सादगीपूर्ण जीवनशैली ही शाँति दे सकेगी

January 2003

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वर्तमान समय में मानव अन्तरिक्ष युग में जी रहा है। आज विज्ञान जगत् में होड़ लगी है कि मंगल-बृहस्पति आदि ग्रहों पर स्थाई निवास के लिए बस्तियाँ जल्दी-जल्दी बनाई जाय। मानवी सभ्यता लगभग यन्त्रीकृत हो गई है एवं होती जा रही है। इस यन्त्रीकरण की दौड़ में मानव की स्वयं की हैसियत भी एक यन्त्र की तरह हो गई है। उसने स्वयं को भी महज एक कम्प्यूटर मान लिया है। बस यही कि वह कुछ और अधिक अच्छी श्रेणी का कम्प्यूटर है।

यहाँ न तो विज्ञान को नकारा जा रहा है और न उसको अनुपयोगी ठहराया जा रहा है। साधनों की आवश्यकता उपयोग के लिए है न कि उपभोग के लिए। साधनों का उद्देश्य कोई साध्य होना ही चाहिए। किन्तु यहाँ साधन-सुविधाओं की प्रचुरता में साध्य स्वयं मुख छिपा बैठा है। उसके महत्त्व की बात दूर इसके अस्तित्व से भी इन्कारा जा रहा है।

साधनों का अम्बार जुटा लेना ही पर्याप्त हो ऐसा नहीं है। इनकी प्रचुरता का एकाँगीपन किसी को सुखी नहीं बना सकता। इनके उपयोग की कला भी चाहिए। और इस कला का विकास मानवी अन्तराल के बलबूते की चीज है न कि बाह्य शरीर की। इससे अनभिज्ञ होने के कारण तथा मात्र अपने स्वरूप को शरीर एवं मन एवं बाह्य साधन की परिधि में बाँध लेने के कारण जीवन तनावपूर्ण एवं दुःखदाई होता जा रहा है।

जीवन में तनाव बढ़ने से अनेकानेक मनो-शारीरिक व्याधियाँ भी बढ़ती जा रही हैं। इन बढ़ने वाली व्याधियों में जिनकी प्रचुरता है मनोचिकित्सक उन्हें न्यूरोसिस तथा साइजोफ्रेनिया का नाम देते हैं। दोनों ही आज के मनोविज्ञान की सामान्य चीजें हो गई हैं। न्यूरोसिस का तात्पर्य है अन्तः विखण्डन। इसी तरह साइजोफ्रेनिया ग्रीक धातु साइजो से बना है जिसका तात्पर्य है स्व का विखण्डन। फ्रेन का तात्पर्य हृदय या मन से है, अर्थात् निज के हृदय का विखण्डन।

इन आम होती जा रही बीमारियों से सभी का चिन्तित होना स्वाभाविक ही है। इनके आँकड़ों में नित्य नवीन होने वाली वृद्धि ने सभी को चिन्तित कर दिया है। प्रायः सभी मनोचिकित्सक सोचने पर विवश हो रहे हैं कि इन का मूल कारण क्या है। अधिकाँशतः इस बात पर एक मत हो जाते हैं कि यन्त्रीकरण में मानव का यन्त्र रूप हो जाना एक प्रधान कारण है। डॉ. कारेन हारनी अपनी पुस्तक न्यूरॉटिक पर्सनेलिटी ऑफ ऑवर टाइम्स में इस तथ्य को उद्घाटित करते हुए लिखते हैं- जितना अधिक आज पुरुष एवं स्त्री मनोरोगी होकर जीवन बिता रहे हैं, इस वैज्ञानिक युग के पूर्व कभी नहीं थे। गलती विज्ञान की नहीं स्वयं हमारी अपनी है। हमने मानवी विकास को यन्त्रीकरण का पर्याय मान लिया है।

वस्तुतः मानव मात्र चलती-फिरती हाड़-माँस की मशीन नहीं है। इसके अलावा वह कुछ और भी है। उसका अपना निजी व्यक्तित्व है। व्यक्ति का विकास ही नहीं व्यक्तित्व का विकास भी अपेक्षित है। इसके विकास में निजी सजगता एवं इच्छा के साथ-साथ बाह्य प्राकृतिक एवं सामाजिक तत्त्व काम करते हैं। पाश्चात्य भाषा में व्यक्तित्व के लिए पर्सनेलिटी शब्द बरता जाता है और जिसका व्युत्पत्ति के अनुसार अर्थ है मुख पर पहनने का आवरण। इस तरह पर्सनेलिटी व्यक्ति का आवरण है बाह्य रूप है। भारतीय अध्यात्म विद्या के अनुसार हमारा सामान्य व्यक्तित्व शरीर प्राण व मन की बहिर्मुख संरचना है, जबकि हमारा असली निजीभाव तो हमारी आत्मा है।

प्राच्य विद्या विशारद जानते हैं जीवन आत्मा के लिए है न कि आत्मा जीवन के लिए। जीवन भी एक साधन है। साधन की उपयोगिता साध्य के लिए है। साध्य के बिना साधन का मूल्य घट जाता है।

आज साधनों की बढ़ोतरी और साध्य की हीनता ही जीवन की अस्त-व्यस्तता तथा लक्ष्य विमुखता का प्रत्यक्ष कारण है। यद्यपि साधनों की चमक-दमक का आकर्षण तो है ही। इससे बच पाना असाध्य नहीं तो दुस्साध्य तो अवश्य है। साधनों का अम्बार जुटाते चले जाने के कारण भले ही हम अन्तरिक्ष में रहने के स्वप्न देखना सीख गये हों पर धरती पर सुख-शान्ति पूर्वक कैसे रहा जाय यह हम अभी तक नहीं सीख पाए हैं।

साधन-सुविधाओं का लोभ संवरण न कर पाने का ही परिणाम है गाँव-उजड़ते जा रहे हैं और शहरों का कलेवर विशाल से विशालतर एवं विशालतम होता जा रहा है। तदनुरूप शारीरिक, मानसिक समस्याएँ भी बढ़ रही हैं। इस सम्बन्ध में विकसित कहे जाने वाले देशों की स्थिति और भी दयनीय है।

स्थिति पर विचार करने पर यह सुस्पष्ट हो जाता है। यथार्थ माने में सुख-शान्ति साधन में नहीं साध्य में है। स्वयं को यन्त्र समझ बैठने से नहीं अपितु यन्त्री के लिए यन्त्र का सदुपयोग करने से काम चलेगा।

यह सत्य लोगों की नजर में उजागर भी होता जा रहा है। वे यथार्थता के प्रति जागरुक होते जा रहे हैं। ऐसे ही लोगों में अमेरिका के ‘आर्मेडिपोज़’ है।

इन पढ़े-लिखे लोगों का समुदाय जो शिक्षित ही नहीं विवेकवान भी है, यन्त्रीकरण के रहस्य को समझ चुका है। ये साधनों की चमक-दमक के आवरण के पार की यथार्थता को भाँप चुके हैं। इन लोगों का समुदाय जिसे वह अर्मेन्लो का नाम देते हैं, उपरोक्त तथ्य पर ही आधारित हैं।

उनके अनुसार आज मनुष्य ने अपनी स्वाभाविक चेतना को भी कम्प्यूटर एवं मशीनी मानव के हवाले कर दिया है। वह कभी निहायत भौतिक हो जाता है और कभी निहायत मानवतावादी। यथार्थ में न उसमें करुणा रह गई है न ही मानवता। वह है मात्र सन्देहवादी। उसे जीवन के प्रति भी सन्देह है। इसी कारण नशे जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ तथा मनोरोगों जैसी व्याधियाँ बढ़ती जा रही हैं।

इनका एक ही उपाय है कृत्रिमता एवं यंत्रीकरण से मुक्ति। इनके लिए इन लोगों ने ग्रामीण जीवन जीना शुरू किया है। इनके द्वारा बसाए गए छोटे-छोटे गाँव, भारत के ग्रामों की ही अनुकृति है। उनका सामान्य एवं सीधा-सादा जीवन अमेरिकावासियों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। इसी कारण दूरदर्शन एवं पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से उन्हें वहाँ आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।

इनका ‘आर्मेडिल’ शब्द भी साँकेतिक है। हिन्दी में इनका तात्पर्य चीटीयोर नामक धातु से है। इस संकेत को प्रयुक्त करने से इनका तात्पर्य यह है कि चीटीयोर की तरह कृत्रिमता से दूर सन्तोष, सादगी से ही रहना। इसमें ही भलाई एवं सम्पूर्णता समाई है।

यह मनःस्थिति उस राष्ट्र के निवासियों की है, जहाँ कृत्रिमता, साधनों के अम्बार की चरम सीमा है। इनकी मनोवृत्ति का आँकलन कर अनुमान लगाया जाना चाहिए कि सुख-शान्ति सुख-भोगों में नहीं वरन् सादगी से रहकर जीवन व्यतीत करने में है।

अपने यहाँ भी आवश्यकता शहरों का विकेन्द्रीकरण करने की है। न कि ग्रामों का केन्द्रीकरण करके शहर बसाने की। इसी में शान्ति, सुख एवं प्रसन्नता का राज है। कृत्रिमता का मोह जितना शीघ्र भंग किया जा सके उतना ही उत्तम है। यंत्रों का उपयोग तो उपादेय है किन्तु स्वयं यंत्रीकृत हो जाना किसी भी मूल्य में श्रेयस्कर नहीं है।

जीवन के वास्तविक मूल्यों को पहचाना जाना चाहिए। इसको पहचानकर प्राकृतिक एवं सादगीपूर्ण रहन-सहन हमें मनोरोगों से पूर्णतया छुटकारा दिलाकर वास्तविक सुख-शान्ति प्रदान कर सकेंगे। साथ ही यह चरम साधन भी उभरकर आ सकेगा, जो इनकी आड़ में छिप गया है। इसकी ओर बढ़कर ही यथार्थ में जीवन का सदुपयोग करना सम्भव बन पड़ेगा।


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