चेतना को प्रखर बनाने का एक सरल योगाभ्यास

January 2003

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

ध्यान की विभिन्न प्रक्रियाओं में एक शक्तिशाली प्रक्रिया ‘चिदाकाश विद्या’ है । यह स्वयं को जानने की ही एक विधा है। इसमें दो शब्द सम्मिलित हैं, ‘चित्त’ और आकाश । चित्त अर्थात् चेतना, जागरुकता और आकाश अर्थात् चेतना, जागरुकता और आकाश अर्थात् स्थान। इस प्रकार चेतना को आकाश की तरह विस्तृत, व्यापक, शुद्ध और गहरा बनाना ही इसका एकमात्र उद्देश्य है। योगवासिष्ठ की प्रबुद्ध लीला ने इसी चिदाकाश में असंख्य ब्रह्माँड देखे थे। शैवगण इसे ही चिदंबर या उमा−हैमवती के नाम से संबोधित करते हैं।

जब हम आँखें बंद करते हैं तो अंदर एक गहन अंधकार दिखाई पड़ता है। बाइबिल में इसे ‘आत्मा की अँधेरी रात’ कहा गया है। यह अंधकारपूर्ण चेतना का प्रकाशन ही चिदाकाश का रूप है। इसे भूताकाश कहते हैं। सर्वसाधारण लोग आमतौर पर अंधकारमय भूताकाश में निवास करते हैं। यह अंधकार का राज्य है। प्रकाश यहाँ का आगंतुक धर्म है। प्रकाश के लिए यहाँ प्रयत्न करना पड़ता है। यही अज्ञान का निदर्शन है। इसीलिए हम हृदयाकाश को अंधकार से आच्छन्न देखते हैं। बंद नेत्रों की स्थिति में यही तमिस्रा के रूप में सामने आता है। साधक को पराक्रमपूर्वक इस तम को पार करना पड़ता है। साधना−अभ्यास से जैसे−जैसे अज्ञान का यह अंधकार छँटता है, उसका स्थान ज्ञान का प्रकाश लेता जाता है। जब अंधकार का पूर्ण विलय हो जाता है तो संपूर्ण आत्मप्रकाश खिल उठता है, हृदयाकाश आलोकमय हो जाता है। यही चित्ताकाश है। चित्ताकाश का आलोकमय परदा जब कभी हट जाता है, तब जिस प्रकार चिदाकाश दिखाई देता है, ठीक उसी प्रकार भूताकाश का अंधकारमय परदा बीच−बीच में हट जाने पर उक्त रंध्रमार्ग में आलोकित चित्ताकाश का दर्शन होता है। चिदाकाश का दर्शन ऊर्ध्व नेत्रों से, चित्ताकाश का दर्शन मध्य नेत्रों से एवं भूताकाश का दर्शन अधोनेत्रों से होता है। प्रथम दर्शन मार्ग ब्रह्मरंध्र है, द्वितीय दर्शन मार्ग भ्रूमध्य स्थित दिव्य चक्षु तथा तृतीय दर्शन मार्ग चर्मचक्षु हैं। भूत शुद्धि के कारण चित्ताकाश में तथा चित्त शुद्धि के कारण चिदाकाश में अधिष्ठान होता है। साधक का अंतिम लक्ष्य हमेशा चिदाकाश ही होता है। चिदाकाश वास्तव में विष्णु के परमपद का प्रतीक है। वह ब्रह्मनिर्वाण अवस्था है। ध्यान के अभ्यास द्वारा ही इसे प्राप्त किया जा सकता है, किंतु इसके साथ−साथ आँतरिक शुद्धि भी आवश्यक है। इसके बिना केवल ध्यान का अभ्यास कोई विशेष उपलब्धि न दे सकता।

चिदाकाश विद्या के अभ्यास से आरंभ में तरह−तरह की अनुभूतियाँ होंगी। साधक को कुहरा, धुआँ, अंधकार, सूर्य, चंद्र, तारा, वायु, अग्नि, चिनगारी, उड़ती चिड़िया, छोटे−छोटे कण आदि अनेक वस्तुएँ क्रमशः दृष्टिगोचर होती हैं। अचेतन और अर्द्धचेतन मन की गहराई में छिपी हुई बातों के आधार पर ये वस्तुएँ दिखाई देती हैं। अभ्यास से धीरे−धीरे ध्यान जब गहरा होने लगता है, तब यह अनुभूति होती है। यह अनुभूति और कुछ नहीं, विचारों की एकाग्रता का ही रूप है, जो विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के रूप में अपने प्रकट और प्रत्यक्ष करती रहती है। चिदाकाश दर्शन आत्मविकास की एक उच्च अवस्था है। अंतः के परिष्कार के साथ साथ साधक जब उस व्यापक आकाश के दर्शन हेतु ध्यान का अभ्यास करता है तो इस क्रम में वह कई आकाशों के आवरणों को भेजते हुए अंत में वहाँ अवस्थान करता है। वह एक अनंत प्रकाशमय व्यापक सत्ता है। उसे कोई शब्दब्रह्म कहता है, कोई पराशक्ति, कोई परमशून्य तो कोई पूर्ण। वह वास्तव में अवस्थाहीन होने पर भी व्यवहारतः अवस्था भेद से विभिन्न आकाश रूप में वर्णित है। मूल में आकाश एक ही है। भूताकाश से भूतावरण हट जाते ही वही चित्ताकाश हो जाता है। चित्ताकाश से गुणावरण हट जाने पर वह चिदाकाश हो जाता है। चिदाकाश निर्मल है, उस पर कोई आवरण नहीं।

हृदयाकाश चिदाकाश का ही नामाँतर है। हृदय संबंधी यह विज्ञान प्राचीनकाल में ‘दहर−विद्या’ के नाम से प्रसिद्ध था, इस कारण हृदयाकाश को दहराकाश भी कहा जाता है। अंतराकाश इसी का दूसरा नाम है। बाहर जैसा विशाल अपरिच्छिन्न आकाश दिखाई देता है, वही, दृष्टि अंतर्मुखी होने पर भीतर भी विशाल अनंत आकाश के रूप में स्फुरण होता रहता है। यह आकाश ‘हृदय’ के नाम से भी जाना जाता है। दृष्टि जब बहिर्मुखी रहती है, तब इंद्रियगोचर जगत जिस आकाश में प्रतिभासमान् होता है, वही बाह्याकाश है। इसी प्रकार दृष्टि अंतर्मुखी होने पर दृश्य−प्रपंच जिस आकाश में परिस्फुरित होता है, वही अंतराकाश या हृदयरूपी आकाश अथवा चिदाकाश है।

इस हृदय आकाश में इष्ट का स्फुरण होता रहता है। जितने दिनों तक चित्त शुद्ध नहीं होता, उतने दिनों तक अंतराकाश तमसाच्छन्न रहता है। चित्तशुद्धि के साथ−साथ अंधकार दूर हो जाता है एवं स्वच्छ प्रकाश रूप में अंतर्दृष्टि के सामने हृदयाकाश उद्भासित होता है। इसके बाद स्वच्छ आकाश में ज्योति का आविर्भाव ही ज्ञान की सूचना देता है। बाहरी आकाश में जिस प्रकार सूर्य उदय होता है, अंतराकाश में उसी प्रकार देवता रूपी सूर्य का आविर्भाव होता है। उस आलोक से तब आकाश आलोकित हो उठता है।

ऊपर जिस अंतराकाश की चर्चा की गई है, उपनिषदों में उसे ‘पुँडरीक’ अथवा ‘कमल’ कहा गया है। जब तक यह कमल प्रस्फुटित नहीं होता, तब तक अंतःकरण अंधकार से आच्छन्न रहता है । जिसे इष्ट देवता का आविर्भाव कहा जाता है, वस्तुतः वही भावों का विकास है। भावों के विकास के साथ−साथ कमल उन्मीलित होता है अर्थात् हृदयाकाश आलोकित होता है। यह हृदयरूपी आकाश अथवा पद्म इष्ट देवता का अर्थात् भगवान का आसन है। गीता के अठारहवें अध्याय में कहा गया है− ईश्वरः सर्वभूतानाँ हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। भ्रामयर्न्सवभूतानि यन्त्रारुढानि मायया॥ 61॥

इससे समझ में आ जाता है कि सभी के हृदय में अंतर्यामी पुरुषरूप में परमात्मा विराजमान हैं। वे उस शून्य आसन में अधिष्ठित रहते हुए अपनी मायाशक्ति द्वारा देह का निरंतर संचालन करते रहते हैं, किंतु अहंकार में आविष्ट जीव अपने अनेक ज्ञान और क्रियाओं पर अभिमान करता है, सोचता है, सब कुछ वही जानता और वही करता है, परंतु वास्तविकता इससे भिन्न है। सचाई यह है कि वह न कुछ जानता है, न करता है। वह द्रष्टा मात्र है। ज्ञान और क्रिया, शक्ति की लीला है। इस मायारूपिणी शक्ति का आश्रय एवं अधिष्ठाता उसके हृदय में स्थित अंतर्यामी पुरुष है। इस सिद्धाँत को स्पष्ट रूप से समझ लेने पर जीव कर्मबंधन से मुक्ति प्राप्त कर सकता है।

चिदाकाश या हृदयाकाश को उपलब्ध करने के अनेक उपाय हैं, पर सबसे सरल तरीका ध्यान का ही है। इस ध्यान−अभ्यास को सुगमता के लिए पाँच चरणों में बाँटा गया है। प्रथम अवस्था उस अंधकार के अवलोकन की है, जिसके अंदर चिदाकाश उस समय बंद हो जाता है, जब नेत्र बंद किए जाते हैं। द्रष्टा की भाँति उसे देखते रहना पड़ता है, मानो मानसिक आँखों के सम्मुख किसी नाटक का प्रदर्शन हो रहा हो।

द्वितीय चरण में अंधकार की जगह विभिन्न रंगों की प्रकाश किरणें दिखलाई पड़ेंगी। लाल, नीला, पीला, सुनहरा या श्वेत, इनमें से कोई एक रंग या इनका सम्मिश्रण दीख सकता है। दृष्टि केवल इन रंगों का खेल देखती रहे, उन्हें समझने का प्रयास न करे। कुछ समय तक यही क्रिया चलने दीजिए। इसके उपराँत तीसरे स्तर पर आइए।

इस स्तर पर चेतना को अँधेरे परदे की ओट से रंगों के खेल के माध्यम से गहराई में जाने दीजिए। उसे गहरी कीजिए। इससे एकाग्रता घनी होती जाएगी। इस स्तर पर मानसिक सक्रियता बढ़ जाती है, अतः द्रष्टा भाव बनाए रखिए। कुछ समय तक इस अभ्यास को जारी रखिए।

चतुर्थ अवस्था में चिदाकाश का पूर्ण निरीक्षण कीजिए। चारों ओर उसका अवलोकन कीजिए। इससे चेतना व्यापक होती जाएगी। ऐसा करते समय अपने कार्य के प्रति जागरुक रहिए। तदुपराँत पंचम श्रेणी में आइए। चिदाकाश के मध्य बिंदु पर अपनी चेतना रखना, यही पंचम अवस्था है। इस अभ्यास के द्वारा चेतना सूक्ष्म होकर अधिक गहराई में पहुँचती है। यहाँ पहुँचते−पहुँचते चित्त की शुद्धि परिपूर्ण हो जाती है और आँतरिक गगनमंडल का आलोक स्पष्ट दीखने लगता है।

चिदाकाश विद्या वास्तव में चेतना को प्रखर बनाने का ही एक अभ्यास है। इस अभ्यास द्वारा चिदाकाश चा दहराकाश की प्राप्ति अध्यात्म की एक उल्लेखनीय उपलब्धि मानी जाती है। इसका भौतिक महत्व भी कम नहीं है। इससे शारीरिक−मानसिक स्वस्थता सहजता से हस्तगत हो जाती है। इसलिए भी यह एक उपयोगी साधन है। हर एक को इसका अवलंबन और लाभ लेना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118