अंकुर आने लगे−2

January 2003

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प्रणाम है बच्चा

यमुना पार करने के लिए नाव चलती थी। श्रीराम उन संत का पता पूछते−तलाशते किनारे तक पहुँचे। नाव से नदी पर की और संत के मचान तक पहुंचे। दोपहर का समय था। संत मचान पर बैठे थे। नीचे चार−पाँच लोग खड़े थे। उनने दो सौ मीटर से ही श्रीराम को देख लिया और स्नेह से पुकारा−आओ ऋषिकुमार, तुम्हारा इंतजार था बच्चा। बाबा की पुकार सुन श्रीराम ने पीछे मुड़कर देखा। उन्हें लगा कि शायद किसी और को बुला रहे हैं। फिर वही पुकार−हम तुम्हें ही कह रहे बालक श्रीराम। नाम सुनकर संशय दूर हो गया। आगे बढ़ने में अभी तक जो झिझक थी, वह दूर हो गई। वे स्वाभाविक गति से कदम बढ़ाते हुए सीधे मचान के पास पहुँचे और बाबा को प्रणाम किया।

उन्होंने दोनों हाथ उठाए और कहा, तुम्हें भी प्रणाम है बच्चा। यह सुनकर वहाँ खड़े दूसरे लोग चौंककर देखने लगे। वहाँ आने वाले श्रद्धालुओं को बाबा प्रणाम का उत्तर आशीर्वाद है बच्चा या ‘सुखी रहो बच्चा’ कहकर देते थे। यहाँ बाहर−तेरह साल के किशोर को प्रणाम का उत्तर प्रणाम से दे रहे हैं।

बाबा ने कुछ समय के बाद जो कहा, उससे उन लोगों का विस्मय थोड़ा छँटा। बाबा ने कहा, तुम्हारे आने की खबर लग गई थी बच्चा। उन दैवी आत्माओं से ही आभास हुआ कि तुम आ रहे हो। बहुत प्रसन्नता हुई।

श्रीराम चुपचाप सुनते रहे, गायत्री मंत्र का पाठ करो बच्चा कहकर बाबा खुद गायत्री मंत्र पढ़ने लगे। वे वैष्णव संत थे और सभी श्रद्धालुओं से द्वादश अक्षर मंत्र ‘ॐ नमः भगवते वासुदेव’ का उच्चारण कराते थे। बाबा ने गायत्री मंत्र का पाठ करने के बाद कहा, तुम सावित्री सिद्ध हो बच्चा । तुम्हें बड़े काम करने हैं। हिमालय की आत्माएँ हैं न बच्चा, वहाँ बड़े योगी−मुनि रहते हैं। वहाँ की गुफाओं में वास करते हैं। पता नहीं कितने सौ सालों से वहाँ तप कर रहे हैं। उनका आशीर्वाद तुम्हें मिला है। वे आत्माएँ तुम्हारा बहुत सहयोग करेंगी। बाबा इससे आगे बहुत कुछ कहते रहे। उनके प्रवचन में हिमालय के रहस्य और सिद्ध लोक की साँकेतिक जानकारी थी। बाबा का भाषा ज्ञान कमजोर था। वे सधुक्कड़ी हिंदी बोलते थे। शब्दों के अनुसार अर्थ से उनका मंतव्य समझने की कोशिश करें, तो शायद भ्रमित हो जाएँ। उनके भाव को ही समझा जा सकता था।

आयु का रहस्य

श्रीराम ने पूछा, बाबा, आपके बारे में कई बातें सुनने को मिलती हैं। उनका क्या रहस्य है? बाबा ने कहा, भगवान की इस दुनिया से बड़ा कोई चमत्कार नहीं है। हम नहीं जानते बच्चा कि लोग हमारे बारे में क्या कहते हैं? यहाँ आने वाले सभी भक्तों के लिए हम दुआ मनाते हैं। फलवती हो जाए तो ईश्वर की कृपा है, नहीं हो तो उसकी मरजी। उसकी मरजी के बिना कुछ नहीं होता बच्चा। फिर उन्होंने अपनी आयु के बारे में कहा, शरीर मरणधर्मा है। इसकी उम्र क्या पूछना। गंगा−यमुना के बीच जिस गाँव में इस शरीर का जन्म हुआ, वहाँ लोग तिथि−तारीख लिखकर नहीं रखते थे। वहाँ के लोग पढ़े−लिखे नहीं है बच्चा, इसीलिए पता नहीं शरीर कितने बरस का हुआ। स्पष्ट हुआ कि इस उत्तर के कारण ही लोग बाबा की आयु के संबंध में अनुमान लगाते थे। वह अनुमान स्वाभाविक से ज्यादा ही रहता होगा। फिर कहने लगे, तुम्हारी उम्र के थे, तभी घर छोड़ दिया। नर्मदा के किनारे काफी समय रहे। द्वारका, रामेश्वर,पुरी और बदरीनाथ जी गए, और तीर्थों में भी गए। फिर गंगा मइया का किनारा चुन लिया। माँ ने कहा तो कभी यमुना मइया के तट पर चले आए। अब घूमना−फिरना बंद। बाबा इसके बाद थोड़ा रुके लेकिन तुम्हारे लिए विधि ने और ही विधान रचा है। तुम्हारे गुरुदेव समय पर तुम्हें सब कुछ बताएँगे। श्रीराम ने यह पूछना जरूरी नहीं समझा कि गुरुदेव से हमारी भेंट कब होगी? वे बाबा के उपदेश या संकेत सुनकर उसी शाम लौट आए।

महारास का मर्म

रात वृंदावन में रुके। वहाँ की एक बगीची के बारे में सुन रखा था कि राधा और कृष्ण वहाँ नित्य रास करते हैं। रास के समय वे सशरीर विश्राम भी करते हैं। उस समय बगीची में कोई नहीं जाता। अगर कोई चला जाए तो अनर्थ हो जाता है। श्रीराम को राधा और कृष्ण के नित्य रास की चर्चा पर कोई आपत्ति नहीं थी। मन में रह−रहकर शंका उठती कि बगीची में कोई रह जाए और राधा−कृष्ण के दर्शन कर ले तो अनर्थ क्यों हो जाता है? भगवान के दर्शन जिसे हो जाएँ, उसका तो कल्याण हो जाना चाहिए। किशोर मन ने इस शंका का निवारण करने की ठानी। बगीची की ओर जाते हुए एक वैष्णव साधु गोपालदास मिले। उनसे राधा−कृष्ण के नित्य विहार की बात पूछी। साधु गोपालदास ने कहा, नित्य विहार तो चल ही रहा है। यह जगत उसका ही तो है। वृंदावन के कण−कण में वही नाच रहा है। पूरा विश्व उसी का नर्तन है। यहाँ वह ज्यादा प्रत्यक्ष है, क्योंकि साधकों का चित्त यहाँ ज्यादा ग्रहणशील हो जाता है। साधु की बातें अटपटी लग रही थीं। श्रीराम ने बीच में ही रोककर पूछा, ‘क्या सचमुच बगीची में रात को राधा−कृष्ण सशरीर आते हैं?

साधु हँसा। श्रीराम ने फिर पूछा, अगर वे भगवान हैं, तो उनके दर्शन से अनर्थ क्यों हो जाता हैं? इतना कहते ही साधु ने मंदिर की सीढ़ियों की ओर इशारा किया और कहा, श्रीकृष्ण वह जा रहें हैं, देखो। उनके साथ राधा रानी भी हैं। श्रीराम ने सीढ़ियों की ओर देखा। श्याम वर्ण श्रीकृष्ण और गौराँग श्री राधा मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ रहे हैं। वे पलटकर साधु तथा उनकी ओर भी देख रहे थे। कुछ क्षण के लिए आस पास के लोग, दुकानें, मकान, गलियाँ और वहाँ हो रही चहल पहल आदि सभी कुछ का लोप हो गया। राधा और कृष्ण के विग्रह ही रह गए। कुछ क्षण के लिए सुध बुध जाती रही। भावसमाधि की अवस्था आ गई। फिर सब कुछ सामान्य था। सामने साधु गोपालदास ने कहा, इस तरह के दृश्य अपने भीतर बैठे भगवान के ही बाहर आने वाले रूप हैं। साधना के प्रगाढ़ होते ही इस तरह की अनुभूति होने लगती है, लेकिन यहीं नहीं ठहरना है। साधना निरंतर जारी रहनी चाहिए।

साधु ने ही स्पष्ट किया, भगवान का दर्शन किसी भी प्रकार अनिष्टकारी नहीं होता। जिस बगीची में राधा कृष्ण के आने और रास रचाने की बात कही जाती है, उसमें सत्य कम, प्रमाद ज्यादा है। इस तरह बगीची की महिमा गाई जाती है। उस बहाने लोगों से पैसा ऐंठा जाता है। अनिष्ट की आशंका फैलाने से लोग आतंकित होते हैं और दिन में वहाँ जाकर चढ़ावा चढ़ाते हैं। सचाई परखना हो तो एक रात उस बगीची में घुसकर देखो। साधु गोपालदास ने रहस्य खोल दिया। स्वयं ही अनुभव करने के लिए भी कहा। श्रीराम उस बगीची की तरफ बढ़ गए।

शाम ढलने से थोड़ी देर पहले बगीची में गए। द्वार बंद होने से पहले पंडों ने बगीची की छान−बीन की तो एक झाड़ी की ओट में छिप गए। लगा कि अब कोई नहीं है। झाड़ी की ओट से निकलकर उस मंदिरनुमा कमरे के पास तक गए, जहाँ राधा−कृष्ण के विश्राम करने की बात प्रचारित थी। उस कमरे से करीब बीस फीट दूर एक झाड़ी के सहारे बैठ गए। झाड़ी के सहारे बैठ गए। कमरे का द्वार खुला हुआ था। शाम ढलने लगी। रात का दूसरा पहर शुरू हुआ। वातावरण बहुत शाँत था। झाड़ियों में छिपे पक्षियों और जीवों की आवाजें आना बंद होने लगी थीं। इक्का−दुक्का किसी बंदर की चिंचियाहट सुनाई देती थी तथा झींगुरों की झायँ झायँ के अलावा और कोई आवाज नहीं आती थी। रात धीरे धीरे गहराने लगी। आधी रात से ज्यादा वक्त बीत गया। श्रीराम टकटकी बाँधे उस कमरे की ओर देख रहे थे। कब कोई आए। इंतजार करते हुए वे थकने से लगे। आँखों में नींद भरने लगी। उसे दूर भगाने के लिए बगीची में ही बनी कुइयाँ के पास गए और जगत पर पड़ी बाल्टी से थोड़ा पानी खींचा। हाथ−मुँह धोए। वापस उसी झाड़ी के पास आकर बैठ गए। पानी खींचने और हाथ−मुँह धोने में थोड़ी आवाज हुई। इसके तुरंत बाद बगीची के बाहर कीर्तन की आवाज सुनाई देने लगी। थोड़ी देर में कीर्तन थमा। बगीचे के भीतर इस बीच घुँघरुओं की आवाज आई। छमछप की गूँज ऐसी लहराई जैसे कोई नाच रहा हो। कुछ देर यह आवाज गूँजती रही, फिर अपने आप थम गई। इसके बाद बगीची के बाहर एक बार फिर कीर्तन होने लगा। थोड़ी देर चलते रहने के बाद कीर्तन फिर थम गया। सुबह पाँच बजे तक बगीची में कभी वंशी की धुन गूँजती, कभी तबले और हारमोनियम का संगीत सुनाई देता। तीन बार उस कमरे के पास रोशनी भी दिखाई दी। वह रोशनी किसी दीपक के जलने से हो रही थी। दीपक जलाता हुआ व्यक्ति भी दिखाई दिया। पाँच सात मिनट जलकर दीपक इस तरह बुझ गया, जैसे किसी ने फूँक मार दी हो।

रात्रि के घटनाक्रम

तड़के पाँच बजे दो व्यक्ति कमरे के पास दिखाई दिए। वे अंदर गए और थोड़ी देर बाद वापस चले गए। इसके कुछ देर बार ही बगीची के बाहर आरती−वंदना सुनाई देने लगी। आरती पूरी होने के बाद लोग आने लगे। आठ−दस लोगों के जत्थे में श्रीराम भी शामिल हो गए और उस कमरे तक गए। उस जत्थे के लोग कमरे में जाकर गदगद थे। बिस्तर की चादर पर सलवटें पड़ी हुई थीं, जैसे कोई वहाँ सोया हो। तेल की शीशी उठाकर देखा, ढक्कन खुला हुआ था।

एक ने कहा−शाम को जितना तेल रखा था, उससे कम हो गया है। दूसरे ने कहा−और देखो सिंदूर की डिबिया भी खुली है। राधारानी ने अपना सिंगार किया होगा। तीसरे ने कहा−अरे, भगवान अपना पीताँबर भूल गए। इस तरह आश्चर्य बढ़ा। ये लोग पिछली शाम को ही उस कमरे में होकर गए थे। तब सब कुछ ठीक था। चादर साफ थी, सिंदूर की डिबिया ठीक से लगी हुई थी, तेल की शीशी पूरी भरी हुई थी। अब की हालत देखकर स्पष्ट लग रहा था कि किसी ने अपने केश सँवारे हैं। पिछली शाम दर्शन करने के बाद ये लोग बगीची के बाहर ही ठहरे थे। इस वक्त सुबह के पहले दर्शनार्थी थे।

श्रीराम ने उनका आश्चर्य और इस बीच हुई घटनाओं को देखकर अच्छी तरह अनुभव कर लिया कि बगीची में राधा−कृष्ण का विहार एक आयोजित नाटक था। बीच बीच में गूँजने वाला संगीत, आवाजें, रोशनी और उस कमरे के आस−पास दिखाई दिए लोग, यह प्रभाव उत्पन्न करने के लिए ही थे कि बगीची में राधा और कृष्ण आए हैं। सुबह पाँच बजे उन्हीं लोगों ने कमरे का नक्शा बदला और बाहर ठहरे यजमानों को जताया कि भगवान सचमुच आए थे। यजमानों ने मंदिर में चाँदी के सिक्के चढ़ाए और पेडों के भोग। भंडारे के लिए अलग से दक्षिणा दी।

साधु गोपालदास की बात याद आई कि भगवान सब जगह हैं। जहाँ याद करो, तन्मयता से पुकारो, वहीं प्रकट हो जाते हैं। नहीं पुकारो, तो सामने आ जाने पर भी पहचान में नहीं आते। पूरे घटनाक्रम को श्रीराम ने शाँतिपूर्वक देखा और कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किए बिना बगीची से बाहर आ गए। पंडों ने समझा कि यह बालक भी यजमानों के साथ ही आया होगा। उन्हें क्या पता कि उनकी आयोजित नाटकीय दिव्य लीला का सच उसने अपनी आँखों से देख लिया है।

हुआ भविष्यत् का दर्शन

वृंदावन की यात्रा पूरी हुई। मथुरा में एक दिन के लिए उस बगीची में रुके, जहाँ काठिया बाबा से भेंट हुई थी। उस विग्रह के सामने कुछ देर पालथी लगाकर बैठे, जिसे गायत्री का बताया गया था। मन में हिलोरें आने लगीं। लगा जैसे कुछ संकेत मिल रहे हैं, निर्देश आ रहे हैं। समय भागा जा रहा है। वे बड़े हो रहे हैं। बीस पच्चीस−तीस−चालीस साल की उम्र पार कर गए । अपने आप को चालीस की अवस्था का अनुभव करते हुए लग रहा है कि वे इसी स्थान पर हैं। यहाँ बहुत से लोग साधना कर रहें हैं, आरती हो रही है, यज्ञ−हवन हो रहा है। लोग आ रहे हैं। जा रहे हैं। यह प्रतीति कुछ देर बनी रही, फिर तिरोहित हो गई (बाद में इसी स्थान पर 1953 में गायत्री तपोभूमि की स्थापना हुई।) संध्या संपन्न कर अगली सुबह द्वारिकाधीश के दर्शन करते हुए आगरा के लिए रवाना हो गए। चलते समय ताई जी के लिए प्रसाद लेने की बात भी याद रही। आँवलखेड़ा वापस लौटे तो माँ वह दरवाजे पर खड़ी मिलीं। चिरंजीव ने आकर पाँव छुए और माँ ने आशीर्वाद दिया। कहा कि मेरा लाल अब होशियार हो गया। अब बच्चा नहीं रहा। जिम्मेदारी उठाने लायक हो गया। मेरी अपनी चिंता ठाकुर जी ने दूर कर दी।

आँवलखेड़ा लौट आने के बाद जीवन का क्रम सामान्य ढंग से चलने लगा। खेती−बाड़ी, पुश्तैनी व्यवसाय और यजमानों का आना−जाना पहले की तरह फिर शुरू हो गया। पिताश्री का अभाव सभी को खलता था। घर के लोगों ने सलाह दी कि श्रीराम को भी उसी काम से लगाया जाए, उठती उम्र है, किशोर कंठ से मधुर आवाज निकलेगी। अभी से शुरू करें, तो युवावस्था तक सिद्ध हो जाएँगे। मुँह से अमृतवाणी रूप में कथा होने लगेगी। जो भी स्वजन संबंधी आते, ही सलाह देते । माँ की भी मूक सहमति होती, लेकिन श्रीराम का मन व्यासपीठ पर बैठने के लिए कभी राजी नहीं हुआ। वहाँ पर सुझाव टिकता नहीं था। (क्रमशः)


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