तपस्वी की इच्छा (Kahani)

January 2003

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डॉ. विश्वेश्वरैया भारत के माने हुए इंजीनियर थे। एक गाँव से होकर गुजरे तो वहाँ के अध्यापकों ने स्कूली बच्चों के सामने कुछ भाषण करने को कहा। थोड़ी आनाकानी के पश्चात वे सहमत हो गए और एक छोटा−सा भाषण दे दिया। मार्ग में वे बिना तैयारी का अस्त−व्यस्त भाषण देने की भूल पर दुखी हुए और अगले सप्ताह स्कूल में दुबारा भाषण देने की बात लिखी। अध्यापकगण पत्र पाकर आश्चर्य में थे इतने व्यस्त व्यक्ति दुबारा बिना बुलाए क्यों आ रहे हैं?

आने पर उनने अपना लिखा भाषण पढ़ा और कहा, आप लोग बच्चे हैं, इससे क्या, मुझे अपने भाषण का स्तर नहीं गिराना चाहिए था। अच्छी चीज तैयारी के बाद ही बनती है। मुझे अपनी पिछली भूल का प्रायश्चित्त करने के लिए दुबारा आना पड़ा।

एक तपस्वी किसी धर्मात्मा राजा के महल में पहुँचे। राजा गदगद हो गए और पूछा, आज मेरी इच्छा है कि आपको मुँह माँगा उपहार दूँ। तपस्वी ने कहा, आप ही अपने मन से सबसे अधिक प्रिय वस्तु दे दें, मैं क्या माँगूँ।

राजा ने कहा, अपने राज्य का समर्पण कर दूँ। तपस्वी बोले, वह तो प्रजाजनों का है। आप तो संरक्षक मात्र हैं। राजा ने बात मानी और दूसरी बात कही, महल, सवारी आदि तो मेरे हैं, इन्हें ले लें। तपस्वी हँस पड़े, राजन् आप भूल जाते हैं। यह सब भी प्रजाजनों का है। आपको कार्य की सुविधा के लिए दिया गया है।

अबकी बार राजा ने अपना शरीर दान देने का विचार व्यक्त किया। उसके उत्तर में तपस्वी ने कहा, यह भी आपके बाल−बच्चों का है, इसे कैसे दे पाएँगे। राजा को असमंजस में देखकर तपस्वी ने कहा, आप अपने मन का अहंकार दान कर दें। अहंकार ही सबसे बड़ा बंधन है। राजा दूसरे दिन से अनासक्त योगी की तरह रहने लगा। तपस्वी की इच्छा पूर्ण हो गई।


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