गुरुदेव परब्रह्म

November 2000

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यज्ञोपवीत संस्कार के बाद से ही बालक श्रीराम की अंतरात्मा अपने सद्गुरु से मिलने के लिए विह्वल हो उठी। उन्होंने शास्त्रों-पुराणों के मर्मज्ञ अपने पूज्य पिता से सुन रखा था कि देव संस्कृति का वैभव-विकास सद्गुरुओं की देन है। इनकी तप-साधना का ही परिणाम है कि भारतीय धर्म एवं संस्कृति के साथ शाश्वत-सनातन जैसे विशेषण जोड़े जाते हैं। इन्होंने ही संस्कारों की भट्टी में गलाई-ढलाई कर सामान्य मानवों को देवमानव बनाया और जिनमें पिछले जन्मों की संस्कार सम्पत्ति थी, उन्हें गढ़-सँवार कर देवदूत, युगपुरुष एवं अवतार का स्वरूप प्रदान किया। गोरखनाथ को गढ़ने में मत्स्येंद्रनाथ की ही कुशलता थी। ज्ञानेश्वर का भव्य स्वरूप सोपानदेव के हाथों निखारा गया था। भगवान् श्रीराम एवं देवकीनंदन श्रीकृष्ण की दिव्यता के पीछे महर्षि वशिष्ठ, ब्रह्मर्षि विश्वामित्र और गुरु संदीपनि की तप-साधना आसानी से देखी-परखी जा सकती है। इसलिए तो अपनी संस्कृति ‘गुरुदेव परब्रह्म’ कहकर गुरु-चरणों में श्रद्धा से शीश नवाती है।

पिता के पावन मुख से यह गुरु-महिमा सुनकर उनके मन में अपने अदृश्य गुरु के प्रति श्रद्धा जाग उठी थी, पर उनके मन में पात्रता के सिद्धाँत के प्रति गहन आस्था थी। उनका सोचना था कि यदि कोई सुपात्र सत्पात्र है, तो उसे प्रकृति कभी वंचित नहीं करती। सद्गुरु सत्पात्रों को स्वयं ही ढूंढ़ निकालते हैं। कुपात्रों को भटकन ही पल्ले पड़ती है। अपने मुँह में नमक का टुकड़ा दबाए हुए चींटी की भाँति वे शक्कर के पहाड़ के समीप पहुँचकर भी उसकी मिठास से वंचित रह जाते हैं। पात्रता ही प्राप्ति की कसौटी है। लौकिक वैभव एवं आध्यात्मिक विभूतियाँ सत्पात्रों को ही मिलती हैं। शेष अपनी वंचना के चलते वंचित रह जाते हैं।

इस गहन आस्था को लिए वे नियमित संध्यावंदन व गायत्री जप में लगे थे। घर की एक छोटी-सी कोठरी को उन्होंने अपना उपासना गृह बना रखा था। रात्रि को एक-डेढ़ बजे के आस-पास वह उठकर स्नान आदि नित्य कर्मों से निवृत्त हो जाते। इन सब कामों में उन्हें डेढ़-दो घंटा लग जाता था। तदुपराँत संध्यावन्दन के अनंतर गायत्री उपासना का क्रम चलता, जो सूर्योदय के काफी समय बाद तक चलता रहता और सूर्योपस्थान, सूर्यार्घदान के पश्चात् वह अध्ययन एवं अन्य गृह कार्यों में लग जाते। सायं संध्योपासना एवं गायत्री जप भी उनकी नित्य गतिविधियों में शामिल था।

इस क्रम को चलते तकरीबन तीन वर्ष बीत गए। अब वह पन्द्रह साल के हो चले थे और तभी वह देवदुर्लभ मुहूर्त आ पहुँचा, जिसके लिए उनकी आत्मा चिर अभीप्सित थी। बसन्त पंचमी का पावन पर्व था। वातावरण में ऋतुराज बसंत की कृपा बरस रही थी। माता प्रकृति अपना पुरातन परिधान उतारकर नया पहनने की तैयारी कर रही थी। सभी जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, प्राणि-वनस्पति सबके सब एक नवीन प्राण चेतना से अनुप्राणित हो रहे थे। किशोर हो चले श्रीराम आज भी सदा की भाँति अपनी नित्य उपासना में संलग्न थे।

उनके सामने रखी पूजा की चौकी पर एक घृतदीप जल रहा था। जिसकी मद्धिम ज्योति उस छोटी-सी कोठरी को एक सात्विक प्रकाश से भर रही थी। पूजा की चौकी पर गुलाब, गेंदा एवं मोगरा के फूल सजे थे, जिनकी भीनी-भीनी सुगंध पूजा-गृह की पावनता को और भी अधिक पावन बना रही थी। उनके होठों से अस्फुट स्वरों में गायत्री महामंत्र उच्चरित हो रहा था। गायत्री महामन्त्र के चौबीस अक्षर उनकी समूची प्राण चेतना को स्पंदित कर रहे थे।

साधक और साधना परस्पर एकाकार हो चले थे कि तभी साध्य के रूप में एक ज्योतिपुंज प्रकट हुआ। इस ज्योतिपुँज में स्वर्गीय उजास थी और इसकी शीतल प्रभा में जीवात्मा के भय-तापों को हरने की क्षमता थी। धीरे-धीरे ज्योतिपुँज में स्वर्गीय उजास थी और इसकी शीतल प्रभा में जीवात्मा के भय-तापों को हरने की क्षमता थी। धीरे-धीरे ज्योतिपुँज ने मानव का आकार लिया। यह आकृति किसी आलौकिक तपस्वी एवं महायोगी की थी। साधनारत श्रीराम अपनी बंद कोठरी में इन देवपुरुष की अद्भुत उपस्थिति को देखकर निर्वाक् थे। उन्हें सूझ ही नहीं रहा था कि वे क्या बोलें और क्या करें ? फिर भी उनके मन-प्राण किसी अनजाने आध्यात्मिक प्रभाव से शीतल हो रहे थे। उनकी आत्मा अपने चिर सखा एवं परम स्नेही को पहचानने का प्रयास कर रही थी।

अभी वह कुछ और सोच पाते कि उस छवि ने बोलना प्रारम्भ किया व कहा, “हतप्रभ न हो पुत्र! हम तुम्हारे अपने हैं। सदा-सदा से अपने। देह के सम्बन्ध तो देह की परिधि में रहते हैं। देह के जन्मने पर पनपते और देह के विनष्ट होने पर नष्ट हो जाते हैं। मेरा तुम्हारा सम्बन्ध तो अन्तरात्मा का सम्बन्ध है। शाश्वत, अनादि और अनन्त, देश-काल की सीमाओं से परे। मैं ही वह हूँ जिसे तुम्हारी आत्मा ने पुकारा था। तुम मुझे ही पाना चाहते थे और मैं तुम्हें ही ढूंढ़ रहा था। बस प्रतीक्षा एवं विलम्ब इतना भर था कि तुम्हारा बचपन बीते, तो तुम्हें तुम्हारे दायित्वों का ज्ञान एवं भान कराया जाए।

उन महायोगी के ये शब्द आत्मा से निकले एवं आत्मा में प्रविष्ट हुए। जब सद्गुरु ने अपने शिष्य को पहचान लिया, तो सत्शिष्य को भला अपने सद्गुरु को पहचानने में देर कैसे लगती ? सद्गुरु देने के लिए आतुर थे, तो शिष्य ग्रहण करने के लिए तत्पर। एक अलौकिक भाव चेतना में दोनों ही प्रतिष्ठित थे। अंतरात्मा कह रही थी, अंतरात्मा सुन रही थी। विलक्षण संवाद था। जब अंतर्चेतना का सायुज्य हो चले, तो ऐसा ही संवाद होता है। ऐसी दशा में विवाद की गुंजाइश ही कहाँ रहती है ?

श्रीराम के रोम-रोम में, मन-प्राण के कण-कण में, अंतर्भावों में, समूचे अस्तित्व में गुरुदेव परब्रह्म गूँज उठा। यह समर्पण का पुण्य क्षण था। बड़े ही मधुर आध्यात्मिक परिणय की घड़ी थी। सार्थक अर्थों में देहातीत दो आत्माओं का मिलन था। यहाँ लौकिक कुछ न था, सब कुछ अलौकिक-ही-अलौकिक था। इन्हीं क्षणों में श्रीराम के मन में समर्पण की मौलिक परिभाषाएँ उपजीं, समर्पण अर्थात् अपने पूर्व परिचय का सर्वथा परित्याग। अब तो सद्गुरु का दिया परिचय ही अपना परिचय। अपनी देह-गुरु के कार्य का माध्यम, अपना मन गुरु की चेतना का वास स्थान, अपनी भावनाएँ गुरु प्रेम में निमग्न। यह परिभाषा विचारों के दायरे में कैद न थी। इसका स्वरूप क्रियात्मक था और था इस समर्पण के प्रति अटूट निष्ठावान् संकल्प।

सद्गुरु अपने शिष्य को पाकर धन्य थे और शिष्य अपने परम आत्मीय सद्गुरु को पाकर कृतज्ञ था। दोनों की चेतना भाव विह्वल थी। शिष्य की आँखों से चिरवियोग के बाद परम मिलन की भावना झर रही थी, तो सद्गुरु के नेत्रों से कृपा की ज्योति बरस रही थी। मिलन के इन प्रगाढ़ क्षणों में गुरु-शिष्य सम्बन्धों की शाश्वतता के ऊपर कालदेवता ने जो धूल डाली थी, वह झड़ने लगी। सब कुछ साफ हो उठा। जन्म-जन्माँतर प्रत्यक्ष होने लगे। पुनर्जन्म का रहस्य अनावृत होने लगा।


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