युगगीता−39 - कर्मयोग की परमसिद्धि−अंकःशुद्धि

January 2003

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(कर्म−संन्यास−योग नामक गीता के पाँचवें अध्याय की पाँचवीं )

युगगीता की पिछली कड़ी में पाठकों ने पढ़ा है कि योगेश्वर एक चिकित्सक−शिक्षक की तरह अपने प्रिय शिष्य अर्जुन का बड़ी कुशलता से उपचार कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि कर्मयोग न करने वाले के लिए तो संन्यास दुःख का ही कारण बनता है। वे बिना अहंभाव के, बिना किसी प्रकार की कामना के जीवन जीने की कला का अर्जुन को शिक्षण देते हैं एवं अपने उद्बोधन में सातवें श्लोक के माध्यम से उसे सच्चे योगी के लक्षण भी बता देते हैं। ये तीन लक्षण हैं−हर श्वास में योगमय जीवन जीते हुए अपनी बुद्धि−अंतःकरण को शुद्ध करते चलना (योगयुक्तो विशुद्धात्मा), अपने मन−इंद्रियों को अपने वश में करना (विजितात्मा जितेन्द्रियः) तथा सभी जीवों में वही परमात्मा समाया हुआ है, सतत यही अनुभूति करना (सर्वभूतात्मभूतात्मा) । ऐसा जीवन जीने वाले के कर्म बंधन का कारण नहीं बनते, ऐसा श्रीकृष्ण का स्पष्ट मत है (कुर्वन्नपि न लिप्यते)। आगे योगेश्वर कहते हैं कि ऐसा आत्मज्ञ व्यक्ति पंच ज्ञानेंद्रियों− कर्मेंद्रियों के द्वारा विभिन्न कर्म करता हुआ भी यही मानता है कि वह निर्लिप्त है एवं इंद्रियों का सारा व्यापार स्वतः चल रहा है। द्रष्टा स्तर के दिव्यकर्मी की मान्यता यह हो जाती है कि मैं कुछ भी नहीं करता (नैव किंचित् करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्−आठवाँ श्लोक)। तो फिर वह कर्त्ताभाव से मुक्त हो जाता है। वह जागरुकता की इस अवस्था में यह देखता और अनुभव करता है कि इंद्रियाँ ही विषयों में विचरण करती है (इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्− नवाँ श्लोक)। यह साधना की उच्चतम स्थिति है। अब आगे दसवें श्लोक से इस माह का स्वाध्याय आरंभ करते हैं।

कर्म ब्रह्म को अर्पित हों

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति यः। लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।

जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर कर्म करता है, वह जल में कमलपत्र की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता । (5/10)

अहंकार के भाव से मुक्त व्यक्ति जब अपनी आसक्ति को भी त्याग देता है तो वह ऐसी उच्चतम स्थिति में पहुँच जाता है कि वह जो भी कर्म करता है, मानो परमात्मा उन्हें स्वयं कर रहे हैं, ऐसा प्रतीत होता है। ऐसा व्यक्ति दिव्यकर्मी होता है एवं ब्रह्म में कर्मफल को सौंपकर और कर्त्तृत्वाभिमान को छोड़कर सारे कर्म करता है। श्री रामकृष्ण परमहंस नरेंद्र को लक्ष्य करके कहते हैं, ब्रह्म कैसा है, जानता है? जैसे वायु। दुर्गंध−सुगंध वायु के साथ आ रही है, किंतु वायु निर्लिप्त है। इसी तरह ब्रह्म भी निर्लिप्त है। भला−बुरा जीव के लिए है, सत्−असत् जीव के लिए है, ब्रह्म का इससे कुछ भी नाता नहीं। दीपक के सामने कोई भागवत पढ़ता है, कोई जुआ खेलता है, किंतु दीपक निर्लिप्त है। दुःख, पाप, अशाँति सभी जीव के लिए हैं, ब्रह्म तो निर्लिप्त है। इस निर्लिप्त आनंदस्वरूप ब्रह्म के साथ निज को अभिन्न मानना ही यथार्थ ज्ञान मोक्षत्व की प्राप्ति है। आगे वे कहते हैं, किंतु इस ब्रह्म में समर्पण बड़ा ही कठिन काम है। अहं को परमात्मा में विलीन कर देना अर्थात् मैं करता हूँ, ऐसी बुद्धि को छोड़कर कर्म को करना अज्ञानी ‘मैं करता हूँ’ ऐसी समझकर अपने कर्म को अहं के ऊपर स्थापित करता है और परोक्ष ज्ञानी अहं अभिमान छोड़कर फल सहित कर्म को ब्रह्म में स्थापित या अर्पित करते हैं। (श्रीमद्भगवद्गीता−स्वामी अपूर्वानंद ही रामकृष्ण शिवानंद आश्रम, बारासात, पं॰ बंगाल)।

अहंभाव से परे अक्षरपुरुष

मनुष्य ब्रह्म में समर्पण तब ही कर पाएगा, जब वह त्रिगुणातीत होगा। गुणों ने उसे अपना गुलाम बना रखा है। कभी हमें तमोगुण जड़ता में धर दबोचता है, कभी हमें रजोगुण की आँधी उड़ा ले जाती है और कभी सत्वगुण का आँशिक प्रकाश उसे बाँधकर रख लेता है। मनुष्य को इसी कारण सुख −दुःख, हर्ष−शोक, काम−क्रोध, आसक्ति−जुगुप्सा अपने वश में करते रहते हैं, उसे जरा भी स्वतंत्रता नहीं है। श्री अरविंद कहते हैं कि मुक्त होने के लिए मनुष्य को प्रकृति के कर्म से पीछे हटकर अक्षरपुरुष की स्थिति में आ जाना होगा। तभी वह त्रिगुणातीत होगा। त्रिगुणातीत अर्थात् स्वार्थपूर्ण अहंभाव से परे हो जाना। ऐसा व्यक्ति समाज का एक योगनिष्ठ कर्त्तव्यपरायण सेवक होता है तथा जीवन में संपादित उसकी सभी क्रियाएँ उत्साह एवं दिव्य प्रयोजन के साथ होती हैं। कर्मों में कुशलता और सौंदर्य के दर्शन होते हैं।

अहंकार रहित दृष्टिकोण ही हमारे भीतर बैठे सच्चिदानंद रूपी परमात्मा को−श्रेष्ठतम तत्व को अनावृत करता है। हम अपनी अपूर्णताओं से ऊपर उठकर जीवन के सभी कार्यों को अति सुँदर ढंग से संपादित करने लगते हैं। ऐसा व्यक्ति जब आसक्ति को त्यागकर (संगं त्यक्त्वा) , ब्रह्मार्पणपूर्वक (ब्रह्मण्याधाय) अपने कर्म करता है (कर्मणि करोति यः) तो वह ऐसा दिव्यकर्मी व्यक्ति बन जाता है, जिसने कर्त्ताभाव−अहंकार का समर्पण कर दिया हो। फिर वह कर्म करते हुए भी नई वासनाओं से नहीं बँधता और न ही पाप से लिपायमान ही होता है (लिप्यते न स पापेन) और ऐसी स्थिति में जल में रहने वाले कमलपत्र के समान जगत में अपनी स्थिति बनाए रखता है (पद् मपत्र−मिवाम्भसा) । काव्य की दृष्टि से अति सुँदर, विलक्षण स्तर के इस श्लोक में जो उपमा दी गई है, वह हमें गीता जी के दर्शन का वास्तविक रसास्वादन कराती है हम जल में कमल के समान रहें। कमल पंकज कहलाता है, पंक अर्थात् कीचड़ से जन्मा−कमल। वह न कीचड़ से लिप्त होता है, न जल से । वह तो बस कमल ही होता है, जिसकी तुलना विष्णु भगवान के नेत्रों से की गई है, जो शिवलिंग पर चढ़ाया जाता है। गीता का अध्यात्म हमें शिक्षण देता है कि हम उच्चस्तरीय चैतन्य में व्याप्त सत्ता के प्रति अपने अहंकार को समर्पित कर और आसक्ति को छोड़ कर्त्तव्य कर्मों का संपादन करें। निर्लिप्त भाव से हम यदि कर्म करेंगे तो नईकडडडड वासनाओं से नहीं बँधेंगे, न ही पाप हमें बंधनों में उलझाएँगे (लिप्यते न स पापेन) लौकिक दुनिया जो पुत्रेषणा, वित्तेषणा, लोकेषणा से भरी पड़ी है, उसमें भी हम उनमें लिप्त न होकर कमल के पत्ते के समान बने रहेंगे। किंतु क्या यह संभव है? अहंकार रहित भाव में फिर व्यक्ति कर्म कैसे कर पाएगा? उत्पन्न नई वासनाएँ कहीं उसके व्यक्तित्व को जकड़ तो नहीं लेंगी? क्या वह कर्मों से अपने बंधनों को मुक्त कर सकता है? श्रीकृष्ण कहते हैं कि हाँ, यह संभव है एवं इसके लिए वे ग्यारहवें श्लोक में संकेत देते हैं−

कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि। योगिनः कर्म कुर्वन्ति संगं त्यक्त्वात्मशुद्धये॥

कर्मयोगी (दिव्यकर्मी योगिनः) आसक्ति को त्याग करके केवल इंद्रिय, मन बुद्धि और शरीर से भी अंतःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं। (5/11) यज्ञीय भाव से किए गए कर्म पूर्ण समर्पण भावपूर्वक संपन्न होते हैं। ऐसे दिव्यकर्मी अपने आप को कर्म और उसके फल द्वारा लिप्त न होने देकर (उनसे आसक्त न हो, प्रभावित न होकर−संगं त्यक्त्वा) अपने मन, बुद्धि, ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों से मात्र प्रभु अर्पित होकर कर्म करते हैं (कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि) । वे समाज की, संसार की सेवा हेतु जीते है एवं यह दिव्यकर्म वे अपनी अंतःशुद्धि के लिए करते हैं (योगिनः कर्म कुर्वन्ति संगं त्यक्त्वात्म शुद्धये) कितना स्पष्ट निर्देश है। ज्यादा व्याख्या की जरूरत भी नहीं ।

संगं त्यक्त्वा

आसक्ति से मुक्ति −निवृत्ति की बात ‘संगं त्यक्त्वा’ के माध्यम से बार−बार गीता में आई है। यह दसवें एवं ग्यारहवें श्लोक में लगातार आई है। अहंकार और अहंकेंद्रित कामनाएँ दोनों ही मिलकर आसक्ति को परिभाषित करती हैं। इस भीतर बैठे दानव से जूझकर उससे मुक्ति पा लेना दिव्यकर्मी का एक बहुत महत्वपूर्ण कर्म होता है। इसके लिए वह अलग से कोई उपासना या कर्म नहीं करता। वह यह कर्म सहज रूप में करता हुआ अपनी वर्तमान वासनाओं का क्षय कर लेता है। संसार में संव्याप्त परमात्मसत्ता की सेवा करते करते वह मन, बुद्धि, इंद्रियों को शाँत व स्थिर कर लेता है और उस भावावस्था में पहुँच जाता है, जहाँ वह ध्यानस्थ हो जाता है, उसके हृदय की शुद्धि हो जाती है एवं इस शुद्ध अंतःकरण के साथ उसे अनंत शाँति की उपलब्धि है, जो निष्काम कर्म करते−करते एक दिव्यकर्मी लोकसेवी को प्राप्त होती है।

तिलक का जीवन

ऐसे कर्मयोगी, जो आसक्ति को त्यागकर जनहितार्थाय अपने कर्म करते रहते हैं, जनसामान्य को अपने आचरण से शिक्षण भी देते हैं एवं बड़ा आदर्श जीवन जीते हैं। लोकमान्य तिलक ‘केसरी’ और ‘मराठा’ समाचारपत्रों का संपादन करते थे। दोनों समाचारपत्रों की सारा राष्ट्र प्रतीक्षा करता था, क्योंकि उनमें जन−जन के लिए संदेश छिपा होता था। आजादी के आँदोलन को आगे बढ़ाने में इन दोनों ही समाचारपत्रों की बड़ी भूमिका थी। और दिन की तरह वे अपने समाचारपत्र का संपादन कर उसे अंतिम रूप दे रहे थे कि खबर आई−आपके बेटे की मृत्यु हो गई है। पत्नी परेशान हैं। तुरंत चले आएँ। आसक्ति से पूर्णतः मुक्त तिलक ने संदेशवाहक से कहा, बेटा, हमारे बेटे का मरना हमारा व्यक्तिगत दुःख है, किंतु ‘केसरी’ का इंतजार तो सारे देश को है। वह हमारा लोककर्म है। तुम शवयात्रा की व्यवस्था करो, हम संपादन करके अभी आते हैं। यदि यह कार्य रुक गया तो अखबार निकल नहीं पाएगा एवं लाखों व्यक्ति निराश होंगे। इन व्यक्तियों की उम्मीदों को हमारे चिंतन ने जिंदा रखा है, इसलिए हम इसे छोड़ नहीं सकते। संपादन में तिलक ऐसे लीन हुए कि समय अधिक हो गया। जब तक वे पहुँचे, बेटे को अग्नि दी जा चुकी थी। मरे हुए बेटे को वे देख तक नहीं पाए। ऐसे आदमी को कोई निष्ठुर भी कह सकता है, परंतु अपनी व्यक्तिगत वेदना सहकर भी जो लोक शिक्षण हेतु कर्म में रत रहे, वही सच्चा कर्मयोगी है। यहाँ ऐसे ही कर्मयोगी की ओर संकेत किया गया है, जो अपनी वेदना को व्यक्तिगत न मान राष्ट्रधर्म में निरत रहा। ग्यारहवाँ श्लोक जिस कर्मयोगी की ओर संकेत करता है उसका सर्वोच्च आदर्श बालगंगाधर तिलक हैं।

परमपूज्य गुरुदेव पं॰ श्रीराम शर्मा जी

परमपूज्य गुरुदेव की मातुश्री का देहाँत हो गया। 1971 के प्रारंभिक महीनों का प्रसंग था। 3-4 माह में ही उन्हें अपने घोषित प्रवास पर हिमालय चले जाना था। वे स्वयं विलासपुर में दौरे पर थे। उन दिनों उनके बड़े सघन दौरे राष्ट्र के कोने−कोने में चल रहे थे। टेलीफोन करने की कोशिश की गई, तार गया एवं तब तक के लिए एक वरिष्ठ प्रतिनिधि को केंद्र से भेजा गया, ताकि वे तुरंत लौट आएँ। पूज्यवर की माता को सभी प्यार से ताई कहते थे। उनने कहा कि जब तक हम पहुँचेंगे−आएँगे, तब तक हमारे लाखों कार्यकर्त्ता कार्यक्रम न हो पाने के कारण प्रतीक्षा में रहेंगे, निराश हो जाएँगे। अग्नि उनके आने की प्रतीक्षा के बाद प्रज्वलित कर दी गई। बाकी लोगों ने, पारिवारिक जनों ने यह काम पूरा किया। गुरुदेव अपना दौरा पूरा कर दस−बारह दिन बाद लौटे। आकर फिर शेष उत्तर कर्म पूरे किए। वंदनीय माताजी ने अपने अंदर की वेदना उन तक पहुँचाने का प्रयास किया कि लोक−व्यवहार की दृष्टि से उनको आ जाना चाहिए था। गुरुवर का कहना था कि लोक−मंगल के लिए, लोक−शिक्षण के लिए लोकसेवी जीता है। हमारे न आने से कोई फर्क भी नहीं पड़ा व क्षेत्र के कार्यकर्त्ताओं को निराशा भी नहीं हुई। कोई इसे निष्ठुरता कह सकता है, माँ के प्रति असम्मान भी कह सकता है, परंतु यह दिव्यकर्मी, लोकसेवी के कर्मयोग की पराकाष्ठा है, जिसे ग्यारहवें श्लोक में योगेश्वर ने ‘संगं त्यक्त्वा’ कहकर परिभाषित किया है। ऐसे व्यक्ति स्थितप्रज्ञ स्तर के महामानव होते हैं एवं जल में पड़े कमल के पत्ते के समान निर्लिप्त जीवन जीते हैं।

योगीराज श्री अरविंद

श्री अरविंद सात सौ पचास रुपये की नौकरी छोड़कर मात्र पिचहत्तर रुपये मासिक में नेशनल कॉलेज के प्राचार्य बने। उस जमाने का बड़ौदा महाराज के सचिव स्तर पर सात सौ पचास रुपये का वेतन आज के हिसाब से एक−डेढ़ लाख रुपये प्रतिमाह बनता है, किंतु उनने लोकहित के लिए कम वेतन में नेशनल कॉलेज में प्रशिक्षण देना अनिवार्य माना। इसके साथ−साथ वे ‘वंदेमातरम्’ का संपादन भी करते थे। उन्हीं दिनों उनकी शादी हुई थी। शादी के बाद पत्नी की कुशलक्षेम पूछकर वे अपने कक्ष में आकर लिखने बैठ गए। कम−से−कम उस रात तो वे अपनी पत्नी के साथ बैठकर बिताते । व्यावहारिक तो यही था। घोष बाबू की पत्नी उनकी देख−रेख करती थीं, क्योंकि उन्हें स्वयं की अधिक सुध तो रहती थी नहीं। वे मकान मालकिन भी थीं, आयु में बड़ी भी। उनने दो मालाएँ बनाई एवं कहा कि आप अपनी कलम हमें दीजिए। आज की रात आप चुपचाप जाइए व पत्नी के पास रहिए। दो मालाएँ हमने आपके लिए बनाई हैं। एक माला स्वयं पहन लीजिए, एक माला अपनी पत्नी को पहनाइए। आप इतने संकोची हैं कि अपनी पत्नी से भी माला पहनेंगे नहीं। रात भर बैठकर उनसे बात कीजिए। फिर कल आकर जो लिखना है, वह कार्य कीजिएगा।

श्री अरविंद अपनी पत्नी मृणालिनी देवी के पास चले गए। रात्रि ढाई बजे घोष बाबू की पत्नी की नींद खुली हो उनने देखा कि श्री अरविंद के कक्ष की बत्ती जल रही है और वे अंदर बैठे यथावत् लिख रहे हैं। श्रीमती घोष बाहर ताला लगाकर भी आई थीं, किंतु ये तो संभवतः गए ही नहीं। उनने पूछा तो श्री अरविंद बोले, हमने आपकी सारी बातें मान लीं, पत्नी को माला पहनाई, उससे बातें कीं। जब सारी बाते समाप्त हो गई तो वह भी चुप, हम भी चुप। हमने उससे पूछा कि हम संपादन कर लें तो वह स्वीकृति देकर सो गई। हम लौट आए। देखा बाहर ताला लगा है। क्राँतिकारी−उग्रवादी होने के नाते हमें छलाँग लगाना तो आता है। हम अंदर आ गए। देखा तो आपने हमारे कमरे में ताला लगा रखा है। हमने खिड़की देखी, आधी खुली थी। एक धक्का मारा तो वह भी खुल गई । बिना आपकी नींद को खराब किए हम अंदर आ गए व अपना कार्य करने लगे। आपकी बात भी मान ली एवं आपको जगाया भी नहीं। सारा देश ‘वंदेमातरम्’ की प्रतीक्षा कर रहा है। यदि हम न लिखते, तो कल ‘वंदेमातरम्’ प्रकाशित नहीं होगा। हमारी पत्नी तो एक दिन इंतजार भी कर लेगी। यह घटना श्री नीरोदवरण (जो आज भी श्री अरविंद आश्रम में हैं) के द्वारा ‘मृणालिनी देवी’ नाम से लिखी पुस्तक में उद्धृत है। व्यक्तिगत कार्य कितना ही बड़ा क्यों न हो, स्वयं का विवाह या उसकी प्रथम रात्रि ही क्यों न हो एक तरफ एवं देशहित एक तरफ । यह कर्मयोगी की राग से, आसक्ति से निवृत्ति है एवं लोक−शिक्षण हेतु कर्म के प्रति समर्पण की पराकाष्ठा है। परमपूज्य गुरुदेव अक्सर चर्चा में तिलक एवं श्री अरविंद के इन प्रसंगों को उद्धृत करके कहते थे कि आसक्ति से इस तरह की निवृत्ति किए बिना उच्चस्तरीय लोकसेवी बनना संभव नहीं है।

लोकसेवी की सिद्धि का मर्म

ग्यारहवें श्लोक की धुरी है, योगिनः कर्म कुर्वन्ति संगं त्यक्त्वा−दिव्य कर्मयोगी आसक्ति को त्यागकर सतत कर्म करते रहते हैं। ये कर्म उनके व्यक्तित्व से झरने वाली परमात्मसत्ता की चेतना द्वारा सहज ही होते रहते हैं। वे न किसी कर्म से आसक्त होते हैं, न उसके फल से। हमें इससे क्या मिलेगा, इसकी चिंता उन्हें नहीं होती। पर सहज ही ये कर्म करते−करते एक फलश्रुति, उपलब्धि, दैवी अनुदान उन्हें प्राप्त हो जाते हैं। ये हैं इंद्रिय, मन, बुद्धि और शरीर से किए गए इन कर्मों से मिलने वाली अंतःकरण की शुद्धि (आत्मशुद्धये) यह सबसे उत्कृष्ट उपलब्धि है और यह कर्मयोग की सिद्धि है। इसके प्राप्त होते ही हमें परमशाँति मिलती है, परमात्मसत्ता से तन्मयता मिलती है एवं हम ध्यान की पराकाष्ठा पर पहुँच जाते हैं।

ढेर सारी साधनाएँ, दुनिया भर के प्रपंच रचकर भी जो नहीं मिल सकता, वह अपने मन, बुद्धि, ज्ञानेंद्रियों, कर्मेंद्रियों से प्रभु अर्पित होकर कर्म करने से मिल जाता है। संसाररूपी परमात्मा के इस बगीचे को समुन्नत, सुँदर, व्यवस्थित बनाना ही हमारा कर्त्तव्य है। हम निज की तो सोचें, पर उसमें आसक्ति न हों, उसके लिए परेशान न हों। जो प्रभु की सेवा करता है, दरिद्रनारायण की सेवा करता है, प्रभु उसका ध्यान रखते हैं। परमपूज्य गुरुदेव कहते थे, ‘परमार्थ में ही सच्चा स्वार्थ है। लोकहित की वेदिका में हम कुछ पुष्प अपने कार्यों से समर्पित कर सकें, इससे बड़ा पुण्य कोई नहीं, इससे बड़ा स्वार्थ कोई नहीं। संकीर्ण स्वार्थपरता की तुलना में

लोकहित के लिए जीते हुए कर्म करना, बिना किसी आसक्ति के निर्लिप्त भाव से जीना यदि हमें आ जाए, तो हम ऋद्धि−सिद्धियों के राजमार्ग पर चल सकते हैं। पर न जाने क्यों हमें अंदर की उस शाँति की तुलना में, जो औरों के हित जीने में मिलती है, निरासक्त −मुक्त जीवन जीने से मिलती है, अशाँति में,तनावों−उद्वेगों में जीना ही पसंद है। इसीलिए तो हमारे कर्म भी उसी तरह के होते हैं एवं बंधनों में फंसकर जीना ही हमारी फिर नियति बन जाती है। इस अंदर की शाँति, कर्मयोग की परमसिद्धि की चर्चा अगले श्लोक के साथ अगले अंक में। (क्रमशः)


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