तीर्थ चेतना के उन्नायक

November 2000

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परमपूज्य गुरुदेव जितनी अवधि तक धराधाम पर रहे उनके प्रयत्न मानवी चेतना को ऊपर उठाने के लिए चलते रहे। आत्मिक क्षेत्र में प्रगति दो तरह से होती है। एक तो व्यक्ति की अपनी निजी साधना-तपस्या से। दूसरे बाहरी परिवेश से। पहले से वह अपने को माँजता तराशता रहा है तो दूसरे से उसे इस कार्य में सहायता मिलती है। निजी प्रयत्नों से व्यक्ति जितना ऊपर उठ सकता है बाहरी वातावरण यदि अनुकूल हो, तो चेतना निजी प्रयत्नों की तुलना में हजार गुना ऊँची उठ सकती है। परमपूज्य गुरुदेव ने निजी प्रयत्नों का साधना-उपासना का व्यावहारिक स्वरूप बताने के साथ साधकों के लिए बाहरी वातावरण बनाने पर भी ध्यान दिया तीर्थों के विकास शक्तिपीठ प्रज्ञापीठ, चरणपीठ आदि स्थापनाओं को इन्हीं प्रयत्नों के रूप में देखा जा सकता है।

यह एक सुविदित तथ्य है कि मिशन के प्रारंभिक उद्भव के समय परमपूज्य गुरुदेव ने महानगरों, राजधानियों और बड़े शहरों की तुलना में उन स्थानों को ज्यादा महत्व दिया जो साँस्कृतिक दृष्टि से पूँजी संपन्न थे। जिनके साथ गर्व करने लायक परंपराएँ थी। इन विशिष्टताओं और परंपराओं में भी उनने मानवी चेतना को ऊँचा उठाने वाली स्थितियों को ज्यादा महत्त्वपूर्ण माना। उदाहरणार्थ उनने साँस्कृतिक जागरण का काम आगरा शहर से आरंभ किया। पहली अखण्ड ज्योति की प्रति 1937-36 में यही से प्रकाशित हुई थी किन्तु फिर कुछ समय बाद ही वे मथुरा (1941-42) आ गए। इतिहास की दृष्टि से आगरा की थाती ज्यादा बड़ी हो सकती है। ताजमहल, लाल किला आदि ने उसे एक पहचान दी है। लेकिन संस्कृति और अध्यात्म-चेतना की दृष्टि से मथुरा ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। वहाँ की पुराणसिद्ध विलक्षणता इतिहास की तथ्यपरक विशेषताओं की तुलना में मनुष्य के लिए ज्यादा सहायक है।

परमपूज्य गुरुदेव ने साठ वर्ष की आयु तक (1941 से 1971) अपनी गतिविधियों का केंद्र मथुरा को बनाए रखा। इसके बाद वे हिमालय और गंगाक्षेत्र में आ गए। हिमालय की छाया एवं गंगा की गोद को ही उन्होंने आगामी बीस वर्षों के लिए अपनी तपःस्थली बनाया। कुछेक अपवादों को छोड़कर बाद में 1990 तक उन्होंने यहीं हरिद्वार में निवास किया। इस तथ्य की ओर कम ही लोगों का ध्यान गया होगा कि आस-पास रहते हुए भी वे दिल्ली दो-चार बार ही गए होंगे। मुम्बई, कलकत्ता, मद्रास महानगरों की यात्रा भी उन्होंने कम ही की। इनकी तुलना में वे छोटे शहरों और तीर्थ-स्थानों में ज्यादा ही गए। छोटे शहरों में गायत्री महायज्ञ युग निर्माण सम्मेलन और शक्तिपीठों, प्रज्ञापीठों की स्थापना के लिए जाने का उद्देश्य वहाँ अध्यात्म-चेतना का विकास ही था। वे कहा करते थे कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है। महानगर भौतिक वैभव और आधुनिक जीवन की भगदड़ के केंद्र है। उनकी निंदा नहीं की जानी चाहिए लेकिन ग्रामीण संस्कृति और तर्भ-चेतना को सँभाल लिया जाए तो महानगर भी सँभाल लिए जाएं ऐसा पूज्यवर का कथन था वे कहते थे कि गाँवों-कस्बों से बहता रहने वाला वैभव निर्झर परिष्कृत होकर युगनिर्माण के उपयुक्त बनता जाएगा।

तीर्थ अर्थात् चेतना के वे घाट, जहाँ बैठकर लोग लोभ-मोह-अहंता के तम, ओर रज के वेग को पार कर सकें। तीर्थ शब्द की व्यत्पतिकारक अर्थ करने वाली परिभाषा में उन्हें घाट की संज्ञा स्पष्ट दी गई है। कहा गया है। कि जहाँ बैठकर विश्राम कर संकल्प और तैयारी के साथ लोग नौका द्वारा भवसागर पार कर जाते हैं वह स्थान तीर्थ है। परमपूज्य गुरुदेव के अनुसार जहाँ पहँते ही मन में उत्कृष्ट भावनाएँ जगने लगें, सत्प्रेरणाएं उभरने लगें और दोष-दुर्गुणों को उखाड़ फेंकने का आसुरी प्रवृत्तियों को ध्वस्त करने का साहस जागने लगे, वह तीर्थ है किन्तु यह सब अनायास नहीं होता। जिस स्थान को साधना और तपश्चर्या के द्वारा ऊर्जावान बनाया गया हो जहाँ प्राचीनकाल में ऋषि-मुनियों ने तप किया हो अथवा संत-महात्माओं ने दीर्घकाल तक वास किया हो, साधना-उपासना की प्रवृत्तियाँ लंबे समय तक चलती रही हो, वहीं तर्भ-चेतना जाग्रत हो सकती है।

अनेक अवसरों पर पूज्यवर ने लिखा है कि मनुष्य की वर्तमान दुर्दशा उसकी आस्था में आई गिरावट के कारण है वे सभ्यता के समाने खड़ी चुनौतियों को आस्था-संकट कहते थे उनका मत था कि इस संकट के कारण मानव-जाति सामूहिक आत्मघात की तैयारी किए बैठी है। वे कहते थे कि बढ़ते हुए मनोरोगों से लेकर हिंसा, भ्रष्टाचार महामारियाँ और अशक्तिजन्य रोगों के बाहुल्य का कारण व्यक्ति का अपनी देवसंस्कृति के प्रति आस्था खो बैठना है। यदि आस्था संकट का उपचार करना है तो व्यक्ति और समाज के मन को उसकी चेतना को संस्कारित करना होगा। यह प्रक्रिया कुछ भावनाओं या प्रवृत्तियों की स्थापना से नहीं, बल्कि पूरी तरह गढ़ने से ही संभव होगी। यह परिष्कार, उपदेश और प्रचार से नहीं, जीवंत-जाग्रत और उच्चकोटि की आत्माओं के संसर्ग से ही संभव होगा। उनके निवास से भूमि में पड़ने वाले संस्कारों के प्रभाव से ही होगा।

परमपूज्य गुरुदेव ने गायत्री तपोभूमि और हरिद्वार के शाँतिकुँज को मुख्य केंद्रों के रूप में चुना। इन स्थानों पर उनका निवास और तीस से पचास वर्ष तक चलाई गई साधनात्मक प्रवृत्तियाँ भी इन क्षेत्रों को जीवंत ऊर्जा केंद्र बनाने के लिए पर्याप्त थी। फिर भी उन्होंने स्थानों का चुनाव करते समय पूर्व पृष्ठभूमि को ध्यान में रखा। मथुरा में जिस जगह गायत्री तपोभूमि स्थित है वहाँ के बारे में पूज्यवर यह जानते थे कि अति प्राचीनकाल में महर्षि दुर्वासा ने यहाँ तप किया था। आज भी दुर्वासा को मेला वहाँ से थोड़ी दूर यमुना नदी के किनारे लगता है। शाँतिकुँज के संबंध में पूज्यवर का मत है कि गायत्री मंत्र के द्रष्टा महर्षि विश्वामित्र ने यहीं तप किया था। सप्तऋषियों की तपस्थली होने के कारण इस समूचे क्षेत्र का नाम सप्तसरोवर अब भी प्रसिद्ध है।

गायत्री तपोभूमि मथुरा की स्थापना के समय परमपूज्य गुरुदेव ने गायत्री तपोभूमि और हरिद्वार के शाँतिकुँज को मुख्य केंद्रों के रूप में चुना। इन स्थानों पर उनका निवास और तीस से पचास वर्ष तक चलाई गई। साधनात्मक प्रवृत्तियाँ भी इन क्षेत्रों को जीवंत ऊर्जा केंद्र बनाने के लिए पर्याप्त था। फिर भी उन्होंने स्थानों का चुनाव करते समय पूर्व पृष्ठभूमि को ध्यान में रखा। मथुरा में जिस जगह गायत्री तपोभूमि स्थित है वहाँ के बारे में पूज्यवर यह जानते थे कि अति प्राचीनकाल में महर्षि दुर्वासा ने यहाँ तप किया था। आज भी दुर्वासा का मेला वहाँ से थोड़ी दूर यमुना नदी के किनारे लगता है। शाँतिकुँज के संबंध में पूज्यवर का मत है कि गायत्री मंत्र के द्रष्टा महर्षि विश्वामित्र ने यहीं तप किया था। सप्तऋषियों की तपस्थली होने के कारण इस समूचे क्षेत्र का नाम सप्तसरोवर अब भी प्रसिद्ध है।

गायत्री तपोभूमि मथुरा की स्थापना के समय परमपूज्य गुरुदेव ने वहाँ न केवल घोर तप किया। अगणित साधकों को भी तप-अनुष्ठान में प्रवृत्त किया। कई साधकों को उच्चस्तरीय अनुभूतियाँ व उपलब्धियों भी हस्तगत हुई पंचकोशी जागरण साधना वहीं से संचालित हुई थी। कठोर तप के साथ गुरुदेव द्वारा यज्ञशाला में अखण्ड अग्नि की स्थापना एवं चौबीस सौ तीर्थ का जल-रज संग्रह भी किया गया। साथ ही ऐसे धर्म-तंत्र का निर्धारण भी किया गया, जिसे अगले दिनों लोक-शिक्षण की महती भूमिका निभानी थी।

शाँतिकुँज में भी प्राण सत्रों (1972-73) से आरंभ कर विभिन्न स्तर के साधकों-परिव्राजकों के शिक्षण संस्कार का उपक्रम चलता रहा। प्रत्येक नौ दिवसीय साधना सत्र में विधि साधनाएँ तथा गायत्री मंत्र का लघु अनुष्ठान जुड़ा रहता था वर्ष भर में ऐसा छत्तीस प्रत्येक माह में तीन सत्र आयोजित होते रहे हैं। 1972 से 1990-94 तक पूज्यवर एवं शक्तिस्वरूपा माताजी का सान्निध्य यहाँ आने वालों के लिए स्वयं एक तीर्थ का अनुभव था। शाँतिकुँज गायत्री तीर्थ के रूप में प्रतिष्ठित एवं विख्यात हो चला था एवं 1970 तक उसने यह मान्यता प्राप्त कर ली थी सन् 1979 की वसंत पंचमी पर परमपूज्य गुरुदेव ने घोषणा की कि भारतभर में चौबीस गायत्री तीर्थों की स्थापना की जाएगी। ये स्थापनाएँ परंपरा से चले आ रहे शक्तिपीठों से अलग और विशिष्ट स्तर की निर्धारित हुई थी बहुतों के मन में यह प्रश्न उठा कि देश में पहले ही सैकड़ों तीर्थ, हजारों-लाखों मंदिर विद्यमान है फिर इन नए संस्थानों के निर्माण का क्या औचित्य ?

पूज्यवर ने तर्कशील साधकों के इन प्रश्नों को सराहा। उन्हें संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि अगले दिनों सारा वातावरण ही गायत्रीमय होना है। गायत्री उपासना इस देश को चिरकाल से शक्ति-सामर्थ्य प्रदान करती रही है। इस युग के लिए तो वह संजीवनी बूटी की तरह है। मंदिरों की स्थापना के माध्यम से वातावरण को संस्कारित कर लिया गया, तो उससे राष्ट्र और विश्व को संयम, स्वस्थ और समर्थ देवभावनाओं से ओत-प्रोत रखने वाली प्रक्रिया अपने आप चल पड़ेगी। ये मंदिर पारंपरिक नहीं, जन-जाग्रति के केंद्र बनेंगे, ज्ञानक्राँति के संवाहक होंगे।

उपर्युक्त संदेश से समझा जा सकता है कि तीर्थ-चेतना को भारभूत में ही नहीं, विश्वभर में फैलाने का उद्देश्य था पूज्यवर का। उन्होंने शक्तिपीठों, प्रज्ञासंस्थानों को अवतार चेतना का लीला केंद्र निरूपित किया व लिखा कि यह समय युगावतार-प्रज्ञावतार के प्रकटीकरण का है। ऐसे में युगशिथ्म-आद्यशक्ति की उपासना के केंद्र इस धरित्री के कोने-कोने में होने चाहिए। इन स्थापनाओं से आद्यशक्ति के प्रति श्रद्धा-निष्ठा का प्रवाह जाग्रत् होगा और नए युग का अवतरण संभव हो सकेगा।

आरंभ में चौबीस से लिया गया संकल्प बाद में बढ़कर दो सौ चालीस और फिर चौबीस सौ प्रज्ञा मंदिरों, प्रज्ञा संस्थानों, शक्तिपीठों के निर्माण के रूप में परिणत हो गया जब यह संख्या साढ़े पाँच हजार तक पहुँच गई है स्थूल दृष्टि से ये संस्थान छोटे-बड़े मंदिर है जहाँ आद्यशक्ति गायत्री की पूजा-आराधना के साथ-साथ ज्ञानयज्ञ की प्रक्रिया भी चलती है। इन स्थापनाओं में अग्निहोत्र, संस्कार, पर्व एवं विचारों-भावनाओं को परिमार्जित करने वाले कार्यक्रम नियमित चलते हैं। मूल भावना यही रही है कि इनके माध्यम से उस क्षेत्र को संस्कारों से अनुप्राणित कर दिया जाए। इतना भर होने से इन केंद्रों के माध्यम से आध्यात्मिक और साँस्कृतिक क्राँति संभव होती देखी जा सकती है।

स्थापनाओं निर्माणों मात्र से ही तीर्थ की आवश्यकता पूरी नहीं हो जाती। तीर्थ जमीन, नदी, पहाड़ आदि से मिलकर बने भू-भाग नहीं है। तीर्थस्थान वहाँ रहने वाले साधकों, उनकी तपश्चर्याओं, लोक-मंगल के लिए नियोजित उनके क्रियाकलापों, लोक-शिक्षण में निरत, विभूतियों परिव्राजकों, वानप्रस्थों के कारण स्थिर रहते हैं ऐसे एक विशाल गायत्री तीर्थ का गायत्री तपोभूमि रूपी चैतन्य तीर्थ का युगतीर्थ आंवलखेड़ा तथा साढ़े पाँच हजार से अधिक प्रज्ञा संस्थानों के रूप में जीवंत प्राणवान् केंद्रों की स्थापना का महापुरुषार्थ संस्कृति पुरुष परमपूज्य गुरुदेव द्वारा संपन्न हुआ धर्म-तंत्र से लोग-शिक्षण हेतु इससे कम में बात बनने वाली थी भी नहीं।


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