अकर्मण्यता के अतिवाद ने भारत को दीन, दयनीय और कायर बनाकर रख दिया था। अत्याचार सहने के वे आदी भी हो गए थे। परिस्थितियों से लाभ उठाकर मध्य एशिया की बर्बर जातियों को आक्रमण करने और नृशंसता बरतने का अवसर मिला और देखते−देखते भारत का बहुत बड़ा भाग दरिद्र तथा पराधीन हो गया।
चाणक्य ने इस अतिवादी दर्शन का डटकर विरोध किया और चंद्रगुप्त, समुद्रगुप्त जैसे अनीति से लड़ने वाले योद्धा तैयार किए। इसके उपराँत बर्बरों ने फिर सिर उठाया, तो मालव के एक छोटे राज्य अधिकारी यशोधर्मा ने वह कमान सँभाली। जनता में साहस भरा। भक्ति से मुक्ति की भ्राँत धारणाओं पर करारा प्रहार किया। उन्हें योद्धा और धर्मोपदेशक का दोहरा उत्तरदायित्व सँभालना पड़ा।
तथ्यों को जिसने भी समझा, उसने यशोधर्मा का पूरा साथ दिया और लगभग वही स्थिति पैदा हो गई, जो चंद्रगुप्त के समय में थी। उसने बर्बरों के हौसले पस्त कर दिए। कितने ही छोटे−बड़े युद्ध उसने लड़े और जीते। सबसे बड़ा कार्य उसने धर्मतंत्र के परिशोधन का किया, जो समय की आवश्यकता को देखते हुए अभीष्ट भी था।