स्वभाव से छूटता ही नहीं (Kahani)

January 2003

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स्वाभिमान, विद्वता, प्रतिभा, उदारता और समर्पण के समन्वय का नाम है−प्रफुल्लचंद्र राय। वे इंग्लैंड से उच्च शिक्षा लेकर लौटे। आते ही अध्यापन और अपने छात्रों को आदर्श बनाने में लग गए। उनका वेतन एक हजार से ऊपर था, पर उसमें से निजी खरच के लिए अस्सी रुपया ही लेते थे। शेष निर्धन छात्रों की सहायता में लगाते थे। उन्होंने विवाह नहीं किया। इससे खरच बढ़ेगा और छात्रों के साथ जितना समय लगाना पड़ता है, उतना न लग सकेगा।

उन्होंने भारतीय औषधि शास्त्र का गहरा अध्ययन करने के उपराँत बंगाल केमिकल्स की स्थापना की। प्रामाणिक औषधियों की माँग चरम सीमा तक हुई और कंपनी अच्छे मुनाफे में चलने लगी। एक बार उनके मैनेजर ने एक दवा नकली बना दी। उनने लाखों का घाटा सहकर उसे गंगा में बहा दिया। उनकी इस न्यायनिष्ठा ने उनकी औषधियों की प्रामाणिकता तो बढ़ा ही दी, विदेशियों की निगाह में भारतीय चरित्र भी ऊँचा उठा।

ऊँटों का एक बड़ा काफिला सौदागरी का माल लादकर सफर पर निकला। मालिकों ने रात बिताने के लिए एक सराय खोजी। मालिकों को चारपाइयाँ मिल गई, पर ऊँटों को तो जमीन पर ही सुस्ताना था।

ऊँटों की रस्सी बाँधने के लिए खूँटियाँ गाढ़ी गई। आदत के मुताबिक जो बँध गए, वे चैन से सुस्ताने लगे। एक खूँटी कम पड़ रही थी। ऊँट कैसे बाँधा जाए, इसके बिना वह बैठने तक को तैयार नहीं हो रहा था।

सराय मालिक समझदार था। उसने सलाह दी, झूठ−मूठ जमीन में खूँटी गाढ़ो और झूठ−मूठ ही उससे रस्सी बाँध दो। ऐसा ही किया गया। तरकीब काम दे गई। ऊँट बैठ गया और सुस्ताने लगा। अब सवेरा होते−होते बड़ी समस्या आई। खूँटी उखाड़ने पर और सब ऊँट तो उठ बैठे, पर वह उठने को राजी न होता था। सराय मालिक ने सलाह दी कि झूठ−मूठ खूँटी उखाड़ो और रस्सी हिलाकर उठाओ। ऊँट उठ बैठा और काफिले के साथ चलने लगा।

काफिले में एक बुजुर्ग थे। उनने ज्ञानचर्चा करते हुए साथियों से कहा, ‘मनुष्यों की आदत भी इस ऊँट जैसी ही है। वे भी ढर्रे के आदी हैं। उन्हें झूठ भी सच और अच्छा लगता है। सच को जानने और समझने की कोशिश ही नहीं करते, इसी कारण जो कुछ भी सरल, सुगम व अभ्यास में आ गया है, वह स्वभाव से छूटता ही नहीं।


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