इस युग की सर्वोपरि आवश्यकता −चरित्र−निर्माण

January 2003

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मनुष्य सृष्टि का सबसे विचित्र एवं विलक्षण प्राणी है। उसका विरोधाभासी स्वरूप उच्चतर एवं निम्नतर प्रकृति का अद्भुत समुच्चय है। एक ओर जहाँ उसमें दिव्य सम्भावनाएँ भरी पड़ी हैं, वहीं दूसरी ओर पाशविक प्रवृत्तियों का बाहुल्य भी उसके अस्तित्व का एक कटु सत्य है। इसी आधार पर श्रीअरविन्द ने सामान्य मनुष्य को ‘मेण्टल एनीमल’ भी कहा है। ज्यादातर मनुष्य इसी सत्य को चरितार्थ करते हुए नर-कीटक, नरपशु एवं नर पिशाच स्तर का जीवन जीते हैं। वहीं कुछ समझदार एवं साहसी लोग अपनी प्रसुप्त दिव्यता को जगाने का प्रयास करते हैं और अपने देवस्वरूप को प्राप्त करने में सफल होते हैं। वस्तुतः यह चरित्र निर्माण की वह महान् प्रक्रिया है, जो उसे सृष्टि के अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ, ईश्वर के राजकुमार पद पर प्रतिष्ठित करती है। चरित्र निर्माण की इस प्रक्रिया में जहाँ व्यक्ति निर्माण का मर्म निहित है, वहीं समाज- संसार एवं विश्व के सुधार एवं निर्माण का सत्य भी इसमें विद्यमान है।

आज समाज एवं युग की अन्तहीन समस्याओं का मूल कारण चरित्र निर्माण के महान् कार्य की उपेक्षा ही है। मानव क्षणिक सुख-भोगों एवं क्षुद्र स्वार्थों की अंधी दौड़ में जीवन के इस सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य को भूला बैठा है। अतः बाह्य प्रगति के नये-नये प्रतिमानों को छूते हुए भी वह आन्तरिक अवगति, पतन एवं पराभव की पीड़ा से त्रस्त है, जो गम्भीर मनोरोगों से लेकर कलह, अशान्ति एवं गहन विषाद के रूप में उसके जीवन को दूभर किए हुए हैं। चरित्र निर्माण के अभाव में समाधान के ढेरों प्रयास जीवन के खाई-खंदकों को पाटने के असफल उपचार सिद्ध हो रहे हैं।

‘हाउ टू विल्ड केरेक्टर’ पुस्तक में स्वामी बुद्धानन्द लिखते हैं “आज हमें जिसकी सर्वोपरि आवश्यकता है, वह है- चरित्र निर्माण। इसको पूरा किये बिना हम चाहे जो करें,अस्तित्व के हर स्तर पर हमारी समस्याएँ बढ़ती ही जायेंगी। वैयक्तिक हो या पारिवारिक, राष्ट्रीय हो या अन्तर्राष्ट्रीय हर स्तर पर समस्याओं का अम्बार लगा रहेगा।” साथ ही वे कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि “ आज की चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में समस्याओं के समाधान के ढेरों प्रयास करना, किन्तु चरित्र निर्माण के महत्त्वपूर्ण कार्य को उपेक्षित करना मनुष्य की विवेकशीलता एवं जीवन दृष्टि पर गम्भीर प्रश्नचिह्न लगा देता है।”

चरित्र का यूनानी पर्यायवाची शब्द ‘केरेक्टर’ है। इसका अर्थ है- जगत् में अपने अस्तित्व को उत्कीर्ण करना अर्थात् जगत् में अपना अमिट प्रभाव छोड़ना। वस्तुतः चरित्र का यह प्रभाव व्यक्तित्व के सार तत्त्व को प्रतिबिंबित करता है, जो कि इसकी समग्रता से निःसृत होता है। यह दिलो-दिमाग के स्वयं सिद्ध गुणों का वह समुच्चय है, जिसके द्वारा व्यक्ति जीवन के सत्यों एवं शक्तियों को नियंत्रित करता है तथा रचनात्मक ढंग से नियोजित करता है। इस तरह जीवन की पूर्णता के महान् पथ पर आगे बढ़ता है और दूसरों को भी इस कल्याणकारी मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है।

इस तरह चरित्र शांत एवं ससीम व्यक्ति द्वारा अपनी अनन्तता एवं असीमता को चरितार्थ करने की प्रक्रिया से उद्भूत एक अलौकिक शक्ति है। यह स्वप्रकाशित ज्योति है, जो सूर्य के न रहने पर भी अपने आलोक का वितरण करती रहती है। यह वह अजेय शक्ति है जिसके साथ हारता हुआ योद्धा भी विजयमाला का वरण करता है। चरित्र मनुष्य में जागृत वह दिव्यता है, जिसके समक्ष मूर्खों के अतिरिक्त अन्य सभी का सिर झुक जाता है। चरित्र ही वह सतत् उद्दीप्त उत्प्रेरणा है, जो बड़े से बड़े प्रलोभनों एवं झंझावातों के बीच भी प्रदीप्त रहती है। यही वह अनश्वर एवं अटल आधार है, जहाँ से जीवन के अविनश्वर सत्य का बोध होता है। यह मनुष्य की ऐसी अमूल्य सम्पदा है जिसे कोई चुरा नहीं सकता, लूट नहीं सकता।

चरित्र के साथ व्यक्ति किसी भी तरह के वर्तमान एवं भविष्य का सामना कर सकता है। बिना चरित्र के न तो हमारा कोई सार्थक वर्तमान रहता है और न ही कोई आशापूर्ण भविष्य। वस्तुतः कोई भी राष्ट्र एवं समाज अपने चरित्र से अधिक मजबूत नहीं होता और कोई भी व्यक्ति अपने चरित्र द्वारा प्रदत्त सुरक्षा से अधिक सुरक्षित नहीं होता।

आज जब सच्चे इंसानों का अकाल सा हो गया है, मनुष्य अपने जीवन को निरर्थक एवं असुरक्षित अनुभव कर रहा है तथा राष्ट्र एवं विश्व में हिंसा, अशान्ति तथा अराजकता व्याप्त है। ऐसे में मानव की सबसे निर्णायक आवश्यकता चरित्र निर्माण बन गई है। वस्तुतः यही सच्चे मनुष्य के निर्माण का रसायन ऐसी है।

चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस ने ठीक ही कहा था कि प्रखर चरित्र के साथ व्यक्ति सच्चा इंसान बन जाता है और सच्चा इंसान ही अपनी समस्याओं का समाधान कर सकता है तथा दूसरों की भी समाधान में मदद कर सकता है। उनके शब्दों में “ जो इंसान सच्चा नहीं है, वह न तो अधिक देर तक गरीबी को झेल सकता है और न ही अमीरी को सम्भाल सकता है। क्योंकि चरित्र के अभाव में गरीबी उसे निष्ठुर बना देती है और अमीरी बर्बर।”

जीवन में चरित्र की आवश्यकता पर बल देते हुए स्वामी विवेकानन्द ने अपने ओजस्वी शब्दों में कहा था-”आवश्यकता चरित्र की है। इच्छा शक्ति के सशक्तिकरण की है। इच्छा शक्ति का सतत् अभ्यास करते जाओ, यह तुम्हें ऊँचा उठायेगी। यह इच्छा सर्वशक्तिमान है। कठिनाइयों की दुर्भेद्य दीवारों को चीरकर आगे बढ़ने की शक्ति चरित्र में ही है।” साथ ही चरित्र के मनोवैज्ञानिक स्वरूप एवं इसके निर्माण के आधारभूत घटकों को स्पष्ट करते हुए स्वामी जी लिखते हैं -”मनुष्य का चरित्र उसकी वृत्तियों का सार है, उसके मन के झुकाव का योग है। हम वही हैं जो हमारे विचारों ने हमें बनाया है। विचार जीवित रहते हैं,वे दूर-दूर तक यात्रा करते हैं। अतः जो तुम सोचते हो, उस पर ध्यान रखो।” प्रत्येक कर्म जो हम करते हैं, प्रत्येक विचार जिसका हम चिंतन करते हैं, चित्त पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं। प्रत्येक क्षण हम जो होते हैं, उसका निर्धारण मन के इन प्रभावों द्वारा निर्धारित होता है। प्रत्येक मनुष्य के चरित्र का निर्धारण इन प्रभावों के सार योग से होता है, यदि प्रभाव अच्छे हों तो चरित्र अच्छा होता है और यदि बुरे तो चरित्र बुरा होता है।

इस तरह कोई भी व्यक्ति सद्चिंतन एवं सद्कर्मों द्वारा चरित्र का निर्माण कर सकता है,किन्तु निर्माण के बाद इसे खो भी सकता है। अतः चरित्र को सतत् पोषण की आवश्यकता होती है, जैसे कि जीवित रहने के लिए सतत् श्वाँस की जरूरत होती है। वस्तुतः चरित्र निर्माण का मर्म अनुशासित जीवन में निहित है। संत तिरुवल्लुवर के शब्दों में - ‘अनुशासन जीवन से भी अधिक कीमती है, क्योंकि उसी से मनुष्य जीवन मूल्य प्राप्त करता है। अनुशासन के अभाव में जब हम उच्च आदर्शों एवं मूल्यों के अनुरूप जीवन को संगठित करने में विफल हो जाते हैं तो हम अन्दर से विघटित हो जाते हैं और बाहरी तौर पर समाज से समायोजन कर पाने में विफल हो जाते हैं।’

चरित्र निर्माण में श्रेष्ठ चिंतन का जहाँ अपना महत्त्व है, वहीं श्रेष्ठ आचरण इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। जहाँ चरित्र आचरण का निर्धारण करता है, वहीं श्रेष्ठ आचरण द्वारा चरित्र का गठन होता है। चरित्र निर्माण में नैतिक आचरण की अक्षुण्णता तभी साधित हो सकती है, जब जीवन का लक्ष्य तथा इसकी परिपूर्णता का खाका स्पष्ट हो, क्योंकि तभी अपने जीवन के उच्चतम विश्वासों एवं आस्थाओं को मूल्य निष्ठ की कसौटी पर कसने का साहस एवं उत्साह उभर पाता है।

इस तरह चरित्र निर्माण आत्म निरीक्षण, आत्मशोधन एवं आत्म विकास की महान् प्रक्रिया है,जो श्रेष्ठ चिंतन व आचरण द्वारा पुष्ट होती है तथा इन्हें प्रभावित करती है। यह सतत् श्रेष्ठ व अवाँछनीय तत्त्वों के विभेद की प्रक्रिया है, जिसमें श्रेष्ठ के वरण एवं धारण करने तथा अवाँछनीय तत्त्वों को त्यागने की तत्परता बरती जाती है। अतः यह दैनन्दिन जीवन में नित्य प्रति सद्गुणों को अभ्यास द्वारा आदत में शुमार करने की प्रक्रिया है।

इस तरह अनुशासित जीवन पद्धति द्वारा अनगढ़ मन को अभ्यास द्वारा सुगढ़ बनाया जाता है और क्रमशः अन्तर्निहित दिव्यता के जागरण का मार्ग प्रशस्त होता है तथा निम्न प्रकृति आध्यात्मिक या दिव्य प्रकृति में रूपांतरित होती जाती है। कन्फ्यूशियस के शब्दों में -’ यही सर्वोच्च उपलब्धि है, जब हम अपने-अपने नैतिक अस्तित्व के केन्द्रीय तत्त्व में स्थित हो जाते हैं, जो हमें ब्रह्मांडीय व्यवस्था से जोड़ता है तथा व्यक्ति केन्द्रीय समस्वरता को प्राप्त होता है।

गीताकार के शब्दों में ‘तब व्यक्ति बाह्य विषय वस्तुओं की कामना से मुक्त हो जाता है तथा मन आत्मा में ही स्थिर हो जाता है। यही चरित्र की परिपूर्णता है, जो अनुशासित एवं साधनामय जीवन का चरमोत्कर्ष है।’

यही चरित्र निर्माण की वह महान् प्रक्रिया है, जिसमें इस सुरदुर्लभ मानव जीवन की सार्थकता का मर्म बोध निहित है। यह अपने सुधार द्वारा समाज सुधार एवं विश्व निर्माण की सार्थक प्रक्रिया भी है। इसी को जीवन का एक आदर्श मंत्र घोषित करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने युवाओं को ‘बी एन्ड मेक’ अर्थात् पहले स्वयं को गढ़ो और फिर दूसरों को इस साँचे में ढालो, का उद्घोष किया था।

महाकाल का संदेश

परमपूज्य गुरुदेव ने जीवन भर जनकल्याण हेतु साहित्य−सृजन किया, उनके तप एवं ज्ञान का निचोड़ उनके साहित्य में है। सभी लोगों तक यह ज्ञानगंगा पहुँचे, इसीलिए ‘पं॰ श्रीराम शर्मा आचार्य वाङ्मय’ का प्रकाशन किया गया है। लाखों ने इसे पढ़कर जीवन धन्य बनाया है। हर घर में वाङ्मय की स्थापना होनी चाहिए, परिवार के लिए यह अमूल्य धरोहर एवं विरासत है।

यदि आपको भगवान ने श्री−संपन्नता दी है, तो ज्ञानदान कर पुण्य अर्जित करें। विशिष्ट अवसरों एवं पूर्वजों की स्मृति में पूज्यवर का वाङ्मय विद्यालयों, पुस्तकालयों में स्थापित कराएँ। विवाह, जन्मदिवस एवं अन्य उत्सवों पर अथवा पारितोषिकस्वरूप भी यह साहित्य अमूल्य भेंट सिद्ध होगा। आपका यह ज्ञानदान आने वाली पीढ़ियों तक का सन्मार्ग पर चलाएगा । जो भी इसे पढ़ेगा, धन्य होगा । शास्त्रों में कहा है−

सर्वेषामेव दानानाँ ब्रह्मदानं विशिष्यते। वार्यन्नगोमहीवासस्तिलकाञ्च सर्पिषाम्॥ मनुस्मृति 4/233

जल, अन्न, गौ, पृथ्वी, वस्त्र, तिल, सुवर्ण और घी, इन सबके दानों में से ज्ञान का दान सबसे उत्तम है।

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ज्ञानयज्ञः परन्तम। सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥ गीता 4/33

हे परंतप? द्रव्ययज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है, क्योंकि जितने भी कर्म हैं, वे सब ज्ञान में ही समाप्त होते हैं। ज्ञानदान सर्वोपरि पुण्य है, शुभ कार्य है।


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