पाटलिपुत्र की नगरवधू कोशा का रूप−लावण्य उन दिनों अद्वितीय था। उसकी एक मुसकान पर बड़े−बड़े श्रीमंत सब कुछ लुटाने को तैयार रहते थे।
एक दिन शाल्वन बुद्ध पीठ के मठाधीश वसंत गुप्त उधर से निकले, तो कोशा पर उनकी नजर पड़ी। सोए कुसंस्कार जागे और वे उसी संत वेश में नगरवधू के प्राँगण में जा पहुँचे। कोशा का अनुमान था कि वे भिक्षाटन के लिए आए होंगे, सो उनका सत्कार करते हुए भिक्षा देने के लिए सेविका को संकेत कर दिया, पर उनका अभिप्राय तो कुछ और ही था। वे प्रणय निवेदन कर रहे थे।
कोशा ने तिरस्कार करना तो ठीक न समझा, पर शर्त लगा दी कि इतनी रत्नराशि वे प्रस्तुत कर सकें, तो ही उनकी मनोकामना पूर्ण हो सकेगी। वसंत गुप्त चल दिए और जिन संपन्नों से उनका परिचय था, उन सभी से संग्रह करके उतनी संपदा जुटा ली। लंबे डग भरते हुए आए और वह राशि कोशा के चरणों पर रख दी। कोशा ने उन रत्नों से अपने पैर रगड़−रगड़कर घिसे और उन्हें नाली में फेंक दिया। कहने लगी, देव आपका वेश और तप मेरे मलिन शरीर से श्रेष्ठ है। उसका उपार्जन इसी प्रकार नाली में चला जाएगा, जैसे कि यह रत्नराशि इस गंदी नाली में बह गई। कोशा का उद्बोधन उनके हृदय को चीरकर घुस गया। विवेक जागा, तो वे उसे गुरुभाव से प्रणाम करते हुए अपने शील का बचाव करते उलटे पैर लौट गए।