वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का प्रवर्तन, संपूर्ण विश्व को संस्कृति पुरुष गुरुदेव का दिव्य अनुदान है। सामान्यतया आध्यात्मिक साधनाओं को गुह्य, गहन और गोपनीय मानने की परंपरा रही है। इसी तरह देवसंस्कृति के विविध पहलुओं को श्रद्धा एवं विश्वास के दायरे में सीमित किया जाता रहा है। गुरुदेव ने पहली बार इस क्षेत्र में तर्क, तथ्य एवं प्रमाणसम्मत प्रयोगधर्मिता की आवश्यकता समझी। उन्होंने स्पष्ट किया कि विज्ञान और अध्यात्म की समन्वित शक्ति के आविर्भाव तथा उसकी समग्र प्रगति के लिए उपयोग करने का प्रयत्न जितना ही सफल होगा, उतना ही मानवी गरिमा को सुरक्षित और देवसंस्कृति को जीवित रहने का अवसर मिलेगा।
विज्ञान व अध्यात्म के समन्वयन के प्रयत्न गुरुदेव ने सन् 1972 के बाद से ही प्रारंभ कर दिये थे। इस क्रम में उन्होंने पहले-पहले गायत्री परिवार के उन परिजनों के साथ परिचर्चा की, जिनकी बौद्धिक पृष्ठभूमि वैज्ञानिक थी। इसके अलावा उन्होंने स्वयं आधुनिक विज्ञान के अनेकों ग्रंथों का गहन अध्ययन किया। सन् 1966 ई. अक्टूबर महीने में इस प्रसंग की चर्चा करते हुए उन्होंने स्वयं उन दिनों की गतिविधियों को स्पष्ट किया। उन्हीं के शब्दों में, “वैज्ञानिक अध्यात्मवाद के प्रवर्तन के संदर्भ में मैं देश के कई विद्वानों से मिला।” वह रामकृष्ण मिशन, रायपुर (म.प्र.) के स्वामी आत्मानंद की वैज्ञानिक अभिरुचि के व्यक्ति होने के साथ तपस्वी साधक एवं लोकसेवी भी थे। इन्होंने गुरुदेव को विज्ञान विषय से संबंधित कई उत्तम ग्रंथ उपलब्ध कराए।
विभिन्न अवरोधों एवं अविषय व्यस्तता के बावजूद उनका यह युगाँतरकारी कार्य चलता रहा, लेकिन इसका यथार्थ विकास उनकी सन् 1971 की हिमालय यात्रा के समय हुआ। हम हिमालय प्रवास का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए उन्होंने मार्च 1989 की अखण्ड ज्योति में लिखा, “हिमालय, गंगातट, एकाँत, जनसंपर्क पर प्रतिबंध जैसी कष्टसाध्य गतिविधियाँ अपनाने के पीछे एक रहस्य यह भी है कि वह प्रदेश एवं वह वातावरण ही उच्च आध्यात्मिक स्तर की शोधों के लिए उपयुक्त हो सकता है। स्थान की दृष्टि से वह स्थान अध्यात्म शक्ति तत्त्वों का ध्रुवकेंद्र या हृदय ही कहा जा सकता है, जहाँ हमें अगले दिनों जाना है। वहाँ ऐसी विभूतियाँ अभी जीवित है, जो इस महान् कार्य में हमारा मार्गदर्शन कर सकें। इस प्रकार की शोध-साधना अपने व्यक्तिगत वर्चस्व के लिए नहीं, विशुद्ध रूप से लोक-मंगल के लिए करने जा रहे है और जो कुछ हमें मिलेगा, उसकी राई-रत्ती सार्वजनिक ज्ञान के रूप में प्रस्तुत करते रहेंगे। जब तक जीवन शेष रहेगा, तब तक यही करना है।”
हिमालय प्रवास से वापसी के बाद गुरुदेव ने अपनी शोध के वैज्ञानिक प्रस्तुतीकरण के लिए विविध प्रयास किए। इन प्रयासों का स्वरूप स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा, “भौतिक विज्ञान का लाभ जनसाधारण को मिल सका और उसने अपनी महत्ता जन-मानस में स्थापित की। आज विज्ञानसम्मत बातों को ही सच माना जाता है, जो उस कसौटी पर खरी नहीं उतरती, उन्हें मिथ्या घोषित कर दिया जाता है। आस्तिकता, धार्मिकता तथा आध्यात्मिकता की मान्यताओं को हमें विज्ञान के आधार पर सही सिद्ध करने का प्रयत्न करना पड़ रहा है। वैज्ञानिक अध्यात्मवाद की एक नई दिशा का निर्माण करना पड़ रहा है।”
इस नई दिशा की विनिर्मिति पहले-पहले अखण्ड ज्योति के लेखों के माध्यम से हुई। बाद में उन्होंने ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की संस्थापना की। इस बारे में उन्होंने नवंबर 1976 की अखण्ड ज्योति में लिखा, “अखण्ड ज्योति परिजनों को यह जानकर हर्ष और गर्व होगा कि अध्यात्म और विज्ञान को जोड़ने वाले जो प्रतिपादन अब तक पत्रिका के पृष्ठों पर किए जाते रहे है, अब उन्हें प्रत्यक्ष प्रमाणित करने के लिए सुसंपन्न प्रयोगशाला खड़ी की जा रही है। अध्यात्म सिद्धाँत विज्ञान की कसौटी पर भी खरे उतरते है। उसमें अनेकानेक पक्षों को प्रयोगशाला में सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाएगा। इस परीक्षण से उन लोगों के मुँह बंद हो सकेंगे, जो अध्यात्म सिद्धाँतों को अंधविश्वास कहने में अपनी शान समझते है।”
बीते वर्षों के ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान में वैज्ञानिक ही नहीं, दार्शनिक एवं साहित्यिक शोधकार्य भी व्यापक मात्रा में संपन्न हुआ है। भारतीय संस्कृति के विविध पक्ष यहाँ की शोध के विषयवस्तु रहे है। ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के निदेशक के मार्गदर्शन में तकरीबन 30 से अधिक छात्र-छात्राओं ने देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों से एम.फिल, पी.एचडी एवं डि.लिट. उपाधियाँ अर्जित की है। वे शोध-उपाधियाँ दर्शन शास्त्र, अँग्रेजी साहित्य, हिंदी साहित्य एवं संस्कृत साहित्य आदि विविध विषयों में अर्जित की गई है। विषयों की विविधता के बावजूद इन सभी शोध-अध्ययनों का उद्देश्य भारतीय संस्कृति के ही किसी सुप्त एवं लुप्त पहल को उद्घाटित करना रहा है। किसी-न-किसी रूप में इनमें संस्कृति पुरुष की चिंतन-चेतना ही सक्रिय हुई है।
प्रायः परिजनों की जिज्ञासा ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान से प्रकाशित होने वाले वैज्ञानिक शोध प्रकाशनों के लिए रही है। गुरुदेव के जीवनकाल में भी यह जिज्ञासा यदा कदा मुखरित होती रहती थी। ऐसी ही एक जिज्ञासा के उत्तर में उन्होंने कहा, अभी समय नहीं आया है। कुछ पल चुप रहने के अनंतर वे फिर बोले, जानता है क्या है ब्रह्मवर्चस् की शोध ? इस प्रश्न का श्रोता से कोई समाधान न पाकर वह कहने लगे, मेरा एक सूक्ष्मशरीर (ज्ञातव्य हो कि गुरुदेव ने अपने पाँच सूक्ष्मशरीर विकसित किए थे, जिसे उन्होंने अपने पाँच वीरभद्रों की संज्ञा दी थी) हिमालय में हमेशा तप करता रहता है। इसके द्वारा मैंने अथर्ववेदीय परंपरा के अंतर्गत अगणित शोध कार्य संपन्न किए हैं इस क्रम में मैंने वैज्ञानिक अध्यात्म का नया स्वरूप गढ़ा है। पूर्णाहुति के बाद तुम लोगों के माध्यम से स्थूल जगत् में इसका प्रत्यक्षीकरण भी करवा लूँगा।
ऋषि वाणी सदा सत्य ही सिद्ध होती है। बुद्धिवादी इसे संयोग कहें या कार्यव्यस्तता, परंतु अनेक वर्षों तक किए गए परीक्षणों व इनसे उपलब्ध विधेयात्मक आंकड़ों के बावजूद इसका प्रकाशन नहीं बन पड़ा। हाँ, अभी कुछ ही दिन पहले शोध कार्य को नया स्वरूप देने के लिए एक रिसर्च प्रोजेक्ट हाथ में लिया गया। यह प्रोजेक्ट हैं, ‘च्ीलेपवसवहपबंस दक ठमींअपवनतंस त्मेचवदबमे विभ्नउंद नइरमबजे विससवूपदह श्रंचंए क्ीलंदं दक मसमबजमक लवहपब मगमतबपेमण्’ (फिजियोलॉजिकल एण्ड विहेवियरल रिसपान्सेज ऑफ ह्यूमन सब्जेक्ट्स फालोइंग जप, ध्यान एण्ड सेलेक्टेड योगिक एक्सरसाइजेस) यह शोध कार्य ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान के निदेशक एवं गुरुकुल विश्वविद्यालय के जीवन वान संकाय के प्रोफेसर बी.डी.जोशी के संयुक्त मार्गदर्शन में हो रहा है। इस शोध कार्य के अतिरिक्त ब्रह्मवर्चस के निदेशक के निर्देशन में अध्यात्म एवं यज्ञ विधा व आयुर्वेद के अब तक जुटाए गए शोध आंकड़ों को व्यवस्थित रूप देकर शोध पत्र तैयार किए जा रहे है। परिजन इस कार्य के प्रकाशित होने के बाद अनुभव करेंगे कि यह सब गुरुदेव द्वारा सूक्ष्म रूप में किए कार्य का ही स्थूल प्रत्यक्षीकरण है। सब कुछ उन्हीं के द्वारा नियत समय में, उन्हीं की निर्धारित योजना के अनुसार हो रहा है। वे सचमुच साँस्कृतिक संवेदना के मूर्त स्वरूप है। उनकी चेतना ही वैज्ञानिक अध्यात्मवाद के रूप में प्रवर्तित हो रही है।