गुरुकथामृत−39 - मेरे हृदयेश्वर−गुरुदेव भगवान−2

January 2003

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धर्मचक्र (यदुरामपुर) जिला छपरा, बिहार निवासी श्री रामचंद्र सिंह एक विनम्र सेवक के रूप में अपनी आराध्य सत्ता परमपूज्य गुरुदेव के साथ वर्षों रहे। उन्हें उन प्रारंभिक शिष्यों में से एक कहे जाने का श्रेय प्राप्त है, जिन्हें परमपूज्य गुरुदेव ने परमवंदनीय माताजी के पास सेवा हेतु शाँतिकुँज में नियुक्त किया। शाँतिकुँज की शैशव अवस्था में जब स्वयं पूज्यवर हिमालय प्रस्थान कर चुके थे, उन्हें इस छोटे से आश्रम की गौशाला सहित परमवंदनीय स्नेहसलिला माता जी के चरणों में भी बैठने का सौभाग्य मिला। वे अब हमारे बीच नहीं हैं। उनकी अपने हृदयेश्वर−श्री गुरुदेव भगवान के संबंध में अनुभूतियाँ गुरुकथामृत के रूप में दो कड़ियों में प्रस्तुत की जा रही हैं।

सन् 1958 के सहस्र कुँडी यज्ञ में धर्मचक (जो मरे गाँव से एक मील दूर स्थित है) के श्री रमेशचंद्र शुक्ल गए थे। उनको मैं बचपन से एक धार्मिक व्यक्ति के रूप में जानता था। या से लौटकर आए, तो मेरे लिए प्रसाद रूप में ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका लाए। मैं उसे पढ़ने लगा। नियमित प्रति माह पत्रिका आने लगी। पता लगा कि उन्हीं दिनों जून माह (1959) श्री शुक्ल जी का मथुरा जाने का योग बन रहा है। मेरे भतीजे जलेसर के अस्वस्थ होते हुए भी मन में आकाँक्षा जगी कि उनके साथ जाकर अपने आराध्य का दर्शन करूं, जिन्हें मन−ही−मन मैं गुरु के में स्वीकार कर चुका था। प्रथम दर्शन आठ जुलाई, 1959 को घीयामंडी, मथुरा के घर में हुए। पूछा, कहाँ से आए? मैंने स्थान बताया व कहा कि बच्चे के अस्वस्थ होते हुए भी आपके पास दौड़ा चला आया हूँ। तुरंत आश्वस्त करते हुए गुरुदेव बोले कि तुम आए नहीं हो, हमने तुम्हें बुलाया है। चिंता मत करो। भतीजा स्वस्थ हो गया है। मेरी उनके साथ हिमालय चलने की इच्छा पर गुरुदेव बोले कि वह कार्य हमारे अकेले का है। तुम्हें आगामी दस वर्ष तक पूरे भारतवर्ष में यज्ञों का आयोजन करना है। खूब भ्रमण करना है। हम तुम्हारा मार्गदर्शन करेंगे। अभी डेढ़ वर्ष हम हिमालय अज्ञातवास पर रहेंगे। 1962 की अष्टग्रही की भविष्यवाणी से परेशान मत होना। वह तो नए युग का संदेश लेकर आ रही है। महाविनाश या प्रलय जैसा कुछ नहीं होगा। हम उनका आदेश सिर−माथे रख चले आए।

अक्टूबर, 1961 में आरा (बिहार) में पाँच कुँडी गायत्री यज्ञ में गुरुदेव आने वाले थे। मैं भी अपने गाँव से बावन व्यक्तियों को लेकर आरा चार दिन के लिए यज्ञ में गया। जिस कमरे में गुरुदेव ठहरे थे, वहाँ उनने मुझे अकेले बुलवाया। जैसे ही दर्शन हुए, चेहरा नहीं मात्र वहाँ सूर्य जैसा प्रकाशपुँज व विराट आभामंडल दिखाई दिया। मुझे लगा, मेरे गुरु साक्षात् भगवान हैं व मैं सौभाग्यशाली हूँ, जो उनका दर्शन मुझे हुआ है। उनने तीन माह बाद होने वाली चाँद्रायण व्रत शृंखला हेतु बुलाया। मैं वह सन्न करके आया। मुझे प्रतिवर्ष गायत्री तपोभूमि आते रहने का आदेश मिला। गुरुदेव भगवान के आदेश पर ही मैं पैसा कमाने हेतु आसाम गया। यह सुयोग सहज ही बन गया तो मैंने भी संकल्प लिया कि मैं कम−से कम 108 ‘अखण्ड ज्योति’ के सदस्य अपने काम के साथ−साथ बनाऊँगा। 1964 के मार्च में मैं आसाम चला गया था। दुमदुमा के एक भाई ने हमसे चर्चा में कहा, हम चार भाई हैं। बँटवारा होने की नौबत आ गई है। सारा परिवार बिखर जाएगा। आप कुछ कराइए। मैंने कहा कि किसी ब्राह्मण से घर में गायत्री यज्ञ कराइए, सब ठीक हो जाएगा। राजकुमार जी बोले, आपको तो आता है, आप ही यज्ञ संपन्न कराया। एक व्यक्ति को अखण्ड ज्योति का ग्राहक बनाने हेतु बिठा दिया। पूर्णाहुति हुई। कुमारी कन्याओं का भोजन हुआ उसी यज्ञ में 108 परिजन अखण्ड ज्योति के ग्राहक बन गए। मेरा संकल्प पूरा हो गया। मैं स्वयं देखकर गदगद था कि कितना शानदार यज्ञ रहा, जबकि मात्र पाँच कुँडीय आयोजन था एवं मेरे जैसा अनगढ़ किताब पढ़ पढ़कर उसे करा रहा था। जिस परिवार में यज्ञ कराया, उसका अटल विश्वास गुरुदेव एवं यज्ञ पिता गायत्री माता पर बैठ गया, क्योंकि इसके बाद उनमें समझौता हो गया । पूरा परिवार एक हो गया व सबके काम बाँट दिए गए। सारा परिवार गुरुदेव भगवान के दर्शन करके आया।

मैं आसाम से बिहार वापस 1966 में आ गया। घर के लिए ठीक ठाक व्यवस्था को गई थी। इसी बीच पता चला कि 24 से 26 दिसंबर , 1967 की तारीखों में मेरे गुरुदेव मस्तीचक आ रहे हैं। मस्तीचक में पं॰ रमेशचंद्र जी शुक्ल के यहाँ पंच कुँडी यज्ञ का आयोजन था। मैंने अपनी आँखों से देखा कि दो स्त्रियों ने दर्शन के समय उनसे प्रार्थना की कि विवाह को 8-10 वर्ष हो गए हैं, संतान नहीं हुई । उन्हें यज्ञ की परिक्रमा करते रहने का आदेश हुआ। दोनों स्त्रियों को दस माह बाद पुत्ररत्नों की प्राप्ति हुई। इसी यज्ञ में पूज्यवर ने मुझे बुलाकर कहा, रामचंद्र, तुम्हारे गाँव व घर चलेंगे। मैं स्तब्ध। कैसे उस छोटी झोंपड़ी में बिठाऊँगा, पर गुरुदेव आए। गुरुदेव के लिए एक इंजीनियर की जीप की व्यवस्था की । हम धर्मचक आ गए। कुटिया के द्वार पर गुरुदेव भगवान की आरती−पूजन किया। कुछ देर बाद वे बोले कि कोई सार्वजनिक स्थान गाँव में हो, वहाँ ले चलो। गाँव के किनारे एक देवी का मंदिर था, पास में खुली जमीन थी। वहाँ पहुँचने पर एक स्थान उन्हें पसंद आया। उनने सात ईंटें और पूजन की सामग्री मँगवाई। अपने हाथों से भूमिपूजन किया। खुदाई करवाकर ईंट रखकर शिलान्यास किया व उपस्थित समुदाय से कहा, यह भूमि हमने अपने तप से असाधारण बना दी है। आगे चलकर यहाँ एक गायत्री मंदिर बनेगा। प्राणिमात्र का कल्याण होगा। दूर से लोग आएँगे, प्रकाश पाकर जाएँगे। गाँव वाले मंदिर बनाएँ, हम इसकी प्राण प्रतिष्ठा करेंगे। इतना कहकर भगवान श्री मस्तीचक वापस लौट गए। कालाँतर में पूर्णिया से बक्सर जाते हुए 1971 में इस मंदिर में गायत्री माता की प्राण प्रतिष्ठा हुई। वह भी बड़ा अलौकिक प्रसंग है, उसकी चर्चा बाद में।

मुझे 1 जून, 1967 को मथुरा में एक पंद्रह दिवसीय सन्न में आने का निर्देश मिला। अंतिम दिन अकेले में बुलाकर तपोभूमि यज्ञशाला के सामने खड़े होकर बोले, रामचंद्र, अब युगनिर्माण विद्यालय आरंभ होने जा रहा है। तुम बाल बच्चों को लेकर यहाँ आ जाओ। यहीं उन्हें पढ़ाएँगे−लिखाएँगे, छाछ रोटी साथ खाएँगे। भगवान का मान करेंगे। मैं गाँव लौट गया। अक्टूबर, 1967 में टाटानगर में एक बड़ा विशाल यज्ञ था। वहाँ से लौटते हुए गुरुदेव भगवान पटना सिटी के डॉ॰ माथुर के यहाँ रुके। 10 अक्टूबर की प्रातः उनके दर्शन हेतु अपने गाँव−क्षेत्र से पचास व्यक्तियों को लेकर पहुँचा। तुरंत गुरुवर बोले, ‘तुम अभी तक मथुरा नहीं पहुँचे। मैंने करबद्ध निवेदन किया कि आपने ही हमारे गाँव में शिलान्यास किया है मंदिर बनना आरंभ हो जाए, तो मैं आ जाऊँगा। भगवान श्री बोले, मंदिर गाँव वाले बनाएँगे। मूर्ति की व्यवस्था भी हो जाएगी । तुम तो हमारा मंदिर बनाने मथुरा चलो। अंततः 1 फरवरी 1968 को अपनी पत्नी तथा पुत्री सहित मैं मथुरा श्रीचरणों में पहुँच गया।

1968 कह गुरुपूर्णिमा पर पूजन निपटने के बाद गुरुदेव माता जी हरिद्वार के सप्त सरोवर में बनने वाले आश्रम की चर्चा कर रहे थे। अचानक भगवान श्री बोले, रामचंद्र, तुम हरिद्वार चलो। वहाँ निर्माण कार्य में मदद करना। बाद में माताजी की सेवा करना। हमने आज्ञा शिरोधार्य कर ली। फिर उसी दिन से प्रतिदिन एक नर्सरी ले जाकर उनने हमारा बागवानी का शिक्षण आरंभ कर दिया। सातवें दिन बगीचे का सामान−फावड़ा, खुरपी, गेंती, कुछ प्रकार के पौधे व बीज, ओढ़ने बिछाने का सामान लेकर 8 अगस्त, 1968 को मुझे लेकर उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ भविष्य का शाँतिकुँज बनना था।

श्रावण मास के उस पवित्र दिन रात्रि तो सप्तर्षि आश्रम की एक कुटिया में ठहरे। फिर अगले दिन उस भूमि पर ले गए। चारों तरफ घनघोर जंगल था । जमीन पर एक फीट पानी बह रहा था। पड़ोस में एक माताजी का (विद्योत्तमायति) मकान था। उसी में एक ब्रह्मचारी रहते थे। उनसे एक अस्थायी टिनशेड 12 8 फीट का लिया व मेरे रहने की अस्थायी व्यवस्था बना दी। मैंने एक छोटी−सी कोठरी दिन भर में बना ली। वहीं कोने में भोजन बनाने की व्यवस्था भी कर ली। एक चारपाई ले आया, थोड़ी−सी ईंटें। मिट्टी के तेल की चिमनी जलाई । मैंने दाल−चावल बनाए थे। वे खाकर वहीं सो गए। मैं ईंटों के बिछौने पर उनके पाँव दबाकर सो गया। सवेरे नींद खुली तो देखा कि गुरुदेव तो दैनंदिन कृत्यों से निवृत्त होकर प्लास्टिक का कोट सिर पर ढके, नेकर−बनियान पहने फावड़े से पानी निकलने का रास्ता बना रहे हैं एवं पानी लगातार बरस रहा है। मैं जल्दी से फरिगडडडड होकर आया। गुरुदेव बोले, मैंने गड्ढे खोद दिए हैं, तुम इन्हें गहरा करके नर्सरी से लाए पौधे लगाते चलो।

मैंने आज्ञा का पालन किया। आठ दिन यही क्रम चलता रहा। इस बीच गुरुदेव की पूजा देखी, उनका कर्मयोगी स्वरूप देखा व खूब हंसी खुशी में, सीमित साधनों में जीवन जीने का उनका क्रम देखा। पौधे लगा दिए गये। अस्थायी सड़क बन गई। कहाँ माताजी का कमरा बनेगा, यह सब तय करके वे हमें यहीं रुकने का आदेश देकर चले गए। वह दिन 1968 की आठ अगस्त का था, जब भगवान श्री पहली रात्रि इसी भूमि पर अपने अस्थायी आवास में बहते पानी के बीच सोए। वस्तुतः यही शाँतिकुँज का जन्मदिवस भी है, क्योंकि इसी के बाद विधि−व्यवस्थापूर्वक सारे कार्य आरंभ होते गए एवं क्रमशः निर्माण हेतु गुरुदेव के आने का क्रम बनता चला गया।

सप्तर्षि आश्रम द्वारा भगवान श्री के पत्र हर चार दिन में आ जाते थे, जिनमें निर्देश रहा करते थे। कुएँ की खुदाई व कमरों के निर्माण हेतु वे जनवरी, 1969 में वसंतपंचमी के पूर्व पुनः पधारे। साथ में चार आना प्रतिदिन की दर से किराये पर खड़खड़ी से एक साइकिल लेकर भी आए। ताँगे उन दिनों बड़े महँगे थे। एक बार का आना−जाना बारह−पंद्रह रुपये खरच कर देता था। गुरुदेव ने हमसे कहा कि तुम हमें साइकिल पर बिठाकर खुद चला सकते हो। हमने हाँ कहा, तो उनने कहा बिठाकर चलाकर दिखाओ संतुष्ट होने पर एक ही साइकिल पर हम दोनों बैठकर अच्छूमल के ईंट के भट्टे पर पहुँचे। साठ हजार रुपये से हजार के हिसाब से 60,000 ईंट खरीदीं। नकद पैसे दिए व ईंटें पहुँचाने के लिए कहा। सेठ बोला, मैं अपनी गाड़ी से आपको आश्रम पहुँचा देता हूँ। गुरुदेव ने स्पष्ट मना कर दिया व कहा कि हम साइकिल से ही वापस जाएँगे। प्रभु की सादगी−सरलता देखकर हम हतप्रभ थे। जिनके संकल्पमात्र से लाखों के निर्माण हम स्वयं देखकर आए थे, वे हमें निमित्त बनाकर हम जैसे ही बनकर सारा कार्य कर रहे थे। हमने कहा भी, तो बोले, रामचंद्र, यह तप है। तप की नींव पर जब शाँतिकुँज खड़ा होगा, तो हजारों वर्ष तक जन−जन को प्रकाश देता रहेगा। अतः तुम बस वही करते जाओ, जो हम कह रहे हैं।

सीमेंट आने वाला था। मैं भोजन बना रहा था। देखा कि धोती घुटनों के ऊपर चढ़ाकर गुरुदेव स्वयं ईंटें बिछा रहे हैं। मैं भागा उन्हें रोकने, तो वे बोले, उधर सब्जी जल जाएगी। तुम उसे सँभालो। मैं सीमेंट को भीगने से बचाने के लिए ईंटें बिछाकर एक चबूतरा बना चुके थे। सीमेंट लाने वाले मजदूरों और मैंने वह सीमेंट व्यवस्थापूर्वक चबूतरे पर जमा दिया। निर्माण−कार्य शुरू हो गया। गुरुदेव के निर्देशानुसार तीन कोठरियाँ शुरू में बननी थीं। मैं उनके बताए अनुसार कार्य में लग गया। गुरुदेव दौरे पर मथुरा होते हुए निकल गए। अप्रैल, 1969 में वे पुनः आए। नवरात्रि अनुष्ठान भी यहीं रहकर किया व भविष्य के निर्माण कार्य की सारी रूपरेखा बना ली। कोई इंजीनियर नहीं, कोई आर्किटेक्ट नहीं। बस, हम दोनों व थोड़े से मजदूर। 1970 में जयपुर के श्री बिहारीलाल जी आए। निर्माण संबंधी मार्गदर्शन उनसे मिलते रहे। इसी बीच पत्र आया कि हम माता जी को उनकी भविष्य की कर्मभूमि दिखाने ला रहे हैं, तुम स्टेशन पर हमें मिलना। रेल के डिब्बे से तौलिया फहराते गुरुदेव माता जी उतरे। साथ में टिन की एक पेटी। एक ताँगा किया गया। हम आगे बैठे। माताजी−गुरुदेव पीछे। सबसे पहले दक्ष प्रजापति गए। दोनों ने वहाँ घंटे भर पूजन किया। फिर रास्ते में सब दिखाते हुए माताजी व मेरे गुरुदेव भगवान हँसते हँसते हुए शाँतिकुँज पहुँचे। यहाँ मात्र तीन कमरे ही बने थे, पर शिव−शक्ति के युगल यहीं विराजमान हुए । हम तीनों दिन भर निर्माण−कार्य देखते। शाम को गंगाजी के तट पर बैठते। सवेरे दोनों की साधना चलती। माताजी के हाथ की बनी रोटी हम खाते। कैसे आनंद भरे क्षण थे वे सोच−सोचकर रोमाँच हो जाता है। (समापन किश्त अगले अंक में)


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