मानवाधिकार अध्यात्म की मान्यताओं से ही स्थापित होगा

January 2003

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मानव का सर्वप्रथम अधिकार है मानवीयता एवं स्वतंत्रता। वह स्वतंत्र अभिव्यक्ति एवं विचार चाहता है। मानव एवं मानव समाज का विकास इसी पर आधारित है। विकास की समस्त सम्भावनायें स्वतंत्रता में ही सन्निहित होती हैं। दासता एवं बन्धन उसे कुण्ठित एवं परमुखापेक्षी बना देते हैं। मानव की स्वार्थ लिप्सा एवं अहंकार मानवाधिकार को अनन्तकाल तक हनन करता रहा है। कबीलाशाही आदि व्यवस्था से लेकर राजशाही, सामन्तशाही, साम्राज्यशाही तथा आधुनिक साम्यवाद एवं लोकतंत्रवाद तक वह लहूलुहान होता रहा है। मानवाधिकार के लिए खूनी संघर्ष भी हुआ। नये-नये कानून एवं आधुनिक व्यवस्थायें भी बनीं परन्तु मानव मानवता का अधिकारी नहीं हो सका। सम्भवतः इसके आधुनिक नीति निर्माता मानव प्रकृति के विज्ञ नहीं थे। इसका समाधान आर्य ऋषियों के पास विद्यमान है।

छः लाख वर्ष पूर्व आदिमानव ने जब गुफाओं से निकलकर बस्तियाँ बनाकर रहना सीखा तो वह पाषाण युग से बढ़कर कृषि अथवा धातुयुग में प्रवेश कर चुका था। धातु के हथियारों की खोज ने उसे एक वंशीय व्यवस्था से कबीलाशाही युग में पदार्पण कराया। दिनों-दिन समाज बढ़ने लगा। उस समय या कबीले की जिम्मेदारी किसी व्यक्ति को सौंपा जाने लगा। इस तरह आदि मानव के कबीले में एक सरदार की नियुक्ति की प्रथा चल पड़ी। सरदार अपने कबीले की सुरक्षा हेतु हथियारबन्द सैनिक या प्रहरी तैनात करने लगे।

समाज में सरदार और सैनिक ये दोनों मिलकर शक्ति का केन्द्र बनते चले गये। गाँव की सीमाओं की सुरक्षा करने वाले ये सैनिक अवसर पाते ही आसपास की दूसरी बस्तियों पर आक्रमण कर देते। यहाँ से लूट का सिलसिला प्रारम्भ हुआ। लूट के उस सामान का बँटवारा सरदार करता था। इस प्रकार सरदार और सैनिक अधिक से अधिक शक्तिशाली और सम्पन्न होते चले गये। उपजाऊ भू-भागों पर भी आक्रमण होने लगे। भूमि का साझा अधिकार टूटकर शक्तिशाली वर्ग तक पहुँचने लगा। शक्तिशाली वर्गों ने अधिक उपजाऊ भू-भाग हथिया लिये तथा दुर्बल वर्गों को बंजर जमीन की ओर धकेल दिया गया। समानता मूलक आदि समाज बलशाली और दुर्बल वर्गों के बीच विभक्त हो गया। कृषियुग में पहुँचकर मानव समाज को बहुत सी वस्तुओं की आवश्यकता महसूस होने लगी। कृषियुग की कबीलाशाही व्यवस्था में इन सामग्री का निर्माण करने वाले कारीगर बनने लगे। कृषि के लिए हल, परिवहन हेतु नाव एवं गाड़ी तथा भोजन के लिए विभिन्न बर्तनों का निर्माण हुआ। धीरे-धीरे कारीगर वर्ग पेशेवर समुदायों में और फिर निम्न स्तर की जातियों में परिवर्तित कर दिये गये। इनके अधिकार क्षेत्र में केवल श्रम ही आया इसका उपभोग नहीं। सम्पन्न वर्ग इनका मनचाहा शोषण करने लगे एवं इनके अधिकारों को सीमित कर दिया गया। मानवाधिकार के हनन की प्रक्रिया का यह प्रारम्भ था। कृषियुग में प्रवेश से पूर्व सभी व्यक्ति मिलकर काम करते थे। सबका समान अधिकार था। कबीला प्रथा में यह समानता छिन्न-भिन्न हो गई। जिससे समाज में शोषण एवं शोषित वर्ग पैदा हो गए। एक वर्ग सम्पन्न होता गया तो दूसरा उतना ही कमजोर।

कबीलाशाही युग का आदमी अपने ही व्यक्तियों के अधिकारों का शोषण करने लगा। शक्तिशाली वर्ग अपने से कमजोर वर्ग के अधिकारों का हनन करके अनुचित लाभ उठाने की प्रवृत्ति से जुड़ता चला गया। इस तरह आरम्भिक मानव समाज की समानता धीरे-धीरे खण्डित हो गई। ईसा से दो सौ वर्ष तक रोम में दासों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हो गई थी। इसी कारण इन्हें विदेशों में बेचने का प्रचलन चल पड़ा। इटली में भी इनकी संख्या में भारी बढ़ोत्तरी हो गई थी। रोम के कापुआ नगर में एक बहुत बड़ा बन्दीगृह था। वहाँ पर उग्र दासों को बन्धक बनाकर रखा जाता था। अमानवीय अत्याचार के विरुद्ध फूट-विद्रोह बड़ा भयंकर एवं विकराल होता है। ठीक ऐसे ही यहाँ भी दासों ने स्वामियों के क्रूर अत्याचारों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। स्पेन और बाल्कन प्रायद्वीप भी इसकी चपेट में आ गये। दास और रोमन सैनिकों का यह संघर्ष छः माह से भी अधिक समय तक चला। ऐसी अनेक लड़ाइयां हुई। परन्तु चालाक स्वामियों के विरुद्ध सीधे-साधे दासों के संघर्ष में स्वामी ही विजेता होते थे। नवाबों और जागीरदारों से लेकर राजाओं तक ने अपने अधीन ऐसे कर्मचारी नियुक्त किये जो सामाजिक व्यवस्था के नाम पर प्रजा को लूटने एवं शोषण करते थे। राजशाही के बाद सामन्तशाही की स्थापना हुई जिसमें युद्धों के द्वारा अन्य देशों को जीतकर अपने क्षेत्रों में मिला लिया जाता था। मानव इतिहास कुछ और अग्रसर हुआ तो संसार साम्राज्यवादी युग में प्रवेश किया। यह साम्राज्यवादी चाहे मुस्लिम हो अथवा ईसाई साम्राज्य इसने भी पराजित जनता की स्वतंत्रता तथा मानवीय अधिकारों का नग्न शोषण किया। इसके पश्चात् लोकताँत्रिक व्यवस्था ने अपने पंख फैला दिये। साम्यवाद भी युगों तक सर उठाये रहा। परन्तु मानवीय अधिकारों की सिसकियाँ बन्द नहीं हुई। आज का बन्धुआ पुरानी दास प्रथा का ही नवीन संस्करण है। बीसवीं सदी के तथाकथित सभ्य कहे जाने वाले अंग्रेजों ने भारत के अलावा भी विश्व के अनेक देशों में मानवाधिकारों का खुला खेला है।

इसके पश्चात् राज्यसत्ता का अस्तित्त्व सामने आया। श्री अरविन्द के अनुसार राज्य एक ऐसी सत्ता है, जो बहुत अधिक सशक्त होने के कारण आन्तरिक दुविधाओं या बाह्य प्रतिबन्धों द्वारा कम से कम पीड़ित होती है। इसकी आत्मा या तो होती ही नहीं या फिर केवल प्रारम्भिक अवस्था में होती है। यह एक सैनिक, राजनैतिक और आर्थिक शक्ति है। यदि यह एक बौद्धिक और नैतिक सत्ता हो भी तो वह केवल एक थोड़े और अविकसित अंश में ही होगी। इसी कारण प्रायः राज्य सत्ता के द्वारा जनता का शोषण होता रहा है। श्री अरविन्द आगे कहते हैं-व्यक्ति राज्य की ही आत्म अभिव्यक्ति है। इसके द्वारा राज्य अपने अंगभूत व्यक्तियों की स्वतंत्र इच्छा, स्वतंत्र प्रक्रिया, शक्ति, प्रतिष्ठ और आत्म ख्यायन को अपने अधीन करने का विशेष रूप से प्रयत्न करता है। कालान्तर में यही स्वतंत्र एवं नैसर्गिक अधिकार मानवाधिकार के श्रेणी में आए। जब-जब राज्य अपने सदस्य व्यक्तियों से बढ़कर दावा किया है, संघर्ष हुआ है। प्रजा अपने अधिकारों के लिए लड़ाइयां लड़ी है। प्राचीन भारत में कंस, जरासंध, शिशुपाल आदि आततायी राजाओं के विरुद्ध विद्रोह को भी तत्कालीन समाज व्यवस्था ने उचित ठहराया। यूरोप में मानवाधिकार के संघर्ष का इतिहास बहुत पुराना है। यह मध्य युग तक बहुत उग्र हो उठा था। मैकियाबली प्रभृत विद्वानों ने प्रचलित मानवीय अधिकारों एवं मानवीय स्वतंत्रता के आन्दोलन को शिखर पर पहुँचाया।

नैसर्गिक न्याय पर आधारित अधिकार की परिकल्पना विश्वव्यापी रही है। भारत की सिंधु घाटी सभ्यता, पूर्वी एशिया की चीनी सभ्यता, दक्षिण पश्चिम में एशिया में दजला-फरात के मैदानों, मिस्र की नीलघाटी की सभ्यता तथा ग्रीस एवं रोम आदि सभ्यताओं में मूलरूप से मानव की स्वतंत्रता एवं मौलिक अधिकार की व्यवस्था है। हालाँकि यह अधिकार स्वार्थ लिप्सा के कारण दबा दिया गया। प्रारम्भ में राज्य को ईश्वरीय सत्ता का प्रतीक माना जाता था। कालान्तर में ईश्वरीय न्याय का स्थान मानवीय संवेदना और सचेतनता के निश्चित विधान ने ले लिया। अरस्तु तथा सन्त टॉम्स एक्विनाँस के अनुसार मनुष्य पूर्णता को प्राप्त कर सकता है। उसके अन्दर विकास की समस्त सम्भावनायें सन्निहित हैं। यदि इन सम्भावनाओं को अवरुद्ध न किया जाय तो निश्चित रूप से वह सर्वोच्च उपलब्धि हासिल कर सकता है। प्रत्येक मनुष्य का विकास मौलिक एवं स्वतंत्र ढंग से होता है। ह्यगो ग्रोसियस ने भी इसी विधान का समर्थन किया और प्रतिपादित किया कि यह विधान विश्व में व्याप्त सचेतनता का प्रतिबिम्ब है। यह नैतिक रूप से आधार रूप एवं आवश्यक भी है। 16 वीं एवं 17 वीं शताब्दी में मानवाधिकार का यह स्वर मानव को उसकी मौलिक स्वतंत्रता देने हेतु व्यापक प्रयास एवं उद्यम था।

गोसियस के नैसर्गिक विधान के सिद्धान्त को जर्मन विद्वान सेयुअल पपेनफोर्ड ने भी स्वीकार किया। इनके मतानुसार प्रत्येक मनुष्य में शान्ति पूर्वक जीवन की कल्पना होती है और इसलिए ही व्यक्ति अपने व्यक्तिगत अधिकारों के साथ-साथ शान्तिपूर्वक सामाजिकता में भी विश्वास एवं आस्था जताता है। पपेनफोर्ड का कहना है कि मनुष्य को अपने अधिकारों का उपयोग किसी की मौलिकता एवं स्वतंत्रता के हनन हेतु नहीं करना चाहिए। उन्होंने इसके लिए कुछ नियमों का उल्लेख किया है जैसे शारीरिक शोषण न करना, महिलाओं का सम्मान एवं सम्पत्ति का सदुपयोग आदि। मानवाधिकार की यह मान्यता विकसित होकर टॉमस हाब्स, स्पिनोजा, जॉन लॉक के विभिन्न सिद्धान्तों में प्रतिपादित हुई। इसी के आधार पर मानवीय अधिकारों की मान्यता का जन्म हुआ। इसी कारण मानव एवं समाज शान्तिपूर्ण एवं समृद्ध था।

प्रारम्भिक अवस्था में मानवाधिकार का उल्लेख महाभारत तथा बाल्मीकि रामायण में मिलता है। इसी की विशद् व्याख्या यूरोप में दृष्टिगोचर होती है। महाभारत के पश्चात् प्रथम विश्व युद्ध का प्रभाव इतना रहा कि जिसके परिणामों ने मानवीय संवेदना को झकझोर कर रख दिया। मनुष्य की वह उफनती संवेदना ही थी जिसने दुःखी व पीड़ित मानवता के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करके उसके अधिकारों को सुनिश्चित किया। आरम्भ में नैतिकता, सभ्य समाज की उदारता, जागरुक जन की विचारशीलता के कारण ही मानवाधिकार को मान्यता मिल सकी। इस तरह इसका विकास हुआ।

सर्वप्रथम मेग्नाकार्टा में कहा गया है कि किसी भी स्वतंत्र व्यक्ति के अधिकारों का हनन किया जा सकता है और न ही उसे किसी प्रकार दण्डित ही किया जा सकता है। इस उद्घोषणा के बाद अन्य कई अवधारणायें जन्म लीं। फ्राँस की क्रान्ति के पूर्व इंग्लैण्ड में सन् 1689 में बिल ऑफ राइट्स में मानवीय मूल्यों एवं समानता पर बल दिया गया। हेवियस कार्पस एक्ट भी न्याय व्यवस्था से सम्बन्धित मानवाधिकारों की स्थापना के महत्त्वपूर्ण सोपान रहा है। सन् 1776 में उत्तरी अमेरिका में हुए स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात् अमेरिका में मनुष्य मात्र के सम्माननीय जीवन हेतु मानवाधिकार का प्रस्ताव रखा गया। इसका प्रभाव यूरोप पर भी पड़ा। इस सम्बन्ध में जेम्स विल्सन का विचार है कि मानव के लिए प्राप्त अधिकार सार्वभौमिक मानवीय चेतना का प्रतिबिम्ब है जो सामान्य शाश्वत स्वतः स्पष्ट सिद्धान्तों पर आधारित है। फ्राँस क्रान्ति में मनुष्य के प्राकृतिक एवं हस्तान्तरणीय अधिकार पर जोर दिया गया। इस प्रकार प्राचीन काल के दैवीय विधान के मूलभूत अधिकार मध्यकाल तक आते-आते सम्पूर्ण मानवीय चेतना के प्रतिबिम्ब के रूप में उभरकर सामने आए।

26 जून 1945 के संयुक्त राष्ट्र की घोषणा ने मानवाधिकार को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ दिया। इसके अनुसार सभी देशों ने मानवीय गरिमा, समानता एवं विश्वबन्धुत्व की दिशा में एकजुट होकर कार्य करने का संकल्प लिया। 10 दिसम्बर 1948 में इसकी अंतर्राष्ट्रीय घोषणा हुई। जिसकी प्रस्तावना में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि स्वतंत्रता, न्याय एवं शान्ति की कल्पना विश्व मानव परिवार को प्राप्त मानवीय गरिमा, समान अनुल्लंघनीय अधिकार एवं समानता की स्वीकृति की आधारशिला है।

मानवाधिकारों के इतने प्रयासों के बावजूद मानव को मानवीय अधिकार प्राप्त नहीं हो सका। इसका कारण स्पष्ट करते हुए श्री अरविन्द का कहना है कि बौद्धिक युग में मनुष्य की आन्तरिक सत्ता को नहीं वरन् प्राणिक और भौतिक मन को प्रभावित करने के लिए बाधित किया गया है। उसने राजनैतिक और सामाजिक संस्थाओं में क्रान्तिकारी परिवर्तन उत्पन्न करने तथा मानव जाति के सामान्य मन के भावों और विचारों में एक ऐसा संशोधन लाने तक ही अपना प्रयत्न सीमित कर दिया है। जो इन संस्थाओं को व्यवहारिक रूप दे दें। इसने जाति की आत्मा की अपेक्षा कहीं अधिक मनुष्य जीवन के यंत्र और बाह्य मन पर कार्य किया है। इसने राजनैतिक, सामाजिक और वैध स्वाधीनता और समानता तथा संगठन की पारस्परिक सहायता को स्थापित करने के लिए अत्यधिक परिश्रम किया है।

श्री अरविन्द आगे कहते हैं- स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृभावना आत्मा की तीन दिव्यताएं हैं, ये वस्तुतः समाज के बाह्य यंत्र-विन्यास द्वारा अथवा मनुष्य के द्वारा जब तक कि वह केवल वैयक्तिक और सामाजिक अहंभाव में निवास करता है चहितार्थ नहीं हो सकते। जब अहंभाव स्वाधीनता की माँग करता है उसका परिणाम प्रतियोगिता पूर्ण व्यक्तिवाद होता है। जब उसका आग्रह समानता पर होता है तो पहले वह संघर्षशील बन उठता है। जो समाज स्वाधीनता को अपना आदर्श मानकर उसे प्राप्त करना चाहता है वह समानता को प्राप्त करने में असमर्थ होता है और जिसका लक्ष्य समानता है उसे स्वाधीनता का त्याग करना पड़ेगा।

स्वतंत्रता, समानता और एकता आत्मा के सनातन गुण हैं। इसी गुण एवं अधिकार के द्वारा ही मानव मानवता का पूर्ण अधिकारी हो सकता है। जिसका हनन कभी कोई नहीं कर सकता है। यही सच्चा मानवाधिकार है।


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