सृष्टि दिव्य ऊर्जा से ओतप्रोत है। इसके सारे क्रिया-व्यापार इसी ऊर्जा का ही परिणाम है। ऊर्जा के रूपांतरण के कारण ही सृष्टि के अनेक एवं असंख्य घटकों का निर्माण, विकास एवं विनाश होता रहता है। इस वैदिक सत्य को महान् ख्यातिलब्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन ने भी स्वीकार किया है। इस ऊर्जा की मात्रा जिसमें जितनी मात्रा में होती है वह इतना ही प्रखर एवं तेजस्वी होता है। परन्तु प्रखरता एवं तेजस्विता के लिए पात्रता की आवश्यकता होती है, ग्रहणशीलता की जरूरत पड़ती है। और इस ऊर्जा को ग्रहण करने के भिन्न तरीके होते हैं।
सामान्यतः मनुष्य एवं जीव जन्तु आहार के माध्यम से इस ऊर्जा को ग्रहण करते हैं। इन भोज्य पदार्थों में मूल रूप से ब्रह्मांडीय ऊर्जा ही परिव्याप्त रहती है। भोज्य पदार्थ पृथ्वी से इस ऊर्जा को अवशोधित करते हैं और पृथ्वी सूर्य से इसे ग्रहण करती है। समस्त ग्रह नक्षत्र ब्रह्मांडीय ऊर्जा से अपने जीवन यापन के लिए ऊर्जा प्राप्त करते हैं और पुष्ट व प्रखर बनते हैं। ऋषि कहते हैं कि भगवान् के इस ब्रह्मांड में कहीं भी ऊर्जा की कमी नहीं है। सर्वत्र विपुल मात्रा में ऊर्जा का संचरण हो रहा है, आवश्यकता तो केवल इसे अपने अन्दर समा लेने की क्षमता या पात्रता की है।
पंचतत्त्व को अपने वातावरण में धारण करने वाली इस पृथ्वी को रत्नगर्भा एवं उर्वर माना जाता है। परन्तु वर्तमान विज्ञान एवं टेक्नालॉजी के इस युग में इसकी स्थिति अत्यन्त शोचनीय हो गई है। एबी हेडन के अनुसार आज की पृथ्वी की परिस्थिति बड़ा ही संकटपूर्ण है। और इसका मुख्य कारण है इसके कई तत्त्वों का प्रदूषित हो जाना है। कार्ल सेगन के अनुसार जल में जहर घुल गया है, जमीन बंजर होती जा रही है। वायु विषाक्त हो गयी है तथा आकाशीय जैव विद्युत् तरंगें भी क्षतिग्रस्त होती चली जा रही हैं।
हेडन के अनुसार हमारी पृथ्वी रुग्ण और व्याधिग्रस्त हो गई है। इससे निदान के लिए यह उत्तरी ध्रुव के माध्यम से उतरती ब्रह्मांडीय ऊर्जा से सर्वप्रथम अपने आपको ठीक करती है, स्वयं का कायाकल्प करती है। हेडन अपने आत्मविश्वास के आधार पर कहती हैं कि यह विपन्न अवस्था ज्यादा समय तक रहने वाली नहीं है। उनकी भविष्य दृष्टि कहती है कि आने वाले दिनों में परिस्थितियाँ बदलेंगी और पार्थिव चेतना का विस्तार होगा। इससे धरती फिर से उर्वर होगी। इसके गर्भ से उत्पन्न होने वाले अन्नों में पोषक तत्त्वों की मात्रा में वृद्धि होगी। भोज्य पदार्थ विटामिन, वसा, लवण एवं कार्बोहाइड्रेट से युक्त होंगे। उसमें भरपूर ऊर्जा होगी, जिससे मानव जीवन भी स्वस्थ होगा। हेडन कहती हैं कि इक्कीसवीं सदी में धरती में एक नवीन प्रकार की ऊर्जा प्रवाहित होगी, जो जड़-जमीन, जीव-वनस्पति तथा मनुष्य को भी प्रभावित करेगी। इससे भोज्य पदार्थ भी पोषकयुक्त होंगे और मानव जीवन भी स्वस्थ व सम्पन्न होगा।
इस नूतन एवं दिव्य ऊर्जा का बोध सर्वप्रथम विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों के माध्यम से प्राप्त किया जा सकेगा। इन पदार्थों से शरीर को नई स्फूर्ति एवं शक्ति मिलेगी। इससे न केवल शारीरिक स्वास्थ्य एवं मानसिक स्थिति में ही बदलाव आएगा। बल्कि मनुष्य की प्रकृति में भी परिवर्तन परिलक्षित होगा। इसमें प्रकृति के अनेक नये आयाम प्रकट होंगे तथा चेतना में भी वृद्धि होगी।
इस नवीन ऊर्जा का अनुभव सबसे पहले शाक-सब्जियों के द्वारा होगा। उर्वर जमीन से प्राप्त कुछ हरे सब्जियों में तो ऐसी पोषण शक्ति मिल सकेगी, जो कि अब तक के अनुभव से परे होंगी। ये पोषक तत्त्व मनुष्य में नई प्रकार के प्रभाव डालेंगे। सबसे पहला प्रभाव होगा कि मन स्वस्थ, शान्त एवं स्थिर होगा। दूसरे प्रभाव में शरीर अधिक सक्रिय एवं जीवन्त होगा। हिमालय में कुछ ऐसी ही कन्द एवं शाक-सब्जियों का संकेत मिलता है, जिसे खाने के पश्चात् अनेकों प्रकार की दिव्य अनुभूतियों होती हैं। शरीर एवं मन स्वस्थ प्रसन्न रहता है। सम्भव है हेडन की भावी परिकल्पना इस सत्य को सार्थक कर दिखाए।
इन विशुद्ध आहार से चेतना परिष्कृत होगी। इससे जहाँ एक ओर बाह्य व्यक्तित्व में निखार आयेगा, तो दूसरी ओर आन्तरिक पट खुलेंगे। परिष्कृत चेतना की इन अवस्थाओं में स्वप्न सार्थक दिखेंगे। विधेयात्मक मनोवृत्ति के बढ़ने से नकारात्मक सोच घटेगी, तनाव, उदासी आदि कम होंगे। प्रसन्नता, हल्कापन एवं ताजगी का अहसास किया जा सकेगा।
एबी हेडन के अनुसार इस नवीन दिव्य ऊर्जा का धरती में प्रवेश इक्कीसवीं सदी के आगमन के साथ ही हुआ है। इसका संकेत बीसवीं सदी के विदाई के साथ ही मिलने लगा था कि इक्कीसवीं सदी कुछ विशेष लेकर आएगी। वह कहती हैं कि यह मात्र कपोल कल्पना नहीं है बल्कि यथार्थ एवं हकीकत है। इक्कीसवीं सदी में सर्वप्रथम दृश्य जगत् में कई अनोखी घटनाओं के साथ ही आहार का यह ऊर्जा स्रोत अनुपम एवं अद्भुत होगा। चूँकि ये खाद्य पदार्थ ऊर्जा एवं पोषक तत्त्वों से भरे होने के कारण कम मात्रा में भरपेट खाने के समान होंगे। अब ज्यादा खाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
आयुर्वेद की मान्यता को सत्य प्रकट करते हुए हेडन कहती हैं कि इससे व्यक्ति संयमी हो सकता है। कोई व्यक्ति यदि काफी मात्रा में सलाद खाता है तो उसे अब दो या तीन टुकड़ों में पर्याप्त पोषण मिल जाएगा। अतः उसे ज्यादा खाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। दो-तीन गिलास दूध के स्थान पर दो-तीन चम्मच से काम चल जाएगा। इसी प्रकार सभी प्रकार के भोजन में यह तथ्य क्रियान्वित होने लगेगा।
दिन में एक-दो रोटी या दो-तीन टुकड़े ब्रेड खाकर उतनी चुस्ती-फुर्ती के साथ मानसिक एवं शारीरिक कार्य किया जा सकता है जितना की कई बार भरपेट भोजन करने के बाद किया जाता है। कुछ विशिष्ट फलों एवं शाक-सब्जियों में वृत्तियों को परिष्कृत करने की क्षमता रखने वाली ऊर्जा विद्यमान होती है। व्यक्ति अपने मनोनुकूल भोज्य पदार्थ खोजेगा और इससे लाभान्वित होगा। कहीं माँसाहारी एवं मसालेदार आहार को प्रश्रय नहीं दिया जाएगा। सभी ओर सात्विक एवं शाकाहारी भोजन को प्राथमिकता मिलेगी। यही नहीं व्यक्ति अपनी भोजन सम्बन्धी जिन आदतों एवं रुचियों से बंधा हुआ है वह भी इस नई पद्धति से निजात एवं मुक्ति पा सकता है। वह भी एक नये सात्विक आहार की ओर आकर्षित हो सकता है। अतः सारे विश्व में एक धर्म, एक भाषा, एक संस्कृति के शंखनाद के सदृश्य एक सात्विक भोजन का प्रचलन बढ़ेगा। इससे संसार में सात्विकता की वृद्धि होगी और सभी ओर खुशहाली और प्रसन्नता दिखाई देगी। सभी इस नयी ऊर्जा से ऊर्जावान, प्रखर एवं तेजस्वी होंगे।