सारे तीरथ गुरु में बसते

January 2003

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मखमली धूप की छुअन हर एक में सुखद अहसास जगा रही थी। अक्टूबर का महीना लग जाने के कारण सूर्य का ताप और तेज सह्य हो गया था। ऐसे में सूर्य रश्मियों का स्पर्श पाने के लिए मन-प्राण में अनायास आतुरता सी जगने लगी थी। अलसाई चेतना में सूर्य का यह संस्पर्श एक अनोखी जागृति जुटा रहा था। ठीक परम पूज्य गुरुदेव के संग-सुपास और सान्निध्य की भाँति। जिनके पास पहुँचते ही मुरझाया-अलासाया-कुम्हलाया मन चैतन्य हो उठता। अन्तःकरण में अनूठी मुस्कान उमंग उठती। प्राणों में नवजीवन पल्लवित हो उठता। ऐसे अवसर सप्ताह में कई बार मिलते थे। और हर बार जीवन में नयी उमंगे तरंगित होती। हर्ष, उत्साह और उछाह का ज्वर उमड़ता। नवप्रकाश, नयी चेतना, नवल जागृति की असंख्य नूतन किरणों की छुअन का अहसास होता।

गुरुदेव जब भी मिलते उनकी एक नयी भावमुद्रा होती। उनके इर्द-गिर्द का वातावरण प्राणदायी विचारों और तपश्चेतना के सघन स्पंदनों से स्पन्दित रहता। वह सदा ही अपने पास आने वालों की मनोभूमि में कुछ अनूठे बीजों को बोते रहते। ये बीज उग सकें, इनमें नव अंकुर फूटे इसके लिए वे इन्हें अपने प्राणों से सींचा करते। इस कार्य में उनका धैर्य और श्रम देखते ही बनता था। कभी-कभी तो उनके पास अपने वालों की मनोभूमि-मरुभूमि की भाँति होती थी। एकदम शुष्क-नीरस और अनुपजाऊ। फिर भी गुरुदेव अपने तप-प्राणों से इसका सिंचन कर इसे रूपांतरित करने की कोशिश करते। ऐसा करने में उन्हें सफलता भी मिलती और वह भी शत-प्रतिशत।

उनकी बातें हमेशा ही दिल को छूने वाली होती। सदा ही इनमें प्रगाढ़ प्रेम की सुगन्ध होती। लेकिन इनमें एक इन्द्रधनुषी रंगत भी रहती थी। जिसे देखा तो जा सकता था, पर छुआ नहीं जा सकता था। क्योंकि इनका आभास तो हमारी इस दुनिया में होता था, पर इनकी वास्तविक उपस्थिति किसी और ही लोक में होती। पढ़ने वालों को यह कथा भले ही कितनी ही आश्चर्यजनक लगे, किन्तु इसके सत्य होने में जरा सा भी सन्देह नहीं। उनसे मिलने पर यह अनुभूति प्रायः हर बार होती थी।

उस दिन भी यही सत्य सम्मुख था। यह अक्टूबर 1988 की दोपहर थी। सरल-निश्छल-मनोहारी मुस्कान बिखेरते गुरुदेव अपने बिस्तर पर बैठे थे। वही ऊपर का कक्ष, जिसकी एक झलक पाने के लिए आज अनगिनत श्रद्धालुजन लालायित रहते हैं। उन दिनों यही कक्ष हम सबके आराध्य गुरुदेव का आवास था। यही उनके लेखन एवं साधना की स्थली थी। यह कक्ष अपने आप में असंख्य गुह्य एवं गहन आध्यात्मिक प्रयोगों की इतिहास कथा समेटे है। इसे आज भी पढ़ा जा सकता है, पर केवल तपोन्मीलित दृष्टि से। अनुभूतियों के अक्षर केवल अनुभूतियों में ही बाँचे जा सकते हैं। अनुभूतियों की इन असंख्य कड़ियों में एक कड़ी अनायास ही उस दिन भी जुड़ी। परम पूज्य गुरुदेव के चरणों में प्रणाम करने के साथ में लोग उनके ही बिस्तर के पास बिछे हुए टाट पर बैठ गए। गुरुदेव ने एक-एक करके सभी के हाल-चाल पूछे। फिर सदा की भाँति उनके सामने लेख पढ़ने का क्रम शुरू हो गया। कभी वह बीच में रोक कर अपनी टिप्पणी कर देते, कभी मौन बने रहते। और कभी तो वह यूँ खो जाते जैसे किसी अन्य लोक में विचरण करने लगे हों। लेख पढ़ने और सुनाने का यह सिलसिला खत्म हो जाने के बाद उनमें से एक ने गुरुदेव से घर जाने की अनुमति माँगी।

इस अनुमति माँगने पर गुरुदेव थोड़ा हंसे और बोले क्या करेगा घर जाकर। अनुमति माँगने वाले थोड़ा हिचकते हुए कहा- जी! माँ की आँख का आप्रेशन करवाना है। इस जवाब पर उन्होंने मीठी झिड़की देते हुए कहा- आप्रेशन में तुझे जाने की क्या जरूरत है? तू कोई सर्जन है क्या? उसकी व्यवस्था तो मैं यहीं से कर दूँगा। सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा। तुझे चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। गुरुदेव ने जिस तरह से भरोसा दिलासा, उसमें अब आगे कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं रह गयी। पर अभी वास्तविक बात बाकी थी, जिसे अन्तर्यामी गुरुदेव भाँप गए थे।

अनुमति माँगने वाले ने यही असली बात धीरे से बतायी- गुरुजी! दरअसल घूमने जाने का मन है। इस बात का भी उन्होंने तुरन्त सटीक जवाब दे डाला, अरे तो इसमें क्या परेशानी है। जा गंगाजी घूम आ। गंगा में सब कुछ है पानी है और पत्थर भी। जो भी घूमने वाली जगहें हैं वहाँ और है भी क्या? या तो पानी है, या फिर पत्थर है। पत्थर-पानी, पानी-पत्थर, इसको उन्होंने तीन-चार बार कहा और हंस पड़े। बड़ी ही मधुर अलौकिकता से भरपूर थी उनकी यह हंसी। इस हंसी में मीठे परिहास के साथ तत्त्वज्ञान भी निहित था। घूमने लायक जितने भी तीर्थ स्थान है, वहाँ पानी और पत्थर के सिवा और है भी क्या?

गुरुजी की इस बात से घूमने की आज्ञा चाहने वाले के चेहरे पर बड़ी लाचारी छा गयी। बड़ी बेबसी में उसने कहा- मुझे तो ट्रेन में बैठकर घूमना है। बस आप तो आज्ञा दे दीजिए। इस बात का भी गुरुदेव के पास बड़ा ही सटीक जवाब था। वह बोले- तो इसमें क्या परेशानी है, तू ऐसा कर, माताजी से पैसे ले ले और हरिद्वार स्टेशन से टिकट खरीद, फिर ट्रेन में बैठकर ऋषिकेश चला जा। तेरा ट्रेन में बैठना और घूमना दोनों हो जाएगा। अब भला इसके आगे और क्या कहा जाय?

फिर भी आज्ञा माँगने वाले ने जैसे-तैसे हिम्मत करके एक बार फिर कहा- गुरुजी! दरअसल मुझे तीर्थ करने हैं, थोड़ा घूम-फिर लेंगे, आप आज्ञा दे दीजिए न। ये शब्द उस कितनी बेबसी और लाचारी में कहे गए, इसे शायद कोई दूसरा न जान पाएगा। गुरुदेव इस पर बोले- तो बेटा तू भटकना चाहता है। क्या मिलेगा तुझे इस भटकने में। फिर वह थोड़ा गम्भीर हुए और बोले- देख तू भटक मत मैं इस खाट पर बैठा हूँ, तू एक काम कर, मेरे आस-पास सात चक्कर लगा ले। मेरी सात परिक्रमा करने से धरती-आकाश सब की सात परिक्रमा हो जाएगी। सारे देवी-देवता, सभी तीर्थ मुझमें समाए हैं, मुझसे अलग कुछ भी नहीं। तेरा काम तो मेरी परिक्रमा करने से चल जाएगा।

गुरुदेव की इन रहस्यमयी, तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण बातों को सुनकर अनुमति माँगने वाले का हठ जाता रहा। वह तो बस अपने गुरुदेव के दिव्य स्वरूप के चिन्तन में खो गया। उसे लगा कि स्वयं अन्तर्यामी सर्वव्यापी परमेश्वर सामने बैठे अपने दिव्य स्वरूप का बोध करा रहे हों। उसे कुछ सूझा नहीं, उनके चरणों में माथा रखने के सिवा। मन अन्तःकरण में यह प्रार्थना के स्वर फूट पड़े-

सर्वरुपमयो गुरोः सर्वंगुरोमयं जगत्। अतोऽहं विश्वरुपाँ ताँ नमामि गुरुवरम्॥

गुरुदेव सर्वरूपमय हैं, तथा सम्पूर्ण जगत् गुरुमय है। इसलिए मैं उन विश्वरूपी गुरुदेव को प्रणाम करता हूँ।


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