सत्य छिपा पड़ा है परोक्ष के महासागर में

January 2003

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मानवीय मनःसंस्थान की संरचना ऐसी विचित्र है कि जब कोई संकट की घड़ी आती है, वह अपने प्रियजनों को सूक्ष्म तरंग भेजकर वह सूचित करता है कि कुछ अभूतपूर्व घटित होने वाला है। इस क्रम में समय अथवा दूरी संबंधी कोई व्यवधान उसके आड़े नहीं आता और जहाँ लक्ष्य कर उसे भेजा गया था, वहाँ पहुँचकर वह व्यक्ति को सूचना देता है कि उसके लिए सब कुछ दुरुस्त है, सो बात नहीं।

ऐसी कितनी ही घटनाओं का संकलन रुथ माँटगोमरी ने अपनी पुस्तक ‘इन सर्च ऑफ दि ट्रुथ’ में किया है। ऐसी ही एक घटना का उल्लेख करते हुए वे लिखती हैं कि सन् 1984 की एक रात थी। द्वितीय महायुद्ध चल रहा था। पैसिफिक सागर में तेरहवीं एयरफोर्स बटालियन के कमाँडर जनरल नेथान एफ॰ टूवीनिंग दुर्भाग्यवश युद्ध के दौरान अपने बेड़े से अलग−थलग पड़ गए। वे ‘एसपराइट साँतो’ एयरबेस के लिए अपने चौदह साथियों के साथ रवाना हुए थे, पर बेड़े के मुख्य जहाज से अचानक उनका संपर्क टूट गा। बहुत खोज की गई, पर उनका और उनके साथियों का कुछ भी पता नहीं चला।

जनरल नेथान की पत्नी उस समय अमेरिका में अपने घर में सो रही थी। निद्रा के बीच उसे ऐसा लगा कि उसके पति उसके पास खड़े हों और बेचैनीपूर्वक उसे जगा रहे हों। श्रीमती नेथान ने अपने पति का मुँह और हाथ स्पष्ट देखा। उसने पति के हाथ पकड़ने चाहे, पर तभी सब कुछ ओझल हो गया। उसकी नींद टूट गई। स्वप्न उसने पहले भी देखे थे किंतु स्वप्न विचित्र था। जाग जाने पर भी वह श्रीमती नेथान को इस प्रकार रोमांचित कर रहा था कि उसके शरीर के बाल सिहरकर खड़े हो गए थे।

उसके बाद उसे नींद नहीं आई। पूरी रात जगाकर बिताई सवेरा हो चला था, तभी यकायक टेलीफोन की घंटी बजी।

फोन उसकी एक सहेली का था। उसके पति भी दक्षिणी पैसिफिक सागर पर सैनिक अफसर थे, इसलिए श्रीमती नेथान के हृदय में रात की रोमाँचकारी घटना ने फिर एक बार उत्तेजना उत्पन्न कर दी। उसने जल्दी−जल्दी में पूछा, तो पता चला कि सब कुछ ठीक है, पर सहेली ने साथ में यह भी कहा कि न जाने क्यों आज उसका मन बार−बार उसे ही (श्रीमती नेथान को) याद कर रहा है। उसने कहा कि वह उसके पास जल्द ही आ रही है। इतना कहकर फोन काट दिया।

श्रीमती नेथान सोच ही रही थी कि सहेली को शायद कोई बार कहनी थी, जिसे वह फोन पर नहीं कर सकती, अतएव वह यहाँ आ रही है। सहेली उसके घर आई, पर सामान्य वार्त्तालाप के अतिरिक्त और कोई बात नहीं हुई । श्रीमती नेथान ने इस संदर्भ में उससे पूछा भी, पर उसने इतना ही कहा कि उसे बराबर दो दिनों से उसी का स्मरण आ रहा था, इसलिए वह आई। इसके अतिरिक्त और कोई बात नहीं है। दो दिन रहकर जब उसकी सहेली वापस लौट गई, तब श्रीमती नेथान को सरकारी तौर पर यह जानकारी दी गई उसके पति अपने जहाज के साथ लापता हैं। उनकी खोज की जा रही है। खोज करने वाले अधिकारी नियुक्त कर दिए गए हैं। इस समाचार से उसका मन बड़ा व्यग्र हो उठा और वह चिंतित रहने लगी। रात में ठीक से इस चिंता के कारण सो भी नहीं पाती थी। एक सप्ताह बीता ही था कि सेना की ओर से पुनः उसके पास संदेश आया, जिसमें कहा गया था कि जहाज मिल गया है और श्री नेथान जल्द ही उससे मिलने आ रहे हैं। भेंट होने पर श्रीमती नेथान ने अपने पति को उस रात की घटना बताई । इस पर पति ने कहा कि सचमुच उस रात्रि को वे मुसीबत में पड़ गए थे और उसे (पत्नी को) बहुत याद कर रहे थे। इस विलक्षण सूचना का कारण क्या हो सकता है? इस संबंध में परामनोवैज्ञानिकों का कहना है कि वास्तव में इसका निमित्त वह भावनात्मक संबंध ही है, जिससे वे परस्पर जुड़े हुए थे। पति के व्याकुल होकर पत्नी को याद करने से उनकी मानसिक तरंगों ने अनजाने ही पत्नी के पास पहुँचकर अनहोनी की सूचना दे दी। यह पारस्परिक संदेश आदान−प्रदान का एक अदृश्य स्तर का साधन है, जो स्वतः संपन्न होता रहता है। यह कितने आश्चर्य की बात है कि जिस ऑफिसर ने नेथान की खोज की, वह उसकी पत्नी की सहेली का पति ही था। आखिर उसकी पत्नी को वहाँ जाने के लिए किसने प्रेरित किया? यह सब ऐसे रहस्य हैं, जो मनुष्य को बताते हैं कि जीवन में जो कुछ प्रकट है, वही सत्य नहीं है, वरन् सत्य का सागर अदृश्य में छिपा हुआ है और वह विचित्र संयोगों के मध्य प्रकट हुआ करता है।

अपनी उपर्युक्त पुस्तक में इस घटना का उल्लेख करते हुए रुथ माँटगोमरी लिखती हैं कि युद्धों के समय मानसिक हलचल अचानक प्रखर हो उठती है। उस समय ऐसी अतींद्रिय अनुभूतियाँ होना आश्चर्य की बात नहीं। युद्ध के मैदान में लड़ने वाले सैनिक और उनके सगे−संबंधियों के बीच एक प्रगाढ़ अतींद्रिय संबंध स्थापित हो जाता है, वही इन अतिमानसिक अनुभूतियों का कारण होता है।

द्वितीय विश्वयुद्ध की ही एक अन्य घटना की चर्चा करते हुए वे अपनी उसी पुस्तक में लिखती हैं कि अमेरिका के वी॰ एलेक्सिस जॉनसन, जो पूर्व में चैकोस्लोवाकिया और थाईलैंड के राजदूत रह चुके थे, उन्हें जापान का राजदूत नियुक्त किया गया । वे मुकडेन नगर में रह रहे थे। युद्ध की आशंका से बच्चों को स्वदेश भेज दिया गया था। उनकी पत्नी कैलिफोर्निया के लैगुना बीच में रहती थी।

इस मध्य श्रीमती पेट्रोसिया जॉनसन ने जापान के समाचार जानने के लिए कई बार अपना रेडियो ऑन किया, पर रेडियो ने वहाँ का मीटर पकड़ा ही नहीं। एक दिन पड़ोस की एक स्त्री ने बताया कि उसका रेडियो जापानी प्रसारणों को खूब अच्छी तरह पकड़ता है। तीन महीने तक श्रीमती जॉनसन ने इस ओर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। एक दिन अचानक उसे रेडियो सुनने की इच्छा हुई। वह पड़ोसन के घर गई। रेडियो का स्विच घुमाया ही था कि आवाज आई, हम रेडियो स्टेशन मुकडेन से बोल रहे हैं। अब आप एक अमेरिकन ऑफीसर कैदी वी॰ जॉनसन को सुनेंगे।

विस्मयविमूढ़ पेट्रोसिया एकाग्रचित्त बैठ गई। अगले ही क्षण जो आवाज आई, वह उसके ही पति की थी। वे बोल रहे थे मैं वी॰ एलेक्सिस जॉनसन मुकडेन से बोल रहा हूँ। जो भी कैलिफोर्निया, अमेरिका के नागरिक इसे सुनें, कृपया मेरा संदेश मेरी पत्नी पेट्रोसिया जॉनसन या मेरे माता पिता श्री एवं श्रीमती कार्ल टी॰ जॉनसन तक पहुँचा दें और बता दें कि मैं यहाँ कैद में हूँ। स्वस्थ हूँ। खाना अच्छा मिलता और आशा है कि कैदियों की अदला−बदली में शीघ्र ही छूट जाऊँगा। अपनी पत्नी और बच्चों को प्यार भेजता हूँ।

दो माह बाद जॉनसन कैदियों के आदान−प्रदान में छूटकर आ गए। पेट्रोसिया पति से मिलने गई तो वहाँ उसे पति से थोड़े समय के लिए ही मिलने दिया गया, क्योंकि कुछ समय बाद जॉनसन को तुरंत जहाज पर जाना था। पेट्रोसिया को थोड़ी ही देर में घर लौटना पड़ा। उसकी सहेलियाँ उसे घुमाने ले गई, पर अभी वे एक सिनेमा में बैठी ही थीं कि पेट्रोसिया अचानक उठकर बाहर आ गई और अपने घर का फोन मिलाया तो दूसरी ओर से श्री जॉनसन बोले और बताया कि मैं घर पर हूँ, मुझे जहाज में नहीं जाना पड़ा। पेट्रोसिया सिनेमा छोड़कर घर चली आई।

तीन माह तक कभी भी रेडियो सुनने की आवश्यकता अनुभव न करना और ठीक उसी समय जबकि पति संदेश देने वाले हों, रेडियो सुनने की अंतःकरण की तीव्र इच्छा का रहस्य क्या हो सकता है? कौन सी शक्ति थी, जिसने पेट्रोसिया को सिनेमा के समय फोन पर पहुँचने की प्रेरणा दी। जब इन बातों पर विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि कोई ऐसी अदृश्य शक्ति है अवश्य, जिसने मानवमात्र को एक भावनात्मक संबंध में बाँध रखा है। हम जब तक उसे नहीं जानेंगे, हमारी जन्म−मरण की अनंत यात्रा चलती ही रहेगी। मानव जन्म की सार्थकता उन अविज्ञात रहस्यों को सुविज्ञात बनाने और उस मूल को जानने में है, जो इन रहस्यों की जड़ में हैं और जो समग्र दृश्य−अदृश्य जगत के प्राण हैं।

मनःसंस्थान, हृदय या अंतःकरण, यह आस्था का केंद्र है। भाव−संवेदनाएं यहीं से उठतीं, उभरतीं और अपनों तक प्रसारित होती रहती हैं। अपरिष्कृत स्थिति में जब यह ऐसे करतब कर सकता है तो परिष्कार की दशा में यह कितना दिव्य होता होगा और कैसे आश्चर्यजनक कारनामे करता होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। शुद्ध अंतःकरण भगवद्चेतना का निवासस्थान है। इस भाव−संस्थान को हम जैसे−जैसे निर्मल करते जाएँगे, हमारा दिव्य रूपांतरण होता जाएगा और हमारे लिए इस प्रकार की घटनाएं एकदम साधारण बनती जाएँगी, हम अध्यात्म को जीवन का एक अंग बनाएँगे। सचमुच अध्यात्म बड़ा ही विलक्षण एवं अविज्ञात रहस्यों का भाँडागार अपने अंदर समाए हुए है। हम उसका शोध करने का साहस तो जुटाएँ।


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