संस्कार ही संस्कृति का निमार्ण करते हैं। शिशु श्रीराम संस्कारपूर्ण वातावरण में धीरे-धीरे बड़े होने लगे। पिता पं. रूपकिशोर एवं माता दानकुँवरी ने अपने पुत्र के बचपन में होने वाले सभी संस्कार सम्पन्न कराए। जातकर्म से जो संस्कार प्रक्रिया शुरू हुई थी, वह नामकरण, निष्क्रमण से होती हुई चूड़ाकरण और विद्यारम्भ तक पहुँच गई। माता-पिता तो उन्होंने विविध संस्कारों से संस्कारित कर ही रहे थे, पर उनकी जन्म-जन्माँतरों से अर्जित की हुई संस्कार संपदा कम न थी। बहुत बाल्यावस्था से ही उन्हें जीवनतत्त्व का बोध था। वह स्वयं में जाग्रत् थे और विश्व को जागृति का देश देने आए थे।
प्रत्यूष की उज्ज्वल रक्तिम आभा देखकर आने वाले दिन के सम्बन्ध में एक निर्भ्रांत धारणा बनती है। बचपन के गुणों को देखकर भावी मंगलमय जीवन का भी एक सुन्दर पूर्वाभास पाना सम्भव होता है। कम-से-कम श्रीराम, जो बाद में हम सबके पूज्य गुरुदेव बने, के सम्बन्ध में यह बात निःसंकोच रूप से कही जा सकती है। उनकी सुगठित सुन्दर देह थी, गौर वर्ण था। दोनों नेत्र बड़े-बड़े और उज्ज्वल थे। अंग-प्रत्यंग से लावण्यमंडित और सम्पूर्ण मुखमंडल पर एक अपूर्व प्रभा छाई रहती। देखते ही प्यार करने की इच्छा होती। उनका मन सैकड़ों सुन्दर कल्पनाओं से पूर्ण था, हृदय स्नेहसिक्त, बुद्धि कुशाग्र, साहस अमित, अचिंतनीय उद्भावनी शक्ति, कार्यक्षमता असीम और उत्साह अदम्य और सबसे बढ़कर थी उनकी ईश्वर के प्रति उन्मुखता। जन्म से ही थे वे ध्यानसिद्ध, आत्मज्योति में सदा निमग्न। पूजा-प्रार्थना, आत्मानुसंधान में बचपन से ही उनकी रुचि एवं अधिकार थे। इन अनन्य-असाधारण संस्कृति पुरुष के जीवन के विविध अध्याय पढ़ने पर हम लोग पाएँगे कि ये सारी बातें अतिरंजित नहीं, बल्कि सत्य की तुलना में बहुत कम हैं।
बाह्य संस्कारों ने उनके आँतरिक संस्कारों को और अधिक प्रदीप्त-उद्दीप्त किया। बचपन में वे खेल-खेल में अपने संगी-साथियों के साथ ध्यान करने लग जाते। कभी-कभी तो यह ध्यान-निमग्नता इतनी बढ़ जाती कि वे घंटों अपने में डूबे रहते। जब उनका ध्यान टूटता, तो पता चलता कि साथ्रा के सारे बच्चे जा चुके हैं, पर उनके मुख पर गहन संतोष की आभा तैरती रहती। यज्ञ के प्रति भी उनकी अभिरुचि असाधारण थी। अपने घर से थोड़ी दूर वह जल से भूमि को पवित्र करके अपने साथियों के साथ बैठ जाते। संगी-साथी उनके निर्देश पर छोटी-छोटी लकड़ियों के रूप में समिधाएँ जुटाते और यज्ञ का कार्यक्रम प्रारम्भ हो जाता। इस बाल-क्रीड़ा का अंत बालक श्रीराम के हाथों प्रसाद-वितरण से होता। इस प्रसाद-वितरण के लिए वह अपने घर में दी जाने वाली खाने-पीने की वस्तुओं को बचाकर रखा करते थे।
जाति-भेद उनमें बचपन से ही न था। कभी-कभी तो वे अपने बाल मित्रों को समझाते हुए कहते, देखो! पैदा तो हम सभी शूद्र के रूप में होते हैं। न अच्छे का ज्ञान, न बुरे का ज्ञान, दृष्टि भी एकदम देह केंद्रित। सारी चिंता शरीर तक ही सीमित, बस सिर्फ खाने-खेलने का ध्यान, लेकिन माता-पिता के दिए गए संस्कारों से हम इस अवस्था से ऊपर उठते हैं। यज्ञोपवीत संस्कार के बाद द्विजत्व मिलता है। इस द्विजत्व में पुरुषार्थपरायणता हमें क्षेत्रीय बनाती है। अर्थोपार्जन करते हुए हम वैश्य का जीवनयापन करते हैं और यदि जीवन में सच्चे अर्थों में तपस्या-साधना का समावेश हो, तो फिर ब्राह्मणत्व पनपता है। अपनी बातें कहते-कहते वे एकदम जोश में आ जाते, देखना मैं एक दिन सच्चा ब्राह्मण बनूँगा। उनके बाल मित्रों को ये बातें प्रायः समझ में न आतीं और उन्हें समझाने लगते, तुम तो ब्राह्मण हो ही, अब और क्या ब्राह्मण बनोगे।
पर वह दिन भी आया, जब उन्होंने देखा कि पिताजी, माँ उप पारिवारिक जनों से कुछ सलाह-मशविरा कर रहे हैं। ध्यान से बातें सुनने पर पता चला कि यह चर्चा उन्हीं के बारे में हो रही थी। पिताजी कह रहे थे, अपना श्रीराम अब बारह साल का हो गया है, अब उसका यज्ञोपवीत हो जाना चाहिए। यूँ तो गाँव के प्रायः सभी ब्राह्मण परिवारों में बच्चों के यज्ञोपवीत वहीं गाँव-घर में सम्पन्न हो जाते हैं। यह यज्ञोपवीत संस्कार एक रस्म अदायगी की तरह हो जाता। इस रस्म में छुपी प्रेरणा एवं भाव अर्थहीन ही रह जाते।
पं. रूपकिशोर की चाहत थी, उनके पुत्र का यज्ञोपवीत संस्कार कोई ब्रह्मर्षि कल्प महान् व्यक्तित्व द्वारा सम्पन्न हो, ताकि यज्ञोपवीत की प्रेरणाएँ एवं भाव उनके पुत्र के जीवन में उतर सकें। इस क्रम में उनका ध्यान अपने पुराने सहपाठी एवं मित्र पं. मदनमोहन मालवीय की ओर गया। मालवीय जी को समूचा देश महामना के रूप में जानता था। वे थे भी ठीक वैसे ही। सच्चे अर्थों में ब्राह्मण एवं भारतीय संस्कृति की साक्षात् सजीव मूर्ति। बस बात तय हो गई। बालक श्रीराम को जब इसका पता चला, तो उनका चित्त उल्लास से भर उठा।
पिता-पुत्र दोनों अपने कुछ नजदीकी संबंधियों के साथ भगवान् शिव की नगरी काशी पहुँच गए। यहीं यज्ञोपवीत होना निश्चित हुआ था। महामना ने शुभ मुहूर्त का शोधन किया और बड़ी ही पवित्र घड़ी में यज्ञोपवीत एवं गायत्री दीक्षा सम्पन्न की। महामना मालवीय स्वयं उच्च कोटि के साधक एवं ऋषि थे। उन्होंने बालक में छिपे महासाधक एवं ब्रह्मर्षि को परख लिया। उन्होंने श्रीराम को पहले यज्ञोपवीत का मर्म समझाया, “यह यज्ञोपवीत कच्चे-पक्के सूत के धागे भर नहीं है। यह वेदमाता गायत्री की सजीव प्रतिमा है। जिसे छाती से लगाकर रखना, अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठावान् प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है। इसकी तीन लड़ों में त्रिपदा गायत्री सँजोई है। यज्ञोपवीत के नौ धागे गायत्री के नौ शब्द हैं। यज्ञोपवीत संस्कार का अर्थ इस महासंकल्प को धारण करना है कि अब से हमारा जीवन गायत्री मंत्र के आदर्शों पर ही चलेगा। इन आदर्शों पर हम सदा ही अडिग एवं अविचल रहेंगे।”
महामना ने इसके बाद श्रीराम को गायत्री महामंत्र की महिमा बताते हुए कहा, “यह ब्राह्मण की कामधेनु है। इसे बिना व्यतिरेक के जपते रहना। पाँच माला अनिवार्य, अधिक जितनी हो जाएँ उतनी उत्तम।” श्रीराम ने मालवीय जी का आदेश अपने हृदय में धारण कर लिया। उनने कसम खाई कि जीवनपर्यंत अपनी देवसंस्कृति के प्रति निष्ठावान् रहेंगे। यद्यपि चूड़ाकरण संस्कार के समय ही शिखाधारण सम्पन्न हो गया था, परन्तु यज्ञोपवीत के समय फिर से उसकी पुनरावृत्ति हुई और सबसे बड़ी बात कि महामना पं. मदनमोहन मालवीय सरीखे ब्रह्मर्षि ने उन्हें सूत्र के साथ शिखा का भी महत्व समझाया। उन्होंने बताया कि यह शिखा हमारी संस्कृति का ध्वज है, जिसे हम अपने सिर पर धारण करते हैं। शिखाधारण शिखर व्यक्तित्व बनने का, गढ़ने का संकल्प है।
महामना मालवीय की इस संस्कृति शिक्षा ने उनके बाल-मन में एक धुन जगा दी। देवसंस्कृति के शाश्वत प्रतीक शिखा एवं सूत्र को धारण करने के बाद उनमें एक तीव्र लगन लग गई कि वे अपना समूचा जीवन अपनी संस्कृति के अध्ययन-अनुसंधान में लगाएँगे। ऋषियों द्वारा प्रेरित-प्रवर्तित संस्कृति के रहस्यों का अनुभव करेंगे। उनकी यह अभीप्सा दिनों-दिन तीव्र होने लगी। उनका हृदय अपने जन्म-जन्मान्तर के मार्गदर्शक एवं परम सद्गुरु को पुकारने लगा।