अपनों से अपनी बात−1 - हमको है विश्वास कि धरती बाँझ नहीं इस देश की

January 2003

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‘अखण्ड ज्योति परिवार’ ही विश्वविद्यालय निर्माण कर दिखा सकता है

ऐसा एक विश्वविद्यालय देश में होना ही चाहिए, जो सच्चे मनुष्य, बड़े मनुष्य, महान, मनुष्य, सर्वांगपूर्ण मनुष्य बनाने की आवश्यकता पूर्ण कर सके।

ये विचार आज के नहीं हैं, आज से प्रायः चालीस वर्ष पूर्व परमपूज्य गुरुदेव पं॰ श्रीराम शर्मा आचार्य जी द्वारा अपनी पत्रिका ‘अखण्ड ज्योति’ (मार्च, 1964) के माध्यम से व्यक्त किए गए थे। उनके मन में बड़ी पीड़ा थी कि राष्ट्र को आजादी मिलने के सत्रह वर्ष बाद भी शिक्षापद्धति वही मैकाले की है। शिक्षा में विद्या का कहीं नाम नहीं है। जहाँ आजाद भारत की शिक्षापद्धति बुनियादी स्तर की, संजीवनी विद्या समान होनी थी, वहाँ वही परंपरागत बाबू, क्लर्क, ऑफीसर बनाने वाला तंत्र जमा बैठा है। वे कहते थे, यह मान्यता सही नहीं है कि जिसके पास धन−ऐश्वर्य को अधिक होगा, वह सुखी रहेगा, वरन् सच यह है कि जिसे जिंदगी जीना आता होगा, वह स्वल्प साधनों में भी आदर्श, आनंद और उल्लास के साथ रह सकेगा। (पृष्ठ 59, मार्च 1964)

आगे पूज्यवर लिखते हैं, युगनिर्माण का महाअभियान आरंभ करते हुए हमें संजीवनी विद्या की सर्वांगपूर्ण शिक्षा व्यवस्था का प्रबंध भी करना ही पड़ेगा। .....हमारे मस्तिष्क में एक ऐसे विश्वविद्यालय की कल्पना है, जिसमें मानव जीवन की प्रत्येक कठिनाई को हल करने और हर परिस्थिति में व्यक्ति को अपने ढंग से आगे बढ़ने के लिए जो भी मार्गदर्शन आवश्यक हो, वह सब सिखाया जा सके। बिगड़े हुए स्वास्थ्य को कैसे सुधारा जाए और सुधरे हुए स्वास्थ्य को कैसे बढ़ाया जाए, इस संबंध में परिपूर्ण जानकारी कराई जाए। मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए चिंता, भय, निराशा, शोक, आवेश, उत्तेजना ईर्ष्या, कुढ़न, अहंकार आदि कुविचारों से बचने की मनोवैज्ञानिक विधियाँ बताई जाएँ। मानसिक दुर्गुणों का सरलतापूर्वक समाधान हो सके तथा स्वभाव में मधुरता, सहनशीलता, नम्रता, सज्जनता का समावेश कैसे हो और आशा, उत्साह, साहस, धैर्य, दूरदर्शिता, उदारता, संयम, नियमितता जैसे श्रेष्ठ गुण कैसे अभ्यास में आएँ, इसकी क्रियात्मक साधना कराके शिक्षार्थी को इस योग्य बनाया जाए कि उसे मनस्वी एवं श्रेष्ठ पुरुषों की श्रेणी में गिना जा सके। (पृष्ठ 60, मार्च, 1964) परमपूज्य गुरुदेव द्रष्टा थे, महामनीषी थे एवं युगप्रवर्तक भी। उन्हें अनुमान था कि संस्कार घटिया बने रहे, मात्र जानकारी प्राप्त करने का तंत्र बना रहा एवं चिन्हपूजा के नाम पर सरस्वती के मंदिर खड़े कर दिए गए, तो राष्ट्र समर्थ और सशक्त नागरिक नहीं खड़े कर सकेगा। जीवन विद्या पर इसी कारण उनका ध्यान विशेष था। इसे वे स्वावलंबन प्रधान एवं अनौपचारिक स्तर की बनाना चाहते थे। ग्रामोत्कर्ष नहीं हुआ, तो शहरीकरण की दौड़ बढ़ती जाएगी, यह भविष्यवाणी उनने तब ही कर ही थी। आज हम सभी विज्ञान की निरंकुश प्रगति, उपभोगवादी जीन दृष्टि एवं शहरीकरण के दुष्परिणाम भुगत रहे हैं। पढ़े-लिखे ब्रह्मराक्षस विश्वविद्यालयों से निकल रहे हैं, जो आज के जातिवाद से ग्रसित राजनीति के वातावरण में अति महत्वाकाँक्षी, उद्धत, उद्दंड एवं अपराधी बनते चले जा रहे हैं। इसीलिए पूज्यवर ने उसी लेख में लिखा, ‘संजीवनी विद्या का शिक्षण देने वाला एक सर्वांगपूर्ण विश्वविद्यालय अपना ‘अखण्ड ज्योति परिवार’ ही चला सकता है। भावनापूर्ण परिजन यदि चाहेंगे, तो यह शिक्षणपद्धति एक स्थान से आरंभ होकर देशव्यापी होकर युगनिर्माण के उपयुक्त वातावरण उत्पन्न करने में सहायक सिद्ध होगी (पृष्ठ 63)

उनकी इस बात को अमली जामा 2002 में पहनाया जा सका, जब ‘देवसंस्कृति विश्वविद्यालय’ के एक स्वायत्तशासी तंत्र के रूप में उत्तराँचल विधानसभा के माननीय सदस्यों ने दलों−संप्रदाय−जातिभेद से परे एकमत से एक प्रस्ताव पारित कर बनने हेतु स्वीकृति दे दी। पूर्णतः स्वपोषित यह विश्वविद्यालय न शासन से धन लेगा, न विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.) से किसी प्रकार की वित्तीय सहायता लेगा। इसी शर्त के आधार पर श्री वेदमाता गायत्री ट्रस्ट के परमपूज्य गुरुदेव द्वारा नियुक्त ट्रस्टीगणों ने इसे बनने की स्वीकृति दी एवं विधिवत् यह जून, 2002 से कार्य करना आरंभ कर चुका है। योग एवं चिकित्सीय (आयुर्वेद) मनोविज्ञान के दो विभाग स्वास्थ्य संकाय के अंतर्गत खोले गए है एवं इनमें दो सौ से अधिक छात्र छात्राएँ प्रशिक्षण ले रहे हैं। त्रिमासीय प्रमाणपत्र का एक बैच तो प्रशिक्षण लेकर चला भी गया। पूर्णतः आवासीय यह तंत्र है। सेवाभावी शिक्षकगण अपने समयदान से इसका पोषण करते हैं। वस्तुतः देवमानव बनाने का तंत्र इस स्थापना के साथ अब आरंभ हो गया है।

अब इसी जनवरी 2003 से धर्मविज्ञान (थियोलॉजी) का छहमासीय सर्टिफिकेट प्रशिक्षण यहाँ से आरंभ हो गया है, जिसमें विज्ञान और अध्यात्म की धुरी पर उस धर्म विज्ञान का प्रशिक्षण दिया जाना है, जिसके अभाव में मनुष्य भटकता दिखाई दे रहा है। देवालय प्रबंधन से लेकर सर्वांगपूर्ण जानकारी धर्मशास्त्रों की देने वाला यहां प्रशिक्षण समय की बहुत बड़ी आवश्यकता पूरी करने जा रहा है। परमपूज्य गुरुदेव ने ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका की इसे विषयवस्तु बनाया और जन−जन तक इसे लोकप्रिय बनाया। आज संप्रदायवाद से ग्रसित आस्था संकट से पीड़ित जनसमुदाय को वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का यह प्रशिक्षण ही कुछ राहत दे सकेगा। इसी उद्देश्य से प्रज्ञापरिषद् की प्रत्येक जनपद में स्थापना की जा रही है, ताकि जनचेतना इस महत्वपूर्ण उद्देश्य के प्रति बढ़े एवं प्रतिभाओं−बुद्धिजीवियों की भागीदारी हो।

विश्वविद्यालय की वर्तमान भूमि लगभग चार करोड़ तीस लाख रुपये में आज से चार वर्ष पूर्व क्रय की गई थी। अभी इससे गुनी अधिक भूमि क्रय करनी है। लगभग पंद्रह करोड़ रुपये इस परिसर की लागत होगी, जो विश्वविद्यालय भूमि से लगा हुआ है। उसके हस्तगत होने पर ही विश्वविद्यालय अपने चरम लक्ष्य को पहुँच सकेगा। पूर्णतः आवासीय इस परिसर में आयुर्वेद एवं वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के शोध अनुसंधान−शिक्षण हेतु ॐ के आधार का पाँच मंजिला भवन बनना आरंभ हो रहा है, जिसके साथ ध्यान एवं मंत्र विज्ञान अनुसंधान केंद्र तथा ज्योतिर्विज्ञान अनुसंधान केंद्र भी बनाया जाएगा। एक विराट छह मंजिला संस्कृति खंड बनाया जा रहा है, जिसके ऊपर एक आधुनिक वेधशाला होगी। पूरे प्रोजेक्ट का विवरण जनसामान्य के लिए इस प्रकार है−−भूमि 430 लाख (ले ली गई) एवं 1550 लाख (लिया जाना है), भवन निर्माण पुस्तकालय 100 लाख, फर्नीचर आदि 780 लाख, विद्युत आदि 500 लाख एवं कार्पस 6000 लाख। इस तरह यह लगभग एक सौ छियासठ करोड़ की विराट योजना है।

भारत सरकार ने गायत्री परिवार के पावन उद्देश्यों से प्रभावित होकर अगस्त, 2002 में श्री वेदमाता गायत्री ट्रस्ट शाँतिकुँज, हरिद्वार को (जो कि इस विश्वविद्यालय की संस्थापिका संस्था है) आयकर की धारा 35 ए॰ सी॰ के अंतर्गत सौ प्रतिशत आयकर छूट का नोटिफिकेशन दिनाँक 28.8.02 को एस॰ ओ॰ 0914 (ई) के माध्यम से जारी किया है। इस धारा के अंतर्गत दिए जाने वाले दान की राशि को दानदाता की करयोग्य आय में से सौ प्रतिशत घटाया जाएगा अर्थात् उक्त राशि को करदाता की करयोग्य आय में जोड़ा नहीं जाएगा। भावनाशील दानदाताओं के लिए कर में राहत, शासन के प्रति जवाबदेही की पूर्ति एवं पुण्यार्जन का इससे सुँदर मौका और क्या हो सकता है।

हमें विश्वास है कि परिजन इस महान कार्य के लिए उदारतापूर्वक दान देंगे, क्योंकि भारतीय संस्कृति को विश्वसंस्कृति बनाने की, भारत को पुनः जगद्गुरु बनाने की धुरी बनने जा रहा है यह तंत्र। ऋषि−परंपराओं का पुनर्जीवन एवं प्राच्य विद्याओं का पुनर्जागरण करेगा यह विश्वविद्यालय। राजा महेंद्रप्रताप, महामना मालवीय जी, स्वामी श्रद्धानंद जी की पावन परंपराओं को जीवंत करेगा यह विश्वविद्यालय। देवमानवों के निर्माण की टकसाल बनने के साथ आज वैश्विक स्तर पर छाई समस्याओं का समाधान देगा यह विश्वविद्यालय। वनौषधियों को विलुप्त होने से बचाकर उनकी वैज्ञानिकता प्रमाणित कर राष्ट्र को सर्वांगपूर्ण स्वास्थ्य एवं समृद्धि की ओर ले जाएगा यह विश्वविद्यालय। हमारा भारतवर्ष भामाशाहों, बिड़ला, टाटा, बजाज जैसे धनकुबेरों सहित गिलहरियों (श्रीराम के समय) तथा ग्वाल−बालों (श्रीकृष्ण के समय) एवं सुप्रियाओं (बुद्ध के समय) का देश है। ऐसे में वेतनभोगी कर्मचारियों (धारा 80 जीजीए) को भी उस छूट का लाभ प्राप्त होगा, जो वे दान प्राप्त करेंगे। यदि हमारे गुरुदेव की इच्छानुसार हमारा ‘अखण्ड ज्योति परिवार’ ही इसे खड़ा करना चाहे तो पचास पैसा प्रतिदिन के हिसाब से मासिक या वार्षिक स्तर पर अनुग्रह राशि भेजकर यह पावन पुण्य अर्जित कर सकता है। यदि इस पत्रिका के साढ़े छह लाख पाठकों ने यह राशि भेजना आरंभ किया, तो हमें वर्ष भर में 3.25 लाख 365 रुपये (लगभग 12 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष) मिलना आरंभ हो जाएँगे। दस वर्ष तक यह क्रम चले तो इतने मात्र से हमारा लक्ष्य पूरा हो जाएगा। आशा ही नहीं, विश्वास है कि यह दैवी प्रयोजन पूरा होकर ही रहेगा।


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