अनंत ब्रह्माँड में छिपे पड़े हैं ऊर्जापुँज

January 2003

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अनन्त ब्रह्मांड स्वयं में अगणित आश्चर्य समेटे हुए हैं। इसका एक अद्भुत घटक है ‘ब्लैक होल’ जो न केवल विशेषज्ञ खगोलविदों के लिए जिज्ञासा का विषय बना है बल्कि सामान्य जन के लिए भी रोचकता लिए हुए है। यह ब्रह्मांड में विद्यमान अदृश्य पिण्ड है, जिसकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति इतनी सशक्त है कि इसकी पकड़ से कुछ भी नहीं बच सकता। यहाँ तक कि प्रकाश की किरणें भी इससे नहीं बच पाती। अतः यह कोई प्रकाश नहीं देता व नहीं इसे देखा जा सकता। इसका अनुमान इसके चारों ओर खगोलिय पिण्डों में होने वाली प्रतिक्रियाओं से लगाया जाता है।

इस अद्भुत खगोलीय पिण्ड का सर्वप्रथम विचार रॉयल सोसायटी के फैलो, अंग्रेज खगोलविज्ञानी जान माइकल ने 1983 में दिया। माइकल ने सुझाव दिया था कि कृष्ण सितारों का अस्तित्त्व हो सकता है जिनका गुरुत्वाकर्षण बल इतना सशक्त है कि प्रकाश भी उनसे नहीं बच सकता। इनके पश्चात् पियरे लेप्लेस नामक वैज्ञानिक भी सन् 1798 में अपनी गणनाओं के आधार पर इन्हीं निष्कर्षों पर पहुँचा। लेकिन लोगों को इनकी यह अद्भुत परिकल्पना एवं निष्कर्ष हास्यास्पद लगे और 19 वीं सदी में इनकी बातों को भूला देना ही उचित समझा गया। पुनः अल्बर्ट आइन्स्टाइन के सामान्य सापेक्षतावाद सिद्धान्त के प्रकाश में यह परिकल्पना पुनः उभर कर आई। इसके आलोक में ऐसी किसी चीज के अस्तित्त्व होने की बात महसूस की जाने लगी।

इस सिद्धान्त के अनुसार किसी भी वस्तु का गुरुत्व बल अपने परिवेश के दिक्-काल को वक्रता प्रदान करता है। एक विशेष गुरुत्वाकर्षण बल पर समय एकदम विरामवस्था में आ जाता है। सिद्धान्त के अनुसार इस स्थिति में सितारा अपने गुरुत्व के दबाव में आकर माइक्रो सेकेंड के अन्दर दिक्-काल की ‘सिंगुलरिटी’ में अंतःस्फुरित हो जाएगा व आकाश में एक ब्लैक होल रह जाएगा।

कई दशकों तक ब्लैक होल की चर्चा एक कोरी गणितीय उत्सुकता के रूप में रहीं। कोई भी यह सोच नहीं सकता था कि पदार्थ सिमटकर इतनी उग्र स्थिति में आ सकता है जो ब्लैक होल का रूप ले ले। इससे पहले कि ब्लैक होल पुनः व्यंग का विषय बनते साठ के दशक में इसके प्रमाण स्वरूप कुछ-कुछ संकेत मिलने प्रारम्भ हो गए। खगोलविदों ने तारों और सौर मण्डल के सदस्यों के व्यवहार में एक विशेष बिन्दु के इर्द-गिर्द असामान्य व्यवहार को देखा, इस विशेष बिन्दु पर ये पिण्ड अपने निश्चित पथ पर घूमते हुए कुछ विचलित हो जाते थे और उस बिन्दु से गुजर जाने के बाद पुनः अपने सामान्य पथ पर घूमते थे।

सन् 1967 में सुग्राही दूरदर्शी यंत्रों की सहायता से पल्सर तथा न्यूट्रॉन सितारों का पता चला। न्यूट्रॉन सितारे ब्लैक होल बनने से पूर्व की स्थिति है। ब्लैक होल के संबंध में प्रायोगिक रूप से कुछ जानने के लिए नासा ने ‘उहुरु’ नामक प्रथम खगोलिक कृत्रिम उपग्रह बनवाया, जिसे एयरो स्पेस रिसर्च सेन्टर से 12 दिसम्बर 1970 को अंतरिक्ष में छोड़ गया। उहुरु ने अपने रेडियो टेलिस्कोपों से ऐसे 200 तारा स्रोतों का पता लगाया जो एक्स-रे और अवरक्त तरंगें उत्सर्जित करते थे। अध्ययन द्वारा खगोलविदों ने पाया कि लिग्नस एक्स-1 में कोई ब्लैक होल अवश्य है, क्योंकि परीक्षण में इससे वे ही लक्षण पाए गए जो सैद्धान्तिक रूप से ब्लैक होल के लिए पूर्ववत घोषित किए जा चुके थे। इस तरह के ब्लैक होल की उपस्थिति का पता अमेरिकी अंतरिक्ष कार्यक्रम के वैज्ञानिकों ने 1962 में लगा लिया। इस ब्लैक होल का द्रव्यमान सूर्य से 10-15 गुना अधिक था जबकि इसका अर्द्धव्यास मात्र 30-45 किमी. ही था। लिगनस एक्स-1 प्रति सेकेंड इतनी ऊर्जा उत्सर्जित कर रहा था कि इसकी एक सेकेंड की ऊर्जा से सारे विश्व की गाड़ियाँ प्रतिदिन 100 किमी. की गति की दर से 100 अरब वर्षों तक दौड़ सकती हैं।

इसके बाद ब्रह्मांड में ब्लैक होल के कुछ संभावित व कुछ स्पष्ट प्रमाण मिले हैं। अमेरिका की एस्ट्रानामिकल सोसायटी की बैठक में रमेश नारायण ने ब्लैक होल सम्बन्धी अपने अनुमानित प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने अंतरिक्ष में ऐसी गैस के प्रमाण जुटाए हैं जो अकल्पनीय रूप से गर्म हैं। उक्त गैस का तापमान दस खरब डिग्री सेल्सियस बताया गया है। इतने उच्च ताप का पृथ्वी पर अस्तित्त्व का कोई प्रमाण नहीं है, सूर्य के गर्भ में करोड़ों नाभिकीय विस्फोट एक साथ होते रहते हैं, जिसके कारण इसके गर्भ में तापमान दो करोड़ डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जाता है। भयानक रूप से गर्भ गैस का तापमान सूर्य से 50,000 गुना अधिक है। इसका इतना अधिक तापमान कैसे सम्भव हुआ? इसकी ऊर्जा कहाँ से आ रही है? सैद्धान्तिक रूप से इसका कारण ब्लैक होल बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि उक्त गैस के आसपास कोई ब्लैक होल अवश्य होना चाहिए।

मेसाच्यूट इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी के शोधदल ने पाँच ब्लैक होल खोजे, जो पड़ोसी सितारों के पदार्थ को अवशोषित कर रहे थे व जिनके चारों ओर अभिवृद्धि मण्डल विनिर्मित थी। पदार्थ इनमें गिरकर एक्स रे को छोड़ रहा था। इन किरणों से ‘फ्रेम ड्रेगिंग’ का मापन किया गया। दल के प्रधान डॉ. वी लुई के अनुसार ‘अभिवृद्धि डिस्क’ में डाँवाडोल हो रहा पदार्थ फ्रेम ड्रेगिंग का प्रमाण है। पदार्थ का कक्ष तभी लड़खड़ा सकता है जबकि इसके चारों ओर का दिक्काल घसीटा जा रहा हो। यह ब्लैक होल के अस्तित्त्व को प्रमाणित कर देता है।

1994 में हब्बल स्पेस टेलिस्कोप की सहायता से गर्म द्रव्य की एक डिस्क खोजी गई जो मंदाकिनी एम-87 के केन्द्रीय क्षेत्र के इर्द-गिर्द 20 लाख किमी. प्रति घण्टे की गति से घूम रही थी। यह हमारी मंदाकिनी से लगभग 150 लाख पार सेकेंड दूर स्थिति है। इसके केन्द्रिय क्षेत्र में एक किलोपार सेकेंड से भी लम्बा गैस का फव्वारा फूट रहा था। एम-87 के केन्द्र के चारों ओर की अभिवृद्धि डिस्क, एक बृहद् ब्लैक होल के गुरुत्वीय आकर्षण से प्रभावित होने का प्रमाण प्रस्तुत कर रही थी। इसका द्रव्य हमारे सूर्य से 30 अरब गुना अधिक था।

1994 में ही आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय एवं किले विश्वविद्यालय से खगोलविदों ने बी-404 सिग्नी युग्मतारा समुदाय में एक तारकीय ब्लैक होल खोजा। इस युग्मतारे समुदाय के कक्षीय घेरे ने ब्लैक होल का सही-सही प्रमाण दिया। इस द्रव्य सूर्य से 12 गुना अधिक था वह इसके इर्द-गिर्द सूर्य के द्रव्य के 70' द्रव्य का सामान्य सितारा था।

अमेरिका के ओहियो स्टेट विश्वविद्यालय के दो खगोलशास्त्री ब्रेडले पीटरसन एवं करलेण्ड ने 1995 में एन.जी.सी.-5548 नामक आकाशगंगा का अवलोकन करते हुए अनायास ही एक ब्लैक होल को खोज लिया तथा उसे तारे निगलते हुए देखा।

नवम्बर 97 की न्यूजवीक पत्रिका में प्रकाशित लेख के अनुसार हब्बल स्पेस टेलिस्कोप से प्रत्येक मंदाकिनियों के केन्द्र में जहाँ भी देखा गया, एक वृहद ब्लैक होल पाया गया। चूँकि प्रचण्ड गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण प्रकाशन की किरण तक इससे बच नहीं पाती, इसे देखना सम्भव नहीं। मंदाकिनियों के केन्द्र के चारों ओर गैस के उमड़ते बादल-बवण्डरों की गति से ही इसका अनुमान लगाया गया। हब्बल ने यह भी पाया कि ये ब्लैक होल पेटू थे। यदि हर मंदाकिनी के केन्द्र में ब्लैक होल होते हैं तो क्या हमारी आकाशगंगा के केन्द्र में भी है? नोबेल पुरस्कार विजेता प्रसिद्ध वैज्ञानिक चार्ल्स टाउंस के अनुसार ने अनेक तरह की विकिरणों के अध्ययन से बताया कि अभी निश्चित तो नहीं कह सकते, लेकिन वहाँ अत्यधिक संघातीत द्रव्य विद्यमान है, जो ब्लैक होल भी हो सकता है।

खगोलविदों के एक अन्य दल ने अपनी मंदाकिनी के बीचो−बीच हमारे सूर्य से लगभग 26 लाख गुना बड़ा एक भीमकाय ब्लैक होल होने का दावा किया है। आकाशगंगा के केन्द्र के समीप 30 लाख किमी. प्रति घण्टा की गति से घूम रहे सितारों की गति सबसे सशक्त प्रमाण प्रस्तुत कर रहा है कि एक वृहद् ब्लैक होल पृथ्वी की मंदाकिनी के केन्द्र पर गुरुत्वीय आश्रय प्रदान कर रहा है। 200 से भी अधिक सितारों के गति का मापन करते हुए मेक्स प्लाँक इन्स्टीट्यूट फॉर एक्स्ट्रा टेरेस्ट्रियल फिजिक्स, जर्मनी के शोध वैज्ञानिकों ने पाया कि आकाशगंगा के केन्द्र के समीपस्थ सितारे बहुत ही तीव्र गति से चल रहे थे। इनमें कुछ की गति तो 600 मील प्रति सेकेंड तक थी, खगोलविद् एंड्रियास एकार्ट कहते हैं कि सितारों को यह गति सूर्य से 260 लाख गुणा अधिक द्रव्य की वस्तु ही प्रदान कर सकती है और यह आकाशगंगा के केन्द्र में ब्लैक होल का सबसे सशक्त प्रमाण मिला है। सितारों की इस गति की अन्य कोई व्याख्या नहीं हो सकती। अभी तक आकाशगंगा के केन्द्र में ब्लैक होल की उपस्थिति एक विवादास्पद विषय रहा था। आकाशगंगा का केन्द्र सूर्य एवं इसके ग्रहों से 26,000 प्रकाशवर्ष दूर है।

‘कम्पेनियन टू द कोस्मोस’ में जॉन ग्रिबिन लिखते हैं कि हमारी मंदाकिनी में 100 अरब चमकीले सितारे, हजारों लाखों वर्षों से विद्यमान हैं। इनमें 4000 लाख मृत पल्सार (शाँत न्यूट्रॉन सितारे) हैं। अनुमानतः ब्लैक होल इसके एक चौथाई अर्थात् 1000 लाख तो मंदाकिनी में यत्र-तत्र बिखरे हुए होंगे ही। दूसरी मंदाकिनियों में ब्लैक होल की ऐसी ही प्रचुरता हो सकती है।

एक अनुमान के अनुसार जब दो ब्लैक होल अपने आस-पास की द्रव्यराशि को उदरस्थ करते हुए आमने-सामने आ जाते हैं और एक दूसरे को हड़पना चाहते हैं तो तीव्र आकर्षण के परिणाम स्वरूप होने वाले टकराव से इतना ताप उत्पन्न होता है कि दोनों ब्लैक होल ऊर्जा और गैस के रूप में बदल जाते हैं। पुनः तारों एवं निहारिकाओं का निर्माण होता है। इस तरह ऊर्जा एवं पदार्थ के विकास से निर्माण और विनाश की प्रक्रिया चलती रहती है।

ब्लैक होल रूपी विचित्रता के बिन्दु में जहाँ भौतिक नियम टूट जाते हैं, आकाश और काल की सत्ता समाप्त हो जाती है, इसका उल्लेख ऋग्वेदों में भी किया गया है। महर्षि अरविन्द ने आध्यात्मिक दृष्टि से ऋग्वेद को ज्योति का महाकाव्य कहा है। भौतिक सत्ता के संदर्भ में इसे कृष्ण तत्त्व की कामायनी भी कह सकते हैं। इस तत्त्व के द्रष्ट प्रखर मनीषा वाले ऋषि थे। इन्हें सघन अंधकार के गह्वर में लम्बी दूरी को चीरकर देखने वाली आँखें मिली थीं। इसलिए इन्हें दीर्घतमस की संज्ञा दी गई है। उनके तत्त्वदर्शन की स्थापना है कि सारी सृष्टि की रचना ज्योति एवं ऊर्जा के संयोग से होती है और विश्व की सभी प्रकाशमयी आकृतियाँ कालिमा के विराट् शून्य से उत्पन्न होती है।

‘कृष्ण अम्बं महि वर्षः करिकृतः’ उनका कहना है कि जब नीले आकाश में निशा सुन्दरी के काले केश लहराते हैं तब उनसे उजली किरणें फूट पड़ती हैं- ‘तमुगुवः केशिनी संसहिटोमेरा’ ब्रह्मांड उद्भव की कणीय व्याख्या को वैदिक शब्दावली में रजोवाद कहा गया है। रज के दो रूप माने गये हैं- कृष्ण स्वरूप और उज्ज्वल स्वरूप। महर्षि दीर्घतमस की मान्यता है कि भौतिक सत्ता और प्राणिक समष्टि दोनों के अंतरों में कृष्ण तत्त्व के बीच निहित हैं, ‘आकृष्णेन रजसा वर्तमानं निवेशयन अमृतं च मर्त्य च’ इन्हीं बीजों के अंकुरण से संसार की उत्पत्ति होती है। ऋषियों की अंतर्दृष्टि के अनुसार किसी नन्हें से काले बिन्दु में सारा विश्व समाहित रहता है।

आज वैज्ञानिक ब्लैक होल की प्रतिवर्ती घटना के रूप में व्हाइट होल का विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं। चूँकि द्रव्य का विनाश नहीं होता, अधिक से अधिक उसका ऊर्जा में रूपांतरण होता है। खगोलविदों की कल्पना है कि ब्लैक होल में गिरने वाला द्रव्य की एक ऐसी अवस्था में आ सकती है जब महत्तम घनत्व पर पहुँच कर, दिक् काल के किसी अन्य क्षेत्र में हमारे या किसी अन्य विश्व में एक विस्फोट के रूप में प्रकट हो, तो इसे व्हाइट होल की संज्ञा दी जाएगी। दिक् काल के दो क्षेत्र ब्लैक होल यहाँ और व्हाइट होल वहाँ एक सुरंग द्वारा संबद्ध रहते हैं। ब्लैक होल में हड़प होने वाला द्रव्य इसी सुरंग से होकर व्हाइट होल में विस्फोट के रूप में प्रकट होता है।

‘गॉड एण्ड न्यू फिजिक्स’ के चर्चित लेखक पॉल डेविस के अनुसार ब्लैक होल अनंतता की ओर जाने वाले तीव्रगामी मार्ग का प्रतिनिधित्व करता है। इसके गुरुत्त्व की अप्रशाम्य पकड़ असहाय यात्री को ‘सिंगुलेरिटी’ की ओर खींचती है, जहाँ एक माइक्रो सेकेंड बाद वह समय एवं विलुप्ति की अंतिम सीमा पर पहुँचता है। सिंगुलेरिटी अज्ञात लोक के मार्ग की यात्रा का अंत है। यहाँ भौतिक जगत् का अस्तित्त्व समाप्त हो जाता है।


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