संस्कृति के पुण्य प्रवाह को मिला नवजीवन

November 2000

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हिमालय की गहनता में ऋचाएँ गूँजीं, मंत्र मुखरित हुए और संस्कृति का पुण्य प्रवाह चल पड़ा। वैदिक संहिताएँ, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, पुराण, तंत्र, दर्शन आदि मिलकर इस प्रवाह को तीव्रगामी बनाते रहे। महर्षियों ने अपनी कठोर तप-साधनाओं के माध्यम से जीवन एवं अस्तित्व के विविध आयामों की खोज की। जीवन के सदुपयोग एवं सम्भावनाओं के मार्ग ढूँढ़े और सबका सार-निष्कर्ष बताते हुए कहा, “मनुष्य देहोऽयं क्षुद्रकामाय नेष्यते” अर्थात् मनुष्य की देह क्षुद्र कामों के लिए नहीं है। उन्होंने यह भी बताया कि जब क्षुद्र कामों और कामनाओं के पीछे भागते हैं, तो दुःख हमें लपेट लेता है, अवसाद हमें घेर लेता है, संताप का कुहासा हमारे समूचे जीवन पर छा जाता है।

संस्कृति के वेगपूर्ण पुण्य प्रवाह में एक समय समूचे भारत महादेश में रहने वाले नर-नारियों ने स्नान किया और इस संस्कृति सरिता में स्नान का सुफल “काक होहिं पिक, बकऊ मराला” के रूप में सामने आया। मनुष्यों में देवत्व उपजा, उभरा और निखरा। देवपुरुषों एवं महादेवियों को जन्म देने वाली संस्कृति देवसंस्कृति कहलाई। समूचे विश्व में इस तथ्य को सत्य के रूप में परखा गया कि इस संस्कृति की गोद में जो भी पला-बढ़ा, वह देव हुए बिना नहीं रहा।

भारत के इतिहास में वह सबसे शक्तिशाली समय था, जब समूची कौम अपनी पूरी मेधा में जलती थी और जब कोई कौम अपनी पूरी आत्मा में प्रगट होती है, तब वह कमजोर नहीं होती। उसमें बलशाली व्यक्तित्व एवं समर्थ-सक्षम तत्त्व पनपते हैं। हो भी क्यों न ? जब भी कोई कौम युवा होती है, ताजी होती है, बढ़ती होती है, शिखर की तरफ उठती होती है, जब किसी कौम के प्राणों में सूर्योदय का क्षण होता है, तब मनुष्य में देवत्व एवं धरा पर स्वर्ग के अवतरण की साक्षात् अनुभूति होती है। संस्कृति के पुण्य प्रवाह की पावनता के सान्निध्य में भारत देश ने उस युग को देखा और जिया। तब उसमें इतनी सामर्थ्य थी कि वह जहर को भी स्वीकार करे तो अमृत हो जाए। वह जिसको भी छाती से लगा ले, तो वह काँटा भी हो, तो फूल हो जाए और जिस रास्ते पर पाँव रखे, वहीं स्वर्ण बिछ जाए।

अपने देश में यह देवी सामर्थ्य तब तक रही, जब तक देशवासी देवसंस्कृति के सूत्रों को अपनाते रहे। अपनी अनूठी संस्कृति जननी की गोद में पलते-बढ़ते रहे और जब इन्होंने अपनी संस्कृति की उपेक्षा की, दिव्य गुणों ने, दैवी सामर्थ्य ने भी इन्हें ठुकरा दिया। संस्कृति का पुण्य प्रवाह भी मिलन हो गया। इसमें प्रदूषण की भरमार हो गई। इसका तेज लुप्त हो गया।

और इसी का परिणाम है कि भारतवर्ष कोई पिछले हजार वर्षों से बहुत कमजोर और दीन क्षणों में जी रहा है। जैसे सूर्यास्त हो गया। बस सिर्फ याद रह गई है, सूर्योदय की। सब ओर अँधेरा छा गया है। मन दीन-हीन हो गया है। पाँव रखते डर लगता है। नए मार्ग पर चलने पर भय होता है। पुरानी लीक पर ही घूमते रहना अच्छा मालूम पड़ता है। रूढ़ियां और मूढ़ताएँ ही आज सब कुछ हो गई हैं। नया सोचने में, नए विचार में, नई उड़ान में कहीं भी हिम्मत नहीं जुटती। ऐसे कमजोर क्षण में अमृत भी पीने में डर लगता है। पता नहीं जहर हो, अपरिचित, अनजान ! फिर पता नहीं इससे मैं बचूँगा कि मरूंगा ? हर तरफ दिखाई पड़ती है, एक भयातुरता।

ऐसे में संस्कृति के पुण्य प्रवाह के परिशोधन का संकल्प लेकर, नए सूर्योदय का देश लेकर एक स्वर मुखरित हुआ। हिमालय की गहनताओं में तप-साधना की प्रभा फिर से फैली। वेदों की सार, साधना-शक्ति के रूप में गायत्री का फिर से अवतरण हुआ। परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के रूप में संस्कृति के पुण्य प्रवाह में फिर से पावनता आई। उसमें आया ठहराव फिर से तीव्रगामी हुआ। सच ही है कि ऋषियों की वाणी को कोई ऋषि ही उद्भासित कर सकता है और ऋषि तो वही है, जिसने अपने भीतर विद्यमान परात्पर को जान लिया, अंतस् की भगवत्ता का बोध पा लिया। ऋषि-ग्रंथों की भाषा में कहें, तो चारों ओर बहते, भीतर बहते ‘ऋत्’ को पहचान लिया, विराट् अस्तित्व के कण-कण को जोड़ने वाले परम विराट् अस्तित्व के कण-कण को जोड़ने वाले परम अंतर्सूत्र को खोज लिया, पा लिया।

शाश्वत ऋचाओं की व्याख्याओं में पूज्य गुरुदेव ने जो कहा, वे स्वयं भी ऋचाएँ ही हैं। जैसे कोई निरंतर प्रवाहित अदृश्य ऊर्जाधारा, जो कभी भी, किसी भी युग में प्रकट होती है, तो केवल सम्यक् संबुद्ध पुरुषों की वाणी में ही। धारा एक ही है, जो कभी वेदों में, परम ग्रंथों में उत्ताल तरंगों-सी तरंगित हुई, तो आज अंतःसलिला से तीर्थमयी नदी बनती हुई प्रवाहित हुई है पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी के इन लयबद्ध, गहनतम लेकिन सुस्पष्ट विचारों में जिन्होंने संस्कृति के पुण्य प्रवाह को परिशोधित एवं परिष्कृत स्वरूप दिया है।

उनके ये वचन शाश्वत तो हैं ही, साथ ही समसामयिक भी हैं, क्योंकि आज के समय में जब अध्यात्म साँप्रदायिकता के जाल में उलझकर मोहरा भर बनकर रह गया है। धर्म आज राजनीति की घुसपैठ के कारण आँतरिक नहीं, आतंकी हो गया है। ऐसे में यह सवाल अपनी पूरी विकरालता के साथ सामने आ खड़ा होता है कि मात्र बाहरी यात्रा मनुष्य को आखिर ले जाएगी, तो कहाँ ? ........यंत्र मानवों की दुनिया में या परमाणु युद्ध से जली हुई जीवनविहीन धरती पर !

और मजे की बात तो यह है कि इन तमाम खतरों से अब पश्चिम में तो फिर भी कभी कहीं सच्चे अर्थों में भीतर की यात्रा में उतरकर किसी वास्तविक धर्म-संस्कृति को खोज लेने की तपस-सी उठती है, लेकिन अपने देश में जहाँ हर कोई स्वयं को ज्ञानी योगी मान बैठता है, तो वहाँ किसी खोज की कोई प्रेरणा ही नहीं उठती, क्योंकि गीता-उपनिषद् के सुने सुनाए सूत्र हैं तो सच में ही बड़े गूढ़, बड़े अर्थवान्, लेकिन उन्हें पढ़-सुनकर ही यह मान लेना कि हम सब जानते हैं, बड़ा घातक अहंकार है और यह अपने देश की छाती पर चट्टान-सा आ जमा है, जो अंतस् ऊर्जा को तरल नहीं होने देता, प्रवाहित नहीं होने देता।

और जब प्रवाह में ही जड़ता होगी, तो कैसे नए-नए मार्गों पर अन्वेषण के फूल खिलेंगे, कैसे प्रवाहित होंगे बाहरी सतह की शुष्कता के नीचे छुपे संस्कृति संवेदना के स्त्रोत, जो सह-अनुभूति की तरल ऊष्मा से विलीन कर देते हैं तमाम दंगे-फसाद, जो ढहा देते हैं कितने शोषण, कितने युद्ध, कितने महायुद्ध! तो बहुत जरूरी है, भीतर की रोशनी के साथ जीना और यह रोशनी परमपूज्य गुरुदेव के ‘वाक्य-विचार’ बहुत सहजता से बरसा देते हैं। गुरुदेव के वाक्य आज के समय में मार्ग दिखाते हैं ऐसी मनुष्य चेतना के निर्माण का, जिसमें देवत्व की सुगंध हो, स्वर्गीय मुस्कान हो।

संस्कृति पुरुष परमपूज्य गुरुदेव ने संस्कृति के पुण्य प्रवाह को नई चेतना दी है। उन्होंने निष्प्राण होती जा रही भारतीय युवा मानसिकता में नवप्राणों का संचार किया है। रूढ़ियों के प्रति विद्रोह की चिनगारी के साथ ही उन्होंने धर्म एवं संस्कृति के सत्य स्वरूप को जानने की भावभूमि भी दी है। भारत के सुदीर्घ इतिहास में, मनुष्य जाति के सदियों-सदियों के इतिहास में संस्कृति के पुण्य प्रवाह को नवजीवन देने की यह अनूठी घटना घटी है कि लाखों-करोड़ों लोग पूरी तरह समर्पित हैं किसी सद्गुरु के प्रति और उन्हें सच्चे अर्थों में सन्मार्ग दिखाया है उनके सद्गुरु ने। इस पर सहल ही पूरे आकाश में इन सद्पंक्तियों को गुँजा देने को जी चाहता है, “बलिहारी गुरु आपकी संस्कृति लियो बचाय।”


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