मिथ्या धारणाओं का आवरण हटे, तो योग सधे -

January 2003

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राजा रघु के दरबार में एक प्रश्न चल रहा था कि राज्यकोष का उपयोग किन प्रयोजनों के लिए किया जाए?

एक पक्ष था−सैन्य शक्ति बढ़ाई जाए ताकि न केवल सुरक्षा वरन् क्षेत्र−विस्तार की योजना भी आगे बढ़े। इसमें जो खरच पड़ेगा, वह पराजित देशों से नए लाभ मिलने पर सहज पूरा हो सकेगा।

दूसरा पक्ष था−प्रजाजनों का स्तर उठाने में राज्यकोष खाली कर दिया जाए। सुखी, संतुष्ट, साहसी और भावनाशील नागरिकों में से प्रत्येक एक दुर्ग होता है। उन्हें जीतना किसी शत्रु के लिए संभव नहीं। इस प्रकार युद्ध−विजय से क्षेत्र जीतने की अपेक्षा मैत्री का विस्तार कहीं अधिक लाभदायक है। उससे स्वेच्छया सहयोग और अपनत्व की ऐसी उपलब्धियाँ प्राप्त होती है, जिनके कारण छोटा देश भी चक्रवर्ती स्तर का बन सकता है।

दोनों पक्षों को तर्क चलते रहे। निदान राजा ने निर्णय दिया। युद्ध पीढ़ियों से लड़े जाते रहे हैं। उनके कडुए, मीठे परिणाम भी स्मृतिपटल पर अंकित हैं। अबकी बार युद्ध−प्रयोजनों की उपेक्षा करके लोक−मंगल की परिणति को परखा जाए और समस्त संपत्ति जनकल्याण की योजनाओं में खरच कर दी जाए।

वैसा ही किया गया। धीरे−धीरे प्रजाजन हर दृष्टि से समुन्नत हो गए। पड़ोसी राज्यों को समाचार मिले तो उनके हौसले टूट गए। आक्रमण की चर्चाएँ समाप्त हो गई। सुख−शाँति के समाचार पाकर अन्य देशों के समर्थ लोग वहाँ आकर बसने लगे। बंजर भूमि सोना उगलने लगी और उत्साही प्रजाजनों ने अपने देश को ऐसा बना दिया, जिसके कारण अयोध्या क्षेत्र में सतयुग दृष्टिगोचर होने लगा।

अन्तर्यात्रा विज्ञान की योगकथा की पिछली कड़ी में पञ्चवृत्तियों में पहली वृत्ति के बारे में हम सबने पढ़ा था। महर्षि पतञ्जलि ने बताया ‘यह पहली वृत्ति प्रमाण है। प्रमाण का मतलब है ठीक-ठीक ज्ञान यानि की सम्यक् ज्ञान। यदि योग साधक में प्रमाणवृत्ति सक्रिय है। तो उसे ठीक-ठीक ज्ञान जरूर मिलेगा। ज्ञान की यही प्रमाणिकता योग साधक की साधना को भी प्रमाणित करेगी और उसे प्रमाणिक बना देगी। महर्षि ने इस सूत्र में प्रमाणवृत्ति के स्रोत भी बताए। उनके अनुसार प्रमाणवृत्ति के तीन स्रोत हैं- पहली प्रत्यक्ष बोध, दूसरा है- अनुमान और तीसरा स्रोत है- योगसिद्ध आप्त पुरुषों के वचन। इनसे कैसे और किस तरह ठीक-ठीक ज्ञान होता है, यह कथा पिछली कड़ी में बतायी गयी थी।’

अब इस कड़ी में दूसरी वृत्ति की योगकथा है। अगले यानि की समाधिपाद के आठवें सूत्र में महर्षि ने इस दूसरी वृत्ति का खुलासा किया है। वह कहते हैं- ‘विपर्ययो मिथ्या ज्ञानमतद्रूप प्रतिष्ठिम्’॥1/8॥ यानि कि विपर्यय एक मिथ्या ज्ञान है, जो विषय से उस तरह मेल नहीं खाती जैसा वह है। शास्त्रकारों ने विपर्यय को असत् ज्ञान कहा है। यानि कि किसी वस्तु, व्यक्ति या विचार के बारे में झूठी धारणा है। इसे चित्त की भ्रमित स्थिति भी कह सकते है। मजे की बात यह है कि ऐसी स्थिति हममें से किसी एक की नहीं है, बल्कि प्रायः हम सबकी है। जीवन के किसी न किसी कोने में हम सभी भ्रमित हैं। सच यही है कि हम तथ्य को जाने, सत्य को अनुभव करें, उसके पहले ही उस विषय या वस्तु के बारे में ‘अनगिन धारणाएँ’ बना लेते हैं।

कई बार तो ये धारणाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी चलती है। उस धारणा से सम्बन्धित असत् ज्ञान को जिस-किसी तरह निभाया जाता है। परम पूज्य गुरुदेव कहते थे कि व्यक्ति अकेला नहीं, परिवार और समाज भी असत् ज्ञान कि विपर्यय के भारी बोझ से लदे हैं। उसे ढोए जा रहे हैं। इसे बारे में वह एक बड़ी रोचक कथा सुनाते थे। यह कथा प्रसंग एक ग्रामीण परिवार का था। इस परिवार में एक परम्परा थी कि शादी-विवाह के समय परिवार के लोग एक बिल्ली को पकड़कर एक टोकरी के नीचे ढक देते। शादी-विवाह का आयोजन चलता रहता। इसमें कई दिन बीत जाते। तब तक प्रायः बिल्ली मर जाती। बाद में उसे फेंक दिया जाता। ग्रामीण परिवार में यह प्रथा सालों से नहीं पीढ़ियों से चल रही थी। कभी किसी ने इस प्रथा से जुड़ी धारणा के बारे में खोज-बीन करने की कोशिश नहीं की।

उस परिवार के लोगों का ध्यान ज्यादातर इस बात पर टिका रहता था कि घर में जब भी कोई शादी हो, तब एक बिल्ली को टोकरी के नीचे रख देना है। फिर जब सारा आयोजन समाप्त हो जाय तो उस मरी हुई बिल्ली को कहीं फेंक देना है। परिवार की नयी पीढ़ी के लोग जिसने भी इस प्रथा के औचित्य को जानने की कोशिश की उसे झिड़क दिया गया। घर के बड़े-बूढ़ों ने उन्हें धमकाया, घर से बाहर निकाल देने की धमकी दी। और कहा कि बुजुर्गों की बातों पर सवाल उठाते हो। बस इतना जान लो कि शादी के समय ऐसा करना शुभ होता है। बिल्ली को मार देने से भला शुभ का क्या सम्बन्ध है? इस सवाल का उत्तर किसी ने भी न दिया।

लेकिन परिवार के एक नवयुवक से रहा न गया। उसने बात की जड़ में जाने की ठान ली। उसने परिवार की पुरानी डायरियों को पलटा। गाँव के बड़े-बुजुर्गों से बात की। अंत में उसे सच्चाई का पता चला। सच्चाई यह थी कि सालों पहले पुरानी पीढ़ी में एक लड़की की शादी थी। सभी लोग शादी के काम में जुटे थे। घर में पालतू बिल्ली थी, जो इधर-उधर दौड़कर जब-तब चीज-सामानों को गिरा रही थी। गृहस्वामिनी उसके इस व्यवहार से परेशान हो गयी। अन्त में उसने उस बिल्ली को एक टोकरी के नीचे ढक दिया। काम-काज की व्यस्तता में वह उसे भूल गयी। शादी के बाद जब याद आयी, तो उसे टोकरी से निकाला, लेकिन तब तक बिल्ली मर चुकी थी। बड़े ही दुःखी मन से उसे बिल्ली को फेंकना पड़ा। इस सत्य ज्ञान को जानते ही असत् ज्ञान अपने आप ही खत्म हो गया। उस घर के लोगों को जब इस सच्चाई का पता चला तो उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ।

गुरुदेव कहते थे समाज और परिवार परम्पराओं, रूढ़ियों के नाम पर ऐसे असत् ज्ञान का विपर्यय का बोझ ढोए जा रहे हैं। समाज ही क्यों व्यक्ति के रूप में हमारी अपनी जीवन शैली भी विपर्यय से घिरी है। अनगिनत मिथ्या धारणाएँ हमें घेरे हैं। इनके कारण हमारी जीवन ऊर्जा बरबाद हो रही है। रस्सी को साँप समझकर हम डरे हुए हैं। रेगिस्तान की तपती रेत में पानी के भ्रम से भ्रमित होकर लोभ के कारण भाग रहे हैं। कहीं हमें भय सता रहा है, तो कहीं लोभ। जबकि दोनों ही औचित्यहीन हैं। मिथ्या धारणाओं से ग्रसित मन जो प्रक्षेपित करता है, उसी को सच समझ लेते हैं। हमारे पूर्वाग्रह, दुराग्रह से भरी हुई धारणाएँ हमारी जानने की शक्ति को ढके हुए हैं।

साधक वही है, जिसकी निगाहों में ताजगी हो। जो क्षण प्रतिक्षण मन-अन्तःकरण पर जमने वाली धूल-मिट्टी को हटाता रहे। अतीत के हर पल को मिटने दे और सच्चा सत्यान्वेषी हो। परम पूज्य गुरुदेव के अनुसार विपर्यय है तो मिथ्या ज्ञान। सामान्यतया इसे साधना के लिए बाधा ही समझा जाता है। पर यदि साधक समझदार हो तो इसे भी अपनी साधना बना सकता है। भ्रम में समझदारी पैदा हो जाय। भ्रमित करने वाली वस्तु, विषय या विचार के प्रति जागृति हो जाय, तो भ्रम अपने आप ही टूट जाते हैं।

साधकों ने यदि गुरुदेव की पुस्तक ‘मैं क्या हूँ?’ पढ़ी होगी तो इस तत्त्व को और गहराई से समझ सकते हैं। यदि किसी ने यह पुस्तक अब तक न पढ़ी हो, तो उसे अवश्य पढ़ना चाहिए। क्योंकि प्रकारान्तर से इसमें विपर्यय को साधना विधि बनाने की तकनीक है। और वह साधनाविधि विपर्यय के प्रति सचेत होना, जागरुक होना। उसे परत-दर-परत उद्घाटित करना मैं क्या हूँ? इस गहन जिज्ञासा के साथ ही विपर्यय की परतें उघड़ने लगती हैं। इस क्रम में पहले अपने को देह मानने का असत् ज्ञान टूटता है। फिर टूटता है अपने को प्राण मानने का परिचय। इसके बाद मन की मान्यता समाप्त होती है। फिर बुद्धि का तर्कजाल भी समाप्त होता है। अन्त में निदिध्यासन का यह क्रम भाव समाधि का स्वरूप लेता है। और पता चलता है- आत्मा का परिचय। होता ‘अयमात्मा ब्रह्म’ का प्रगाढ़ बोध। जीवन के सारे विपर्यय समाप्त होते हैं। असत् का अंधेरा मिटकर सत् का प्रकाश होता है।

यह सब होता है विपर्यय के सत्य और तत्त्व को सही तरह से जानने पर। क्षण-प्रतिक्षण अपने ऊपर से मिथ्या धारणाओं के आवरण को हटाने पर। इस तरह क्लिष्ट कही जाने वाली विपर्ययवृत्ति भी अक्लिष्ट हो सकती है। बस इसके लिए साधकों में समझदारी भरी साधना होना चाहिए। उन्हें बस अपने जीवन शैली और जीवन तत्त्व दोनों ही आयामों में छाई हुई विपर्यय घटाओं के प्रति जागरुक होना पड़ेगा। तो आज और अभी से प्रारम्भ करने अपनी यह जागरुकता की ध्यान साधना। इसके बाद आपके सामने योग कथा की अगली कड़ी का प्रस्तुतीकरण होगा। जिसमें महर्षि पतंजलि विकल्पवृत्ति के बारे में बताएँगे। इसका स्वरूप और महत्त्व जानने के लिए अखण्ड ज्योति के अगले अंक की प्रतीक्षा करें। परन्तु यह प्रतीक्षा भी साधकों के अनुरूप साधनामय होनी चाहिए।


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