महाराज प्रद्युम्न का स्वर्गवास हो गया। सारा परिवार बहुत दुखी था। उन दिनों आचार्य पुरंध्र को सिद्धपुरुषों में गिना जाता था। समझा जाता था कि वे मृत को भी अपने मंत्रबल से जीवित कर सकते हैं।
पुरंध्र को पालकी में बिठाकर लाया गया। मृत को जिलाने का आग्रह लगा तो बेतुका, पर आतुरों का समाधान करने के लिए उनने सूझ−बूझ से काम लिया और कहा कि यदि मृतात्मा चाहेगी, तो वही वे पुनर्जीवित करने का काम हाथ में लेंगे।
कुटुँबी सहमत हो गए। पुरंध्र ने कहा, राजा ने अभी−अभी वटवृक्ष पर टिड्डे के रूप में जन्म लिया है। राजकुमार अनुरोधपूर्वक उन्हें पकड़ें और लौट चलने के लिए सहमत करें।
वैसा ही किया गया। ज्येष्ठ राजकुमार को लेकर पुरंध्र वटवृक्ष पर पहुँचे और अंगुलिनिर्देश करके एक टिड्डे को दिखाया− वे ही हैं स्वर्गीय सम्राट। राजकुमार टिड्डे को पकड़ने के लिए पेड़ पर चढ़े, पर टिड्डा फुर्तीला था, मनुष्य को समीप आते देखकर छलाँग लगाता, एक से दूसरी डाली पर जा पहुँचा। राजकुमार वहाँ तक पहुँचते, तब तक वह उड़कर अन्यत्र दिखाई पड़ता । इस आँखमिचौनी में सारा दिन गुजर गया, रात्रि हो गई, दीखना बंद हुआ तो राजकुमार निराश होकर वापस लौट आए।
पुरंध्र ने समझाया, राजा ने पुराने शरीर से मोह त्याग दिया है, अब उनका मन टिड्डे के शरीर में रम गया है। आप लोग उनकी इच्छा को समझें और निरर्थक मोह को छोड़ें।
कुटुँबियों का मोह टूटा और मृत शरीर का दाह−संस्कार कर दिया गया।