एक चोर किसी सुनसान सड़क से गुजर रहा था। उससे आगे थोड़े फासले पर एक पथिक भी चला जा रहा था। तभी पीछे से दनदनाती हुई एक कार आई। पथिक बहरा था, हॉर्न की आवाज वह सुन सुन न सका और कार की चपेट में आ गया। भावी आशंका जान चालक गाड़ी सहित भाग गया। चोर भागा−भागा वहाँ पहुँचा तो देखा कि कुछ रुपये बिखरे पड़े हैं। पास पड़ी थैली को टटोला तो उसमें ढेर सारे नोट दिखाई पड़े। उसका मन−मयूर नाच उठा। जल्दी−जल्दी उसने नोट बटोरे और भागने को हुआ कि तभी राहगीर की करुण कराह उभरी। वह दर्द से बुरी तरह छटपटा रहा था। चोर के दिल के किसी कोने में छिपा देवता पथिक की तड़फड़ाहट सहन नहीं कर पा रहा था, किंतु दूसरे ही क्षण उसका दैत्य जागा, कुसंस्कार प्रबल हुए और वह भागने को उद्यत हुआ, मगर मानवीय करुणा तत्क्षण सक्रिय हुई, उसे रोका, विवेक ने समझाया। वह आगे बढ़कर पथिक को कंधों पर उठाकर घर ले आया, उसका उपचार कराकर फिर विदा किया।
इस मानवीय कर्त्तव्य−पालन से उसे जो आत्मसंतोष मिला, वह बड़ी−से बड़ी सफलता और सुखोपभोग से भी नहीं मिला था, इस अनुभूति ने उसका जीवन ही बदल दिया।