गुह्य विद्या और भारतीय विज्ञान का उद्धार

November 2000

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

योग, तंत्र, ज्योतिष, कुँडलिनी, षट्चक्र, सिद्धियाँ ओर निधियाँ साधना को तीव्र गति देने वाली विधाएँ रही है। अनन्य साधना को तीव्र गति देने वाली विधाएँ रही हैं अनन्य भाव से भगवद् जप, प्रभु समर्पित जीवन और संकीर्तन तपादि भी ईश्वर को प्राप्त करने के साधन हैं। जिन्हें ज्यादा झंझट करने की आदत नहीं है, जो सिर्फ आत्मिक शाँति या ईश्वर अनुभूति में ही रुचि रखते हैं उनके लिए ‘भक्ति’ सुलभ मार्ग है। वे उसी का अवलंबन लेते हैं, लेकिन जिन्हें साधना करते हुए ईश्वर का वैभव भी देखना है उसके ऐश्वर्य को भी धारण करना है ओर प्रमाणित करना है कि वे इस सृष्टि से सृजनहार से संबंध स्थापित किए हुए हैं। उनके लिए गुह्य विद्याओं का आश्रम लेना जरूरी है।

योग, तंत्र, कुँडलिनी आदि को परमात्मा से जोड़ने उसमें विलय कर देने वाली साधना भी हैं। परमात्मा में जिन्हें रुचि न हो वे इनका उपयोग प्रकृति के ज्ञात-अज्ञात रहस्यों को खोजने और उनसे लाभ उठाने के रूप में भी करते हैं। तंत्र-मंत्र की साधना करने वालों में आरंभ में ईश्वरीय आभा भले न दिखाई देती हो, लेकिन कतिपय अलौकिक शक्तियाँ उनमें अवश्य आ जाती है। दिव्य शक्तियों से संपन्न होने का दावा कर लोगों को ठगने वाले धूर्तों की बात नहीं की जा रही। जो सचमुच निष्ठा ओर तन्मयता से तंत्र-मंत्र की उपासना करते है उनकी आत्मिक शक्ति प्रबल होने लगती है। बड़े प्रयोजन सिद्ध होने लायक सामर्थ्य आरंभ में नहीं दिखाई देती, लेकिन वाणी में तेज, कही हुई बातें सच होने और आशीर्वाद-अभिशाप जैसी भावनाएँ चरितार्थ होने लगती है। दक्षिणमार्गी साधनाओं में ये विलक्षणताएँ नहीं दिखाई देती। वाममार्गी अथवा तंत्र ओर योग की उच्च कक्षाओं में पहुँचने पर वैसे प्रभाव दिखाई देते हैं।

परमपूज्य गुरुदेव ने आत्मविश्वास, साक्षात्कार, भगवत्प्राप्ति और जीवन में परमात्मा का वैभव प्रकट करने वाली सुलभ साधनाओं का उन्मेष तो किया ही, त्वरित विकास करने वाली विद्याओं का भी विवेचन किया। वह विवेचन फलश्रुति बताने वाला नहीं युक्ति तर्क और विज्ञान के आधार पर इन विद्याओं के रहस्य उद्घाटित करने वाला था। गायत्री की साधनाएँ सौम्य सत्व प्रधान होती है। वे दक्षिणमार्गी श्रेणी में आती है। गुरुदेव ने इस पक्ष के साथ तंत्र, योग, और दिव्य पक्ष को भी उद्घाटित किया। उनके सान्निध्य और मार्गदर्शन में साधना कर तंत्र की उच्चस्तरीय सिद्धियाँ प्राप्त करने वालों की संख्या हजारों में होगी। उन सिद्ध-साधकों की निजी अनुभूतियाँ साधना के विज्ञान पक्ष को प्रमाणित करने के लिए उद्धृत नहीं की जा सकती। गुरुदेव के अनुदान-प्रेरणाओं और परिणामों की चर्चा ही यहाँ अभीष्ट है।

तंत्र अपने आप में गुह्य विज्ञान है। वह सिद्धाँतों और भावनाओं से ज्यादा क्रिया-प्रक्रिया को महत्त्व देता है। सामान्य साधनाओं की सफलता भावना निर्भर है। श्रद्धा-विश्वास के अनुपात से ही उनके परिणाम सामने आते हैं। तंत्र प्रक्रिया है विज्ञान है आपकी श्रद्धा हो या न हो परिणाम होगे ही आग को छुएँगे तो जलन होगी ही, श्रद्धाभाव हो या न हो बिजली, मशीन, हथियार आदि के प्रति किसी भी तरह की भावनाएँ रखी जाएँ सावधानी से प्रयोग करें, तो उपयुक्त परिणाम आएँगे। और असावधानी-लापरवाही बरतेंगे तो हानि उठानी ही पड़ेगी।

ज्योतिष, योग और गुह्य विद्याओं की अन्य धाराओं में क्रिया, विधि और व्यवस्था महत्त्वपूर्ण है। गुरुदेव ने अखण्ड ज्योति के पन्नों पर आरंभ से ही इन तथ्यों का उद्घाटन किया। बाद में तो पत्रिका और गुरुदेव का इतर साहित्य साधना के गूढ रहस्यों के उद्घाटन पर ही केंद्रित हो गया। गुरुदेव ने मथुरा से प्रयाण करने से पूर्व अपने भावी कार्यक्रमों के बारे में लिखा था। परिजनों से संवाद के रूप में अखण्ड ज्योति के स्तंभ “अपनों से अपनी बात” में उन्होंने लिखा, “गायत्री उपासना का सर्वसाधारण के लिए जितना प्रयोग सरल और उपयुक्त था, उसे हम गत कई वर्षों से सिखाते-समझाते चले आ रहे हैं। इस विद्या की उच्चस्तरीय साधना के दो पक्ष है। (1) योग (2) तंत्र। योगमार्ग में उच्चस्तरीय साधना पंचकोशों के अनावरण की है जिसकी थोड़ी-सा शिक्षण अखण्ड ज्योति के माध्यम से कर चुके हैं अभी इस विद्या को साँगोपाँग बताया जाना शेष है। उसी प्रकार तंत्रमार्ग की गायत्री कुँडलिनी कहलाती है। उसकी छिटपुट चर्चा इन दिनों हम कर रहे हैं। अगले दिनों नैष्ठिक साधकों को योगमार्ग की पंचकोशों के अनावरण की साधना और तंत्रमार्ग की कुँडलिनी जागरण की शिक्षा अखण्ड ज्योति के पृष्ठों पर ही मिलेगी। अनुभव के आधार पर प्रस्तुत किया गया यह शिक्षण सर्वथा होगा और उससे अनेक निष्ठावान् भारी लाभ उठा सकेंगे।

मथुरा में विदाई सम्मेलन से पूर्व दिया गया यह आश्वासन अखण्ड ज्योति के पृष्ठों पर ही पूरा नहीं हुआ, शाँतिकुँज में चले साधना सत्रों में भी चरितार्थ हुआ। प्राण प्रत्यावर्तन शक्पात, जीवन साधना कुंडलिनी योग और योगमार्ग का व्यावहारिक अभ्यास सिखाने वाले सत्र परिजनों को आज भी याद हैं। उनमें गुरुदेव स्वयं निर्देश देते थे और अंतर्यात्रा में एक-एक पल के साक्षी बनकर साधकों को गहराई तक ले जाते थे। जिन साधकों ने इन शिविरों में कुछ गति की, वे जानते थे कि जन्माँतरों के पुरुषार्थ से जो विकास संभव नहीं हो सकता था, वह नौ-दस दिन या महीने भर के सूत्रों में सहज ही संभव हो गया। यात्रा मार्ग की बारीकियों को समझते हुए संपन्न हो गई।

साधनाओं के विज्ञान पक्ष की चर्चा में यह कहना जरूरी होगा कि सन् 1969 से ही गुरुदेव ने धर्म और अध्यात्म का प्रतिपादन विज्ञान के आधार पर करना शुरू किया। जाने बिनु होई न परतीती जाने बिना विषय का ज्ञान नहीं हुआ ओर जानकारी के अभाव में उस मार्ग पर चलने का उत्साह नहीं उमड़ता। इच्छा भी नहीं होती। आज का युग तर्क, तथ्य और विज्ञान का युग है। लोग वहीं बात स्वीकार करते है जो युक्तियों और त्यों के आधार पर गले उतरती हो। सन् 1963 में गुरुदेव ने शिक्षण संस्कार की जो पद्धति अपनाई, उसमें यही विशेषताएँ समाहित थी। अपनी शैली को उन्होंने नाम भी दिया। “वैज्ञानिक अध्यात्मवाद’। बाद में देश के कई मनीषियों ने इस प्रत्यय को अपनाया और उस शैली को ग्रहण करने की कोशिश की।

परिजनों के आत्मिक विकास में विज्ञान पक्ष को कितना महत्त्व दिया जाता था ? इसके प्रमाण कुछ उदाहरणों से मिलते थे गुरुदेव कहा करते थे कि व्यक्ति का वर्तमान स्वरूप कुछ महीनों वर्षों या इसी जन्म में उभरकर नहीं आया। वह संस्कारों और प्रभावों का समुच्चय है। उन्हें धोने-परिमार्जित करने में भी इतनी ही अवधि चाहिए। साधना सत्रों में एक सामान्य विधान का पालन कराने के अलावा गुरुदेव ने संचित संस्कारों के निष्कासन-मार्जन की भी विधि-व्यवस्था की। साधकों से वे निजी तौर पर मिलते और सान्निध्य, बोध, अनुभूति मार्जन आदि की प्रक्रिया जब तक गति नहीं पकड़ लेती, उनसे वार्तालाप करते। यों उनकी दृष्टि ही इतनी समर्थ थी कि साधकों का अंतस् जानने के लिए इन उपायों की आवश्यकता नहीं थी लेकिन जिसका मार्जन-प्रक्षालन किया जा रहा है उसे भी बोध रहना चाहिए।

बाद में ज्योतिष के आधार पर साधकों के संस्कारों के विश्लेषण का भी क्रम चला था। इस विद्या का उपयोग भविष्य-कथन, ग्रह-नक्षत्रों का भय दिखाने ओर लोगों का रहा-सहा आत्मबल क्षीण करने में ही होता रहा है। वर्तमान स्थिति को देखते हुए ‘दुरुपयोग’ भी कह सकते है। गुरुदेव के अनुसार ज्योतिष विज्ञान का महत्त्व आत्मिक प्रगति में सहायता प्राप्त करने की दृष्टि से ही है। अन्य उपयोगी का महत्त्व उन सबके बाद है। किस ग्रह-स्थिति में जन्मा व्यक्ति अपने साथ क्या संस्कार लेकर आया है और उसे क्या उपचार दिया जना चाहिए? शाँतिकुँज में आरंभ ज्योतिर्विज्ञान की गतिविधियों का यही उद्देश्य था। इसके लिए वेधशाला का निर्माण ज्योतिष शास्त्र के विद्वानों का आमंत्रण, उनसे विचार-विमर्श और व्यक्ति को समझने की विधि का निर्धारण कुछ ही सम में संपन्न हो गया। गुरुदेव ने उन्हीं दिनों ‘ब्रह्मवर्चस पंचास का प्रकाशन भी आरंभ कराया था। एक मानक स्थिर हो जाने के बाद वह उस समय स्थगित कर दिया। भारत भर में दर्जनों पंचाँग अब उसी आधार पर प्रकाशित हो रहे हैं अब पुनः विगत तीन वर्षों से पंचाँग प्रकाशित किया जा रहा है।

आर्य प्रणीत ज्ञान-विज्ञान का मर्म यह है कि उनकी सभी विद्याएँ एक-दूसरे की पूरक हों। साधना, उपासना और ज्योतिष की तरह आयुर्वेद भी भारतीय विज्ञान का एक पक्ष है। आधुनिक चिकित्सा पद्धतियां शरीर में होने वाले रोगों को बाहरी विकारों का आक्रमण मानती है। उन्हें विषाणु या जीवाणु की संज्ञा देते है। शरीर में जब इनकी घुसपैठ होती है तो बीमारियाँ जन्म लेती है। उन विकारों को दबा दिया जाए, तो व्यक्ति स्वस्थ हो सकता है। स्वास्थ्य विज्ञान की भारतीय परंपरा मानती है। कि रोगों की जड़ आहार-विहार में असंतुलन और मन, बुद्धि चित्त अहंकार में आए विक्षेपों में हैं। एक मान्यता यह भी है कि पूर्वजन्म में किए गए पाप व्याधि के रूप में प्रकट होते है आयुर्वेद के एक अन्य प्रतिपादन में “प्रज्ञापराध” को सभी रोगों को मूल बताया गया है।

समर्थ और सुलझी आधारभित्तियों पर खड़ा आयुर्वेद इन दिनों टॉनिक और सौंदर्य प्रसाधनों तक ही सिमटकर रह गया। गुरुदेव ने सूक्ष्मीकरण में प्रवेश से पहले आयुर्वेद की लुप्त परंपरा के उन्नयन की योजना बनाई ओर उसे क्रियान्वित किया। औषधि उद्यान लगाने से लेकर अनुभवी वैद्य-चिकित्सकों को बुलाने, जुटाने और समर्थ तंत्र खड़ा करने को उनका अवदान आज आयुर्वेद के पुनरुद्धार के रूप में देखा जा सकता है। शांतिकुंज को उन्होंने प्रयोगशाला की तरह विकसित किया था। वहाँ विभिन्न विधाओं के मानक-मॉडल तैयार किए गए। अब विश्वविद्यालय खड़ा हो रहा है। विधियों का आविष्कार किया, विचार-विमर्श और शिविरों के रूप में उन विषयों के विद्वानों को आमंत्रित किया, वही क्रम आगे गति पकड़ेगा। इन सभी उपायों से गुरुदेव ने प्रतिभाशालियों का मार्गदर्शन किया। आज हजारों लोग ज्ञान-विज्ञान की इस भारतीय परंपरा का निर्वाह करने में जुटे हुए है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles