के जीवन को तो उस प्रशिक्षण के आधार पर सुविकसित एवं समुन्नत बनाए ही, साथ ही उपरोक्त शिक्षा प्रणाली के लिए सुयोग्य अध्यापक भी सिद्ध हो सकें। ऐसे विद्यालय सर्वत्र चलने चाहिए। चलाये जायेंगे। एक वर्ष तक मथुरा में शिक्षित हुए छात्र चाहें तो स्वयं अपना विद्यालय चला सकते हैं अथवा किन्हीं दूसरों द्वारा चलाये हुए विद्यालय में अध्यापक बन सकते हैं। इस प्रकार वे अपने जीवन का सदुपयोग करते हुए राष्ट्र की महती सेवा भी कर सकेंगे।

उपरोक्त प्रशिक्षण का सर्वांगपूर्ण पाठ्यक्रम इस वर्ष बनाया जा रहा है। अगले वर्ष जुलाई 71 से यह प्रशिक्षण मथुरा में आरम्भ किया जा सकेगा। तब तक उसकी पाठ्यक्रम पुस्तकें छापने, उपयुक्त साधन तथा स्थान आदि की व्यवस्था बनाने की दौड़-धूप भी की जाती रहेगी।

इस समय शिक्षा को एक विश्वविद्यालय के स्तर पर अगले वर्ष से अग्रसर किया जायगा। इसके लिये कितने विशाल साधनों की जरूरत पड़ेगी इसकी कल्पना करने भर से सिर चकराता है। अपने आज के संकल्प साधनों को आजकल के महान प्रयोजनों की तुलना करते हैं तो रंक को राजा बनने जैसा स्वप्न दीखने लगता है। पर हमें मनुष्य के भीतर बैठे भगवान की उदारता पर विश्वास है जो ऐसे महान प्रयोजनों को पूरा करने के लिए भामाशाह जैसे उदार सहयोग को समय-समय पर व्यवस्थित बनाता रहा है। अपनी साधन रहित परिस्थिति को- इस विशाल प्रशिक्षण को समर्थ में बदलने के लिए सम्भवतः वह बूँद-बूँद सहयोग दे सकने की अपने निर्धन परिवार से प्रेरणा उत्पन्न करेगा। इनमें से कोई बड़े कदम उठाने वाले भी निकल सकते हैं जो हमारी चिन्ता और आवश्यकता को सरल बनाने में अपनी गाढ़े पसीने की कमाई तथा श्रम सहयोग प्रस्तुत करने के लिए कुछ साहसपूर्ण कदम उठायें।

इस समय शिक्षा को एक विश्वविद्यालय के स्तर पर अगले वर्ष से अग्रसर किया जायगा। इसके लिये कितने विशाल साधनों की जरूरत पड़ेगी इसकी कल्पना करने भर से सिर चकराता है। अपने आज के संकल्प साधनों को आजकल के महान प्रयोजनों की तुलना करते हैं तो रंक को राजा बनने जैसा स्वप्न दीखने लगता है। पर हमें मनुष्य के भीतर बैठे भगवान की उदारता पर विश्वास है जो ऐसे महान प्रयोजनों को पूरा करने के लिए भामाशाह जैसे उदार सहयोग को समय-समय पर व्यवस्थित बनाता रहा है। अपनी साधन रहित परिस्थिति को- इस विशाल प्रशिक्षण को समर्थ में बदलने के लिए सम्भवतः वह बूँद-बूँद सहयोग दे सकने की अपने निर्धन परिवार से प्रेरणा उत्पन्न करेगा। इनमें से कोई बड़े कदम उठाने वाले भी निकल सकते हैं जो हमारी चिन्ता और आवश्यकता को सरल बनाने में अपनी गाढ़े पसीने की कमाई तथा श्रम सहयोग प्रस्तुत करने के लिए कुछ साहसपूर्ण कदम उठायें।

आपके सम्मुख 5 महत्त्वपूर्ण कार्य

(1) इन दिनों चल रहे 4-4 दिन के परामर्श शिविरों की उपयोगिता अनुपम है। इनमें हर अखण्ड-ज्योति पाठक को सम्मिलित होने का लाभ लेना ही चाहिए। इतना महत्त्वपूर्ण शिक्षण शायद ही फिर कभी किसी को मिल सके। इनमें सम्मिलित होने की तैयारी अभी से करनी चाहिए और मार्च में छपी अखण्ड-ज्योति में छपे शिविर क्रम में अपने लिये जो उपयोगी पड़ता हो उसमें आने की स्वीकृति प्राप्त कर लेनी चाहिये।

(2) अखण्ड-ज्योति और युग-निर्माण योजना के अंक कम से कम अपने दस मित्रों को पढ़ाते रहने का क्रम बनाइये और प्रयत्न कीजिए कि कुछ नये सदस्य बन सकें।

(3) प्रतिदिन दस नया पैसा और एक घण्टा समय निकालने और उसे ‘ज्ञान यज्ञ’ योजना के अंतर्गत अपने समीपवर्ती लोगों में विचार क्रान्ति उत्पन्न करने के लिए नियमित रूप से लगाया कीजिए।

(4) अपने क्षेत्र में युग-निर्माण विचार धारा को व्यापक बनाने के लिए ‘चल पुस्तकालय’ ढकेल गाड़ी का प्रबन्ध कीजिए। और ज्ञान मन्दिर की कितनी अद्भुत प्रतिक्रिया होती है, यह प्रत्यक्ष देखिये।

(5) आपके क्षेत्र में जन-जागृति का प्रयोजन पूरा करने के लिए एक युग-निर्माण सम्मेलन- जिसमें गायत्री यज्ञ भी जुड़ा हो- की सम्भावना पर विचार कीजिए और यदि सम्भव हो तो उसके लिए उत्साहपूर्वक प्रयत्न कीजिए।

(5) आपके क्षेत्र में जन-जागृति का प्रयोजन पूरा करने के लिए एक युग-निर्माण सम्मेलन- जिसमें गायत्री यज्ञ भी जुड़ा हो- की सम्भावना पर विचार कीजिए और यदि सम्भव हो तो उसके लिए उत्साहपूर्वक प्रयत्न कीजिए।


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