नववर्ष का एक प्रेमोपहार : साधक दैनंदिनी

January 2003

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साधक दैनन्दिनी (डायरी) की योजना नववर्ष पर साधकों के लिए प्रेम भरा उपहार है। नए साल पर साधना पथ पर बढ़ चलने के लिए संकल्पित साधकों के लिए भावभरा मार्गदर्शन संदेश है। उनके उन्नत साधनामय जीवन की सफलता के लिए सच्ची कल्याण कामना है। नववर्ष प्रायः नई दैनन्दिनी की शुरुआत करने के लिए जाना जाता है। बहुसंख्यक जन दैनन्दिनी का उपयोग अपनी जीवनचर्या के कुछ खास बिन्दुओं का स्मरण रखने के लिए कर सकते हैं। कुछ लोग इसका प्रयोग रुपये, पैसे एवं चीज-सामान का हिसाब रखने के लिए करते हैं। पर ये सब सामान्य लोगों की सामान्य बातें हैं। ईश्वरीय दिव्यता को अपने मानवीय जीवन में उतार लाने के लिए संकल्पित साधकों का जीवन किसी भी स्थिति में सामान्य नहीं है। ऐसे संकल्पवान साधक सदा ही विशिष्ट होते हैं। उनकी इस विशिष्टता के अनुरूप उनकी दैनन्दिनी की योजना भी विशिष्ट होनी चाहिए।

इस साधना सत्य को ध्यान में रखते हुए अपने गायत्री परिजनों के लिए साधक दैनन्दिनी की योजना बनायी गयी है। वर्षों से परम पूज्य गुरुदेव द्वारा रचित युग साहित्य से परिचित, प्रेरित एवं प्रभावित हममें से प्रायः सभी मनुष्य जीवन के परम लक्ष्य की ओर गतिशील हैं। हम सभी जानते हैं कि मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य सर्व समर्थ भगवान् की अपने जीवन से अभिन्नता को अनुभव करना है। उनके अनन्य प्रेम को प्राप्त करते हुए भागवत् चेतना को अपनी अन्तर्चेतना में अवतरित कर लेना है। वस्तुतः ज्ञान, भक्ति, मुक्ति, मोक्ष सब इसी के अलग-अलग नाम हैं। ‘स्वल्पश्चकालो बहवश्च विघ्नः’ यही जिन्दगी का सच है। जीवन का समय थोड़ा है और बाधा विघ्नों विपदाओं की बाढ़ आयी हुई है।

दौर युग परिवर्तन का है। युगान्तरीय चेतना असुरता को परास्त ही नहीं नेस्तनाबूद करने के लिए कटिबद्ध है। देवशक्तियों का असुरता के साथ घनघोर संग्राम चल रहा है। विध्वंसक आसुरी शक्तियाँ अपने समाप्त होते-होते भी प्रलय काल के दृश्य उपस्थित कर रही हैं। व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन का कोई भी क्षेत्र विघ्न-बाधाओं की विपदा से अछूता नहीं है। कालनेमि के कुचक्र हर कहीं कुहराम मचाए हुए हैं। ऐसे आपद-विपद से भरे जीवन में जो मनुष्य जल्दी से जल्दी अपने जीवन लक्ष्य को पहचानकर, उस ओर सावधानी से बढ़ता हुआ अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है, वही बुद्धिमान है। उसी का जन्म सफल है, उसी का जीवन सार्थक है और उसी की साधना श्रेष्ठ है।

याद रहे, यदि अपना यह मनुष्य जीवन यों ही बेकार की बातों में, स्वार्थ एवं अहं की क्षणिक तुष्टि के लिए विद्रूप स्वाँग भरते, ईर्ष्या, द्वेष, प्रपंच के ढोंग रचते यूँ ही बीत गया तो फिर पीछे पछताने के सिवा और कोई उपाय न रह जाएगा। इसलिए हममें से हर एक को आज और अभी, नव वर्ष की शुरुआत के इसी पवित्र क्षण में अपनी स्थिति पर विचार करके अपने साधनात्मक कर्त्तव्य के पालन में जुट जाना चाहिए। तनिक सोचें तो सही, हम सभी भगवान् महाकाल के अंश हैं, महातपस्वी युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ परम पूज्य गुरुदेव की संतानें हैं, क्या क्षुद्रताओं से घिरे रहना हममें से किसी को शोभा देता है।

जो पहले से साधना कर रहे हैं, वे आगे बढ़ें, जिन्होंने अभी साधना की शुरुआत नहीं की है, वे करें और जल्दी करें। हम सभी ईश्वर प्राप्ति के दिव्य जीवन पथ पर आ जाएँ और इस लक्ष्य को ध्यान में रखकर सावधानी के साथ आगे बढ़ते रहें, इसी उद्देश्य से यह साधक दैनन्दिनी की योजना तैयार की गयी है। इसके अंतर्गत 24 प्रारम्भिक नियम बनाए गए हैं। ये चौबीस नियम गायत्री महामंत्र के चौबीस मंत्राक्षरों की भाँति हैं। अतएव इन नियमों का पालन स्वयं विश्वासपूर्वक करना चाहिए तथा अपने परिचित व प्रियजनों से कराना चाहिए। इस सम्बन्ध में प्रतिदिन इसका समीक्षात्मक ब्योरा लिखा जाय तो और उत्तम है। यदि सम्भव बन पड़े तो अपने कुछ प्रिय जनों का साधक समूह बनाकर उसमें परस्पर यह साधनात्मक समीक्षा सुनाना चाहिए। किसी दिन किसी नियम के टूट जाने पर आवश्यक दण्ड विधान को आग्रहपूर्वक स्वीकार करना चाहिए। शान्तिकुञ्ज आकर-पत्र लिखकर अथवा इस पत्रिका के सम्पादक से भेंट

मुलाकात कर अवसर मिलने पर इस सम्बन्ध में और अधिक उपयोगी परामर्श किया जा सकता है।

साधक दैनन्दिनी की योजना में साधकों के लिए जो चौबीस नियम बनाए गए हैं, उनमें से प्रथम बारह नियम ग्रहण के हैं और बाद के बारह नियम त्याग के हैं। यानि कि पहले बारह नियमों में यह बताया गया है कि क्या हम संकल्पपूर्वक करें? बाद के बारह नियमों में यह बताया गया है कि क्या हम दृढ़तापूर्वक न करें।

ग्रहण के नियम-

1. सर्वत्र भगवत्दृष्टि- जहाँ तक बनें, दिन भर में जिस किसी से व्यवहार करने पड़े, उसे भगवान् का स्वरूप समझना। यह सोचना कि हमारे प्रिय प्रभु ही एक अंश से हमसे मिलने आए हैं।

2. ईश्वर स्मरण-सद्गुरु स्मरण- प्रत्येक आधे घण्टे पर ईश्वर का एवं अपने सद्गुरु का (नाम, रूप, लीला, गुण आदि का) स्मरण करना और स्मरण आने पर न भूलने का प्रयास करना।

3. सूर्योदय पूर्व जागरण- बीमारी आदि कोई विषमता या किसी आपदा के अलावा प्रत्येक स्थिति में सूर्य उदय होने से पहले उठ जाना।

4. प्रातः स्मरण और प्रणाम- प्रातःकाल उठते ही माता गायत्री, परम पूज्य गुरुदेव का स्मरण करना और पृथ्वी माता को प्रणाम करने के बाद अपने गुरुजनों को प्रणाम करना। यदि अपने माता-पिता आदि गुरुजन दूर हों, तो उन्हें मन ही मन प्रणाम करना।

5. नियमित गायत्री साधना- गायत्री की दैनिक साधना विधि के अनुसार नियमित गायत्री साधना करते हुए नित्य प्रति कम से कम एक माला गायत्री मंत्र का जप करना। गायत्री साधकों को रविवार या गुरुवार कम से कम एक समय का उपवास अवश्य करना चाहिए।

6. गीता एवं युग साहित्य का अध्ययन- प्रतिदिन भगवद्गीता के कम से कम दस श्लोकों का एवं परम पूज्य गुरुदेव रचित साहित्य के किसी अंश में से कम से कम एक पैराग्राफ का अर्थ चिन्तन करते हुए अध्ययन करें। इस क्रम में साधकगण गुरुदेव के साधना परक साहित्य का चुनाव करें।

7. निष्काम सेवा व स्वाध्याय- पूरे दिन कम से कम एक काम ऐसा जरूर करें, जिसमें अपना तनिक भी स्वार्थ एवं थोड़ी सी भी अहं भावना न हो। जैसे विनम्र भाव से कहीं सफाई आदि की जाय, अथवा किसी बीमार आदि की सेवा की जाय। यदि किसी दिन कोई ऐसा अवसर न मिले, तो किसी के कल्याण के लिए भगवान् से भाव भरी प्रार्थना की जाय। यह भी सेवा का ही एक रूप है।

स्वाध्याय के क्रम में अखण्ड ज्योति पत्रिका के किसी लेख को विचार पूर्वक पढ़ा जाय, अथवा किसी श्रेष्ठ विचारपूर्ण साहित्य को पढ़ा जाय। और उस पर कुछ पंक्तियों में समीक्षात्मक नोट लिखा जाय। इस तरह के स्वाध्याय क्रम से मौलिक सृजन चेतना जाग्रत् होती है।

8. आत्मबोध-तत्त्वबोध- प्रातः जागरण के तुरन्त बाद भगवान् का स्मरण करते हुए यह सोचना कि प्रभु कृपा से हमें यह एक दिन का जीवन मिला है। इसके सार्थक उपयोग के लिए संकल्पित होना। इसी तरह रात्रि सोते समय दिन भर के कामों की समीक्षा करते यह चिन्तन करते हुए सोना कि हमारा समूचा अस्तित्त्व प्रभु में समर्पित-विसर्जित एवं विलीन हो रहा है। प्रत्येक दिन अपने नए जीवन का एवं प्रत्येक रात्रि अपनी मृत्यु का अनुभव करना ही आत्मबोध-तत्त्वबोध की साधना का सार है।

9. कर्त्तव्यपालन- सामान्य जनों के लिए घर में, कार्यालय में, विद्यार्थियों के लिए अपने पठन-पाठन से सम्बन्धित जो भी कर्त्तव्य हों उसे पूरे संकल्प एवं मनोयोग पूर्वक करना। कर्त्तव्य के प्रति कर्मठभाव ही साधना जीवन की कसौटी है।

10. स्वच्छता-सुव्यवस्था- बाह्य जीवन एवं आँतरिक जीवन में स्वच्छता एवं सुव्यवस्था के लिए सदा-सचेष्ट रहना। स्वच्छ एवं सुव्यवस्थित जीवन शैली ही साधकों की पहचान है।

11. नियमित ध्यान- कम से कम पन्द्रह मिनट नियमित ध्यान करना। ध्यान के पन्द्रह मिनट कभी भी निकाले जाएँ पर इसका समय निश्चित होना चाहिए। भले ही यह रात्रि को सोते समय हो।

12. नियम पालन निरीक्षण- प्रतिदिन सायंकाल कुछ समय इस बात की जाँच में लगाना कि दैनन्दिनी के नियमों का किस तरह पालन हुआ। किसी भी भूल के लिए आवश्यक प्रायश्चित्त करना। कल भूल न हो इस बात का दृढ़ संकल्प करना।

त्याग के नियम-

1. दूसरे के अहित का त्याग- जान-बूझकर कभी किसी का अहित न करना।

2. असत्य भावना का त्याग- षड़यन्त्र, कुचक्र जैसी असत्य भावनाओं से दूर रहना, जान-बूझकर किसी के लिए हानिकर असत्य न बोलना।

3. दूषित दृष्टि का त्याग- पुरुष महिलाओं के प्रति, महिलाएँ पुरुषों के प्रति वासना भरी दृष्टि से न देखें। पवित्र दृष्टि-पवित्र भावना ही साधक का लक्षण है।

4. परिग्रह का त्याग- जान-बूझकर किसी का हक न लेना। अपने पास भी अनिवार्य आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना।

5. क्रोध का त्याग- उत्तम तो यही है कि मन में क्रोध न आए। परन्तु यदि कभी मन में क्रोध आ जाए तो किसी भी तरह उसकी क्रिया बाहर न हो।

6. फैशन का त्याग- फैशन के अतिरेक से बचना। स्वच्छता एवं सादगी से रहा जाय। बनाव-शृंगार के झूठेपन से बचा जाय।

7. अशील विनोद का त्याग- गंदी हंसी-मजाक न करना।

8. ईर्ष्या-द्वेष का त्याग- किसी भी स्थिति में न तो किसी से द्वेष-दुर्भाव रखना और न ही किसी से ईर्ष्या करना। दूसरों की प्रगति-उन्नति एवं प्राप्ति में प्रसन्नता अनुभव करना।

9. परनिन्दा का त्याग- जान-बूझकर किसी की चुगली-निन्दा न करना।

10. मादक वस्तु व व्यसन का त्याग- तम्बाकू, सिगरेट, बीड़ी-भाँग, गाँजा, चरस, शराब आदि का सेवन न करना। जुआ आदि किसी भी व्यसन से बचना दूर रहना।

11. अभक्ष्य खान-पान का त्याग- माँस-मछली-अण्डा आदि अभक्ष्य वस्तुओं का सेवन न करना। लहसुन-प्याज का भी सेवन न करना।

12. समय नष्ट करने की प्रवृत्ति का त्याग- ताश, चौपड़ आदि में समय न गँवाना। जहाँ तक हो सके व्यर्थ की बातें न करना।

साधक यदि इन चौबीस नियमों का दृढ़तापूर्वक पालन करते रहेंगे तो उनके जीवन में शुभ परिवर्तन होना अनिवार्य है। इन नियमों के साथ की गयी थोड़ी सी गायत्री साधना महान् फलदायी होगी, ऐसा बार-बार अनुभव किया गया है।

नियम उल्लंघन होने पर प्रायश्चित्त विधान- इन उपरोक्त नियमों के पालन में किसी भी दिन कोई भूल होने पर साधकगण प्रत्येक भूल के लिए एक समय का उपवास अथवा गायत्री महामंत्र की एक माला का जप प्रायश्चित स्वरूप अवश्य करें।

साधक दैनन्दिनी के प्रकाशित होने तक किसी कापी अथवा रजिस्टर में उपरोक्त क्रम के अनुसार दैनन्दिनी बना ली जाय। और नव वर्ष के प्रथम दिन से ही इन नियमों का दृढ़ता पूर्वक पालन शुरू कर दिया जाय। नियमों का पालन कैसा हो रहा है, बीच-बीच में इसकी सूचना पत्र द्वारा शान्तिकुञ्ज भेजी जा सकती है। इन नियमों के पालन में जितनी दृढ़ता होती जाएगी, अन्तर्चेतना उतनी ही प्रकाशित होने लगेगी। विषय भोगों से अपने आप ही मन हट कर भगवान् में लगने लगेगा।

श्रेष्ठ साधकों एवं सन्तों ने भगवान् और भोगों में मूलभूत सात अन्तर बताए हैं। सन्तों का कहना है-

1. भगवान् को पाने के लिए अपनी इच्छा का तीव्र से तीव्रतर और तीव्रतम हो जाना पर्याप्त है, जबकि भोगों की प्राप्ति हमारी इच्छा से नहीं कर्मों से होती है।

2. भगवान् एक बार मिलने पर कभी भी नहीं बिछुड़ते, जबकि भोग मिलकर कभी बिछुड़े बिना नहीं रहते।

3. भगवान् जब मिलते हैं, सदा ही पूरे मिलते हैं। जबकि भोग जब भी मिलते हैं, सदा ही अधूरे मिलते हैं।

4. भगवान् को पाने की इच्छा अन्तःकरण में जगते ही पापों का नाश होने लगता है। जबकि भोगों के पाने की चाहत जगते ही पाप होने शुरू हो जाते हैं।

5. भगवान् को पाने की साधना में हम ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते हैं, त्यों-त्यों मन में शान्ति भरती जाती है। जबकि भोगों को पाने की कोशिश में मन अशान्त और विक्षिप्त होता चला जाता है।

6. भगवान् की याद करते हुए जीने वाला सदा सुख-शान्तिपूर्वक देह का त्याग करता है, जबकि भोगों की चिन्ता एवं चिन्तन में लगा हुआ व्यक्ति हमेशा ही अशान्ति एवं दुःखों से पीड़ित होकर मरता है।

7. भगवान् की याद करते हुए शरीर छोड़ने वाला सदा ही अपने आराध्य प्रभु के पास जाता है। जबकि भोगों को याद करते हुए शरीर छोड़ने वाला निश्चय ही नरकों एवं निम्न योनियों में जाता है।

सन्त सदा ही ये सच्चाई अपने जीवन में अनुभव करते रहे हैं। साधना पथ ही श्रेष्ठतम जीवन पथ है। परम पूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन का सार निष्कर्ष इसी एक वाक्य में कहा है। फिर भला हम सब इस श्रेष्ठतम जीवन मार्ग से क्यों चूकें। हम विचारशील हैं, विवेकवान हैं, इसके परख की कसौटी एक ही है कि हम साधक दैनन्दिनी की इस योजना में कितने उत्साह, निष्ठ एवं श्रद्धा से भागीदार बनते हैं। इस योजना में ही अखण्ड ज्योति एवं शान्तिकुञ्ज की ओर से साधकों के लिए नववर्ष की मंगलकामनाएँ निहित हैं। इसी में परम पूज्य गुरुदेव एवं परम वन्दनीया माताजी की दिव्य प्रेरणा एवं मंगलमय आशीष समाया है। साधक दैनन्दिनी के इन चौबीस नियमों को आपने किस तरह धारण-ग्रहण किया, इसकी सूचना शान्तिकुञ्ज हरिद्वार के पते पर अवश्य दें। ध्यान रहे ये चौबीस नियम ही चौबीस अक्षरों वाले गायत्री महामंत्र की साधना की सफलता के लिए आपका मार्ग प्रशस्त करेंगे।


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