परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - ध्यान क्यों करें? कैसे करें?−3

January 2003

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दीपक की तरह जलें, प्रेरणा दें

मैं आपको दीपक का उदाहरण देकर समझा रहा था कि दीपक आप जलाएँ। दीपक जलाने के साथ−साथ और दीपक जलाने के बाद आप यह ध्यान रखें कि भगवान की भक्ति का एक मूलभूत सिद्धाँत यह भी है कि आदमी को जलना पड़ता है, गलना पड़ता है। यह भगवान का भक्त जो है, वह बरगद के पेड़ की तरह से बड़ा तो हो जाता है यह हमने माना, लेकिन बरगद के पेड़ की तरह से बड़ा होने से पहले बीज को गलना पड़ता है। बड़ा होने से पहले आदमी को भी गलना तो पड़ेगा। महाराज जी मैं तो वृक्ष की तरह से बड़ा हो जाऊँगा? हाँ बेटे, जरूर हो जाएगा, लेकिन गलना तो पड़ेगा। नहीं, मैं गलना तो नहीं चाहता। जो कुछ भी हो मैं, तो मालदार बनना चाहता हूँ, मोटा बनना चाहता हूँ। बेटा मोटा तो तू नहीं बन सकता, तेरी औलाद बन सकती है। बेटे, जो प्रेरणाएँ मैं आपको दे रहा हूँ, ये आपके मस्तिष्क में गूँजती रहें, गूँजती रहें। दीपक आप जलाते चले जाएँ और यह विचार करते चले जाएँ कि हमारी एक छटाँक जैसी हैसियत और औकात है। हमारे भीतर जो स्नेह चिकनाई लबालब भरी हुई है, उसके द्वारा हम अपने आपको जलाते हैं और जलकर रोशनी पैदा करते हैं, दिशाएँ देते हैं। रोशनी कैसे पैदा करते हैं? जैसे प्रकाश−स्तंभ बीच समुद्र में जलते रहते हैं और जल करके निकलने वाले राहगीरों को, चलने वाली नावों को रास्ता बताते रहते हैं। आप उधर से मत जाइए, इधर से जाइए । स्वयं रात में प्रकाशस्तंभ (लाइट हाउस) जलते रहते हैं। सितारे ऊपर रात में जलते रहते हैं और हम निकलने वालों को रास्ता बताते रहते हैं−आप इधर से चले जाइए, आप उधर से चले जाइए। सितारे जी आपको क्या फायदा है? हमको यह फायदा है कि आपको ठोकर नहीं लगे, आप अपने रास्ते पर चले जाएँ, इसीलिए हम रात भर जलते रहते हैं। कौन जलता रहता है? तारे जलते रहते हैं और छोटे बच्चे उनको दुआएँ देते रहते हैं। थैंक्यू। ट्विंकिल−ट्विंकिल लिटिल स्टार, हाऊ ह्वाई वंडर यू आर......?

आसमान पर चमकने वाले सितारे चमकी चमको, तुम ऊपर चमकते रहो। तुम्हारी तरह हमें भी रास्ता मिलता रहे। आप पहले आसमान के सितारों की तरह जलो। गाँधी जी ने जब राजा हरिश्चंद्र का ड्रामा देखा, तो यह निश्चय किया कि हम भी इनके तरीके से सत्य पर चलेंगे। हम भी ऐसी शानदार जिंदगी जिएँगे।

बेटा, दीपक जलाने से मतलब यह है कि हम जलें और दूसरों को भी जलने के लिए प्रोत्साहित करें। हम अपनी जिंदगी में रोशनी पैदा करें, शानदार जिंदगी ही जिएँ और उतनी रोशनी दूसरों को भी दें, यही सिद्धाँत बनाएँ। ये भाव दीपक जलाते समय होने चाहिए। नहीं साहब, दीपक जलाने से भगवान जी प्रसन्न हो जाते हैं। आप से हुए होंगे, मेरे खयाल से प्रसन्न नहीं हो सकते। नहीं महाराज जी, दीपक जलाने से भगवान जी बहुत प्रसन्न हो जाते हैं, पर असली गाय के घी से प्रसन्न होते हैं और नकली घी से प्रसन्न नहीं होते। अच्छा पर मेरा ऐसा खयाल है कि हमारी जिंदगी दीपक की तरह जलने वाली हो तो भगवान भी हमारे ऊपर प्रसन्न हो जाते हैं।

कब बरसेगा दैवी अनुग्रह

मित्रो, भगवान हमारे नजदीक हैं। भगवान का अनुग्रह हमारे पास है। जो फल भक्ति के लिखे हुए हैं, वे सब आपको मिलते चले जाएँगे। एकोंएक फल मैं आपको निश्चित दिला सकता हूँ और इस बारे में मैं आपको विश्वास दिला सकता हूँ, इसकी गारंटी हमारे पास है। आप जिस देवता की कृपा की कहें, उसी देवता की कृपा करा दूँ, लेकिन शर्त यह है कि अपना जीवन गंदा नहीं हो। नहीं साहब, जीवन तो हमारा गंदा ही रहेगा। नहीं बेटे, जीवन गंदा रहेगा तो देवता भी कृपा नहीं करेंगे।

मित्रो भगवान को जल से स्नान कराने से मतलब चेतना को स्नान कराने से है। नहीं महाराज जी, चेतना को तो मैं स्नान बाद में कराऊँगा, पहले पानी से अपने शरीर को नहलाऊँगा। बेटे, कैसे करा लेगा, बता तो सही, शरीर से क्या काम हो जाता है? महाराज जी मैं तो ऐसे ही नहा लेता हूँ। नहा लेता है तो तू एक बात बता कि तेरी चमड़ी के खोल में क्या क्या भरा हुआ है? माँस भरा हुआ पड़ा है। अच्छा तो तू यह बता कि पूजा की कोठरी में माँस तो नहीं ले जाता? नहीं महाराज जी, पूजा की कोठरी में माँस तो नहीं ने जाता। और हड्डी भी नहीं ले जाता। मुँह से जब भजन करता है तो पहले तू कुल्ला कर लेता है न? हाँ महाराज जी, कुल्ला कर लेता हूँ। मुँह में गंदी चीज तो नहीं रखता? नहीं महाराज जी, नहीं रखता । ऐसा तो नहीं होता कि तेरे मुँह से माँस−वास भरा रहता हो और तू जप करता रहता हो? नहीं महाराज जी, मुँह में माँस भरा रहेगा तो मैं जप कैसे करूंगा। ऐसा तो नहीं कि सूखी हड्डी मुँह से भरे रहता हो और राम नाम लेता हो। ऐसी गलती मत करना कहीं। यदि इस तरह जप किया तो भगवान जी नाराज हो जाएँगे। नहीं महाराज जी, ऐसा तो नहीं करता। बाहर की नहीं, भीतर की सफाई

मित्रो, जहाँ कहीं भी शास्त्रों में स्नान का वर्णन है, वहाँ शरीर के धोने का सिद्धाँत नहीं है। शरीर के धोने का मतलब इच्छाओं, भावनाओं, विचारणाओं की सफाई से है। जो केवल अपने शरीर को खुशबूदार बनाते रहते हैं और शरीर को कितनी ही बार धोते रहते हैं। सारे दिन कोई क्रीम लगाता रहता है, कोई सुपर लक्स से नहाता है, कोई बढ़िया से बढ़िया साबुन से नहाता रहता है। नहाने के बारे में तो उन लोगों को देखो, जो अपने शरीर को तो धोते रहते हैं, परंतु भीतर से कैसे−कैसे धंधे करते हैं। किस किस तरह से पैसा कमाते रहते हैं, इसमें भिक्षा भी शामिल है। बेटे, अगर हम भीतर की भी सफाई रोज करें तो भगवान भी प्रसन्न होगा और अपना आपा भी। शरीर कम धोया, कोई बात नहीं। बेटे, तू समझता क्यों नहीं, स्नान करना एक सिद्धाँत है कि हमारा मन और हमारी चेतना का परिष्कार होना चाहिए। देव−पूजन से भी हमारा मतलब यही है।

मित्रो, जप करने से क्या मतलब है? जप करने से हमारा मतलब देव−पूजन से है। इसमें देव−पूजन के साथ आत्मशोधन की दो क्रियाएँ जुड़ी हुई हैं। यह दूसरा वाला चरण है जप का और तीसरा वाला चरण है ध्यान का जप और ध्यान को हम मिला देते हैं। दोनों को मिला देने से एक प्रक्रिया बनती है, नहीं तो जप अधूरा रह जाएगा। आपका जप अधूरा है, अगर आप ध्यान नहीं कर रहे होंगे। जप करने पर लोगों की शिकायत होती है कि मन भागता रहता है । बेटे, मन न भागे, इसीलिए हम जप के साथ साथ में दो ध्यान भी बताते रहते हैं। अक्सर हम एक साकार ध्यान बताते रहते हैं और दूसरा निराकार ध्यान।

साकार ध्यान का स्वरूप

बेटे, साकार ध्यान यह है कि माँ गायत्री की कृपा हमारे ऊपर बरसती है, उसका अनुग्रह हमारे ऊपर बरसता है। गायत्री माता क्या है? गायत्री माता वह है कि जिसमें हम जवान स्त्री को माता के रूप में देखना शुरू करते हैं। जो सद्बुद्धि की देवी है, जो सद्विवेक की देवी है। सद्विचारणाओं की देवी का नाम गायत्री है। गायत्री देवी है महाराज जी हाँ देवी है। तो आपको खूब सामान दे जाती है? हाँ बेटे, पहले देवी कभी कभी आती थी, पर अब हमें यह खयाल आया कि देवी है भी कि नहीं, सो हमने अपने गुरु का ध्यान शुरू कर दिया है। गुरु का ध्यान? हाँ बेटे, हम अपने गुरु का ध्यान करते हैं। गुरु को हमने देखा है। उनके बारे में हमको विश्वास है। गायत्री माता के बारे में तो हमको यह विश्वास हो गया है कि जो शक्ल हमने बना रखी है, यह शक्ल हमारी कल्पित है। यह कल्पना है? हाँ, ये कल्पना है, सिद्धाँतों की, आदर्शों की। यह आदर्श है। कौन−सा आदर्श? जिसमें हम जवान औरत को जिस भावना से और दृष्टि से देखते हैं वह, हम माँ की तरह से देखते हैं। उस भावना का नाम ही गायत्री है।

मित्रो, कोई जवान औरत हमको दिखाई पड़े और आँखों में यह भाव आए कि यह हमारी माँ है, तो समझिए कि आपको गायत्री आ गई। जैसे शिवाजी की आँखों में एक जवान मुसलमान महिला को देखकर यह भाव आया कि काश यह हमारी माँ होती तो अच्छा होता। अर्जुन भी एक बार देवलोक में गए। देवलोक में अर्जुन को क्या−क्या उपहार मिलने चाहिए थे? इसकी परीक्षा लेने के लिए उन्होंने क्या किया? उन्होंने यह किया कि उपहार पीछे देंगे, पहले देखें कि यह इस लायक भी है या नहीं। उन्होंने स्वर्ग की सबसे सुँदर एक महिला उर्वशी को उसके पास भेजा। उर्वशी जब उसके पास गई तो यह कहने लगी कि अर्जुन, देवताओं ने हमको तुम्हारे पास भेजा है। हम तुम से प्रार्थना करने और कहने आई हैं कि तुम्हारे जैसा बच्चा हमको चाहिए। वह समझ गया कि इसका मतलब क्या है। अर्जुन ने कहा−अच्छा, आपको मेरे जैसा बच्चा चाहिए, पर आप जिस तरीके से चाहती हैं, उस तरीके से बच्चा न हुआ, कन्या हो जाए तब? और फिर मेरे जैसा न होकर पंगु हो जाए, काना हो जाए तब? आप मेरे जैसा ही चाहती हैं न, तो मैं एक ही हूँ। भगवान ने जितने भी जानवर बनाए, सब एक ही बनाए, दूसरा नहीं बनाया।

एक पेड़ भी एक जैसा ही बनाया, दूसरा वैसा पेड़ ही नहीं बनाया । एक पत्ता किसी पेड़ का जैसा है, दूसरा वैसा पत्ता दुनिया में नहीं बनाया। वह हर चीज अलग बनाता है, दूसरी तो बनाता ही नहीं है। मैं भी जैसा बनाया गया हूँ, मैं तो एक ही हूँ, दूसरा तो भगवान बनाने वाला नहीं है। इसलिए मेरे जैसा तो मैं एक ही हूँ और आपकी प्रार्थना मैं स्वीकार करता हूँ। आपके आदेश को मानता हूँ। अतः आज से मैं आपका बेटा होता हूँ। अच्छा आइए माताजी, यह टीका मस्तक पर लगाइए और फिर आज से मैं आपका बेटा हूँ और आप हमारी माँ हैं।

सिद्धाँत जीवन में उतरें

यह क्या है? बेटे, यह बुद्धि है, एक विचारणा है, एक संकल्प है, एक सिद्धाँत है। अगर ये सिद्धाँत हमारे और आपके मन में आएँ तो आप गायत्री के निश्चित रूप से उपासक हैं। यह विवेक आपके भीतर है, तो आप गायत्री के उपासक हैं। हमने इसके शिक्षण के लिए कलेवर बनाकर रखा है− हंस, जिस पर गायत्री सवार रहती है। गायत्री हरेक पर सवार नहीं होती। क्यों महाराज जी? हमारे पास घोड़ा है, घोड़े पर ले आएँ? नहीं बेटे, घोड़े पर भी नहीं आएगी। तो महाराज जी, हम गायत्री माता को बुलाने के लिए रिक्शा लेकर चले जाएँ? रिक्शे पर बिठाकर ले आएँ, रिक्शे पर तो आ ही जाएँगी। नहीं बेटे, रिक्शे पर भी नहीं आएँगी। गायत्री माता को लाना हो तो बेटे, हंस के सिवाय और किसी पर नहीं आ सकती। महाराज जी, हंस तो बेकार होता है, किसी और सवारी पर नहीं आ सकतीं? घोड़ा कहें तो घोड़ा ला दूँ, हाथी कहें तो हाथी ला दूँ? घोड़े−हाथी पर तो वे कतई नहीं बैठतीं। वे हंस पर ही बैठती हैं। हंस से क्या मतलब है? हंस से मतलब है वह व्यक्ति, जो धुला हुआ हो। जिसने अपने कपड़ों को धोकर साफ −सुथरा बनाया हो। हंस से मतलब है वह व्यक्ति, जिसको कि मोती खाने की आदत हो, जो कीड़े−मकोड़े नहीं खाता हो । हंस से मतलब है वह व्यक्ति जो दूध और पानी को अलग−अलग करना जानता हो। महाराज जी, ऐसा हंस कौन−सा होता है? कोई नहीं होता, बेटे, हम और आप हो सकते हैं।

दोस्तों हंस एक अलंकार है। जैसा हंस हमने कल्पना कर रखा है, उसे दूध और पानी कहाँ से मिलेगा? दूध−पानी को वह कैसे अलग कर सकता है। यह तो अलंकार है। यह हंस जो कि गायत्री माता का वाहन है, ऐसा हमको भक्त बनना चाहिए अर्थात् हमारा जीवन ऐसा बनना चाहिए, जैसा कि हंस का होता है। तभी गायत्री माता हमारे कंधे पर सवार होंगी, हमारी पीठ पर सवार होंगी, हमारे सिर पर सवार होंगी। हमारे ऊपर उनकी छत्रछाया बनी रहेगी। क्या मतलब है? बेटे, इसका मतलब यह है कि हमको ध्यान करना चाहिए? किसका? साकार गायत्री माता का। गायत्री माता हमको स्नेह देती हैं। भगवान को जब हम माता के भाव से मानते हैं तो क्या देते हैं भगवान हमको? स्नेह देते हैं, हमको करुणा देते हैं, हमको दयालुता देते हैं और हमको श्रद्धा देते हैं।

निराकार ध्यान ऐसे करें

मित्रो, दूसरा वाला ध्यान हम सविता का कराते हैं, जिसको हम निराकार ध्यान कहते हैं। वह हमारे अंदर शक्ति देता है। महाराज जी हम सविता का शुरू में ध्यान करें? नहीं बेटे, शुरू में मत करना, पहले माता का ध्यान करना, बाद में सविता का ध्यान करना। सविता क्या देता है? सविता बेटे, सारा सामान देता है। क्या−क्या सामान देता है? पिता क्या देता है? पिता बेटे की पढ़ाई के लिए फीस देता है, अपनी कमाई का मकान देता है और तेरी औरत को जेवर बनाकर देता है। कहीं तेरी नौकरी के लिए सिफारिश के लिए जाता है। बेटे, बाप के पास माल है और अम्मा के पास माल नहीं है। तो अम्मा के पास क्या है? बेटे, उसके पास प्यार है, दुलार है। तुम्हें छाती से वही लगाए रहेगी,

दूध वही पिलाएगी। तू जब गंदगी कर लेगा तो धोएगी भी वही, प्यार भी वही देगी। और बाप? बाप के पास टट्टी कर लेता है, तो कहता है, अजी ले जाओ जी इसे, इसकी टट्टी धोओ, हमारे कोट को भी धो देना और कपड़े भी धो देना। अरे तो आप धो देते? नहीं साहब, यह हमारा काम नहीं है। बेटे, बाप कहता है कि अपने बच्चे को ले जाओ यहाँ से और इसकी

सफाई करो और कुरता भी ले जाओ, देखो जी, यह सब गंदा कर दिया, दूसरा कुरता लाओ। बच्चे पर भी झल्ला रहा है, उसकी माँ पर भी झल्ला रहा है और खुद पर भी झल्ला रहा है।

कौन झल्ला रहा है? बाप। बाप कौन है? सविता−हमारा पिता। एक आँख प्यार की और एक आँख सुधार की । प्यार की आँख गायत्री माता के पास है और सुधार की आँख सविता के पास है। स्नेह, जिसकी हमको प्रारंभिक आवश्यकता है, गायत्री माता से मिलता है और शक्ति हमें सविता से मिलती है। दोनों की उपासनाओं की जरूरत है। ध्यान करते समय आपको यह ध्यान रखना चाहिए कि अगर आप प्रारंभिक उपासक हों, तो आपको गायत्री माता का ध्यान करना चाहिए। ध्यान करना चाहिए कि सद्बुद्धि रूपी माता, सद्विवेक की माता, सद्ज्ञान रूपी माता, करुणा रूपी माता, प्रेम रूपी माता अपना अमृत−सा दूध हमको पिला देती है। उस दूध को पीकर हमारी नसें और हमारी नाड़ियाँ शुद्ध−पवित्र होती हुई चली जाती हैं। हम स्नेह से भर रहे हैं, करुणा से भर रहे हैं, भावना से भर रहे हैं, कोमलता से भर रहे हैं। हमारा जो दुष्ट मन है, उसके अंदर कोमलता तो पैदा होनी ही चाहिए, सरसता तो पैदा होनी ही चाहिए, श्रद्धा तो पैदा होनी ही चाहिए। मित्रो, हमारी प्रारंभिक आवश्यकता है सौम्यता की, करुणा की। अभी हमारा संबंध सब जगह से निष्ठुरता से भरा हुआ पड़ा है। जब इसमें दयालुता आ जाए, श्रद्धा आ जाए तो फिर हम यह कहने के अधिकारी हैं कि भगवान हमको शक्ति दीजिए। अगर शक्ति आपको आ गई। कब? जब तक कि आप शुद्ध−पवित्र नहीं हुए, तो आपकी हानि हो जाएगी। आपका नुकसान हो जाएगा। दुर्वासा ऋषि ने अपने क्रोध का समापन नहीं किया था और उपासना करने लगे तो उनके क्रोध की वृद्धि हो गई। विश्वामित्र जब तक अपने आप को संशोधित करने की पूरी प्रक्रिया नहीं कर सके थे और तपस्या करने लगे। उस तप में, भजन में लगने का परिणाम यह हुआ कि उनकी कामवासना ज्यादा लगने का उद्दीप्त हो गई। उसके फलस्वरूप फिर क्या हुआ? बेटे उनके यहाँ अप्सरा से एक लड़की पैदा हुई थी, तुझे मालूम नहीं है। विश्वामित्र ऋषि के पास एक मेनका नामक अप्सरा आई थी। उसने चक्कर चलाकर विश्वामित्र से विवाह कर लिया था। महाराज जी, ऐसा हो सकता है? हाँ बेटे, ऐसा हो सकता है, इसीलिए शक्ति को प्राप्त करने से पहले पवित्रता−संशोधन की जरूरत है। संशोधन आप प्राप्त कर लें तब, तब आपको सविता का ध्यान करना चाहिए।

शक्ति की साधना

सविता का ध्यान कराने के लिए हम आपको थोड़ी−सी बानगी बताते हैं, चाशनी बताते हैं, थोड़ी−सी जानकारी देते हैं। सविता का ध्यान कैसे कराया जाएगा, इसका सैंपल हम बताते हैं। कैसे कराया जाएगा, कराइए तो साहब बेटे, हम ब्रह्मवर्चस् की साधना कराएँगे। इसे कराने से पहले हम आपको प्रारंभिक प्रशिक्षण देते हैं। यह पी॰ एम॰ टी॰ का कोर्स है। कौन−सा? यह जो अभी हम कराते हैं। अभी हम आपको प्रारंभिक शिक्षा इसलिए दे रहे हैं कि क्या आप अपना संशोधन कर सकते हैं? क्या आपके लिए ऐसा संभव है? क्या आप अपना चिंतन और अपने विचार बदल सकेंगे? यदि हाँ, तो हम आपको शक्ति दिलाएँगे। ब्रह्मवर्चस् साधना में हम आपको शक्ति देने के लिए बुलाते हैं, पर आपके लिए शर्त यही है कि आप अपने वर्तमान जीवन का स्वयं ही संशोधन कर लें, क्योंकि तभी जो शक्ति आएगी, वह आप के जीवन के लिए लाभदायक हो सकती है। आपका भला कर सकती है अन्यथा यदि शक्ति आई, तो आपका पेट फट जाएगा। आप उस शक्ति को सहन नहीं कर सकेंगे।

मित्रो, शक्ति को प्राप्त कर लेना मुश्किल नहीं है शक्ति को हजम करना, जब्ज करना मुश्किल है। घी में बेटे, बड़ी ताकत होती है। घी प्राप्त करना कोई मुश्किल नहीं है। पच्चीस रुपये यदि तेरे पास हों, तो मुझे दे, मैं तेरे लिए एक किलो घी लाकर दे दूँगा । फिर तो महाराज जी, मैं खा लूँ? खा ले बेटे, तेरे चेहरे पर चमक आ जाएगी, तू मोटा हो जाएगा। अच्छा लाइए, एक किलो का डिब्बा है, मैं तो आज खा जाता हूँ। हजम नहीं होगा बेटे। हजम न होने से तुझे तेरा घी नुकसान करेगा, तेरे पैसे भी जाएँगे, तुझे दस्त हो जाएँगे और तुझे उल्टी भी हो जाएगी। शक्ति प्राप्त करना और भगवान का अनुग्रह प्राप्त करना मुश्किल नहीं है। नहीं महाराज जी, बड़ा मुश्किल है। नहीं बेटे, कोई मुश्किल नहीं है। मुश्किल है तो चल, मैं तेरे साथ आता हूँ। मेरा गुरु मेरी सहायता करता है। क्या सहायता करता है?

सर्वश्रेष्ठ ध्यान : गुरु का ध्यान

मित्रो, सवेरे के वक्त जब मैं यहाँ आता हूँ तो उससे पहले अपने गुरु के सम्मुख बैठा रहता हूँ। हम दोनों के बीच ऐसे सूत्र स्थापित हो गए हैं कि शरीर तो उनका न जाने कहाँ रहता है और हमारा शरीर यहाँ रहता है, फिर भी हम आपस में बैठे हुए दी व्यक्तियों की तरह से बात करते रहते हैं। परामर्श करते रहते हैं, सलाह−मशविरा करते रहते हैं कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। हमको क्या दिक्कत आ जाती है और क्या परेशानी आ जाती है और उसका क्या हल हो सकता है? बहुत−सी बातों के लिए आपस में जैसे दो मित्र बैठकर बात कर लेते हैं, वैसे ही हम दोनों कर लेते हैं। तो महाराज जी, हमको भी यह लाभ मिल सकता है? बेटे, यह लाभ तो मैं तुझे दिला सकता हूँ, पर पहले तू अपना कर्त्तव्य पालन कर और न करे तो ना सही, मैं तो कर सकता हूँ।

मित्रो, प्रातःकाल चार से पाँच बजे का वक्त अपने बच्चों के लिए, परिजनों के लिए मेरा हमेशा के लिए सुरक्षित है। चार से पाँच बजे के वक्त में जब कभी आपको आवश्यकता पड़े, जरूरत पड़े, गुरुजी से कोई बात पूछनी है, परामर्श करना है या कोई सलाह लेनी है या कोई शक्ति की जरूरत है या कोई सहायता की जरूरत है, तो उस वक्त चुपचाप उठकर बैठ जाना। गुरुजी, स्नान कर लूँ? नहीं बेटे, कर सके तो कर ले, नहीं तो स्नान किए बिना ही बैठ जाना । बैठ करके यह ध्यान करना, जैसे मैं अपने गुरु का ध्यान करता हूँ। ध्यान करता हूँ कि मैं अपने गुरु की गोदी में बैठा हुआ हूँ। वे मेरे सिर पर हाथ फेरते जाते हैं, तो मुझे बड़ा मजा आता है। गायत्री माता के बारे में तो यह भी ध्यान आता है कि यह हमारी कल्पना की हुई एक मूर्ति है। ऐसा ध्यान आ जाता है, तब मेरा मन डाँवाडोल हो जाता है। अब ऐसा होने लगा है, पहले मेरे मन में ऐसा नहीं होता था। इसलिए अपने गुरु को, जिनको मैंने देखा है, जिनको जाना है, जिनके ऊपर मेरा विश्वास है, जिनको मैं भगवान मानता हूँ और मैं उन्हीं का दास हूँ, उनके बारे में ऐसा संदेह नहीं उत्पन्न होता है, संकल्प−विकल्प उत्पन्न नहीं होते। शक्ल भी किसी की मुझे नहीं बनानी पड़ती।

मित्रो, जिन गुरुजी को मैंने जाना है, देखा है, परखा है। जिनकी अपार कृपा का भार मेरे ऊपर है, जिनसे मैं लड़ाई भी लड़ सकता हूँ, तो उन्हें क्यों न मानूँ भगवान। जब मुझे कल्पना ही करना पड़ी तो श्रीकृष्ण की कल्पना, शेषशायी भगवान की कल्पना की। लेकिन फिर देखा कि हमारे यहाँ जो श्रीकृष्ण का फोटो टँगा हुआ है, तो उसमें किसी का मुँह लंबा है, किसी की नाक चौड़ी है। क्यों साहब, श्रीकृष्ण भगवान की नाक लंबी थी या चौड़ी थी? नहीं बेटे, हमें नहीं मालूम। देखिए, आप ही बताइए कि चौड़ी नाक वाले कृष्ण हैं या ये हलकी नाक वाले कृष्ण हैं। बेटे, ये तो तसवीर बनाने वालों ने बनाए हैं। असली कृष्ण कैसे थे, नहीं मालूम। असली कृष्ण ऐसे भी हो सकते हैं, जैसा तू है। महाराज जी, वे तो बहुत ही खूबसूरत थे। शायद वे खूबसूरत भी हो सकते हैं और कुरूप भी हो सकते हैं। असली कृष्ण कैसे थे, हमें नहीं मालूम। यह फोटो हमने बनाया है। यदि हम ही फोटो बना सकते हैं तो हम अपने मन का क्यों न बना लें। (समापन किश्त अगले अंक में)


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