गृहस्थ देवसंस्कृति का केंद्र है। संस्कृति के विविध पहलू विभिन्न आयाम इसी केंद्र के सहारे प्रकट-विकसित होते हैं। सामान्यक्रम में गृहस्थ जीवन का जो खाँचा-ढाँचा दिखाई देता है। उसमें यह बात भले ही। अप्रासंगिक या अतिशयोक्तिपूर्ण लगे, परंतु यदि अपनी संस्कृति की मर्यादानुरूप इसे अपनाया जाए तो फिर यहीं तपोवन साकार होता है। साधक प्रवर श्रीराम के जीवन में यही तथ्य खरा, सही और सटीक प्रमाणित हुआ। गृहस्थ के संयमित, मर्यादित एवं आदर्शनिष्ठ आचरण के द्वारा उन्होंने सही मायने में घर-परिवार को तपोवन का स्वरूप प्रदान किया। यही पर संयम सेवा एवं सहिष्णुता की साधना करके वह संस्कृति पुरुष ओर लक्ष-कोटि जनों के परमपूज्य गुरुदेव बने।
साधनाकाल में ही उनके गृहस्थ जीवन की शुरुआत हो गई थी। वंदनीया माताजी ने आकर यहाँ संस्कृति संजीवनी की फसल उगाई। गृहस्थ संस्कारों की पौधशाला ही तो है, जहाँ परिवार के सभी सदस्यों को उनकी स्थिति के अनुरूप संस्कार मिलते हैं। प्यार-सुधार के संस्कारपूर्ण वातावरण में यहाँ परिवार के सभी स्वजन सुसंस्कृत बनते हैं। वंदनीया माताजी एवं परमपूज्य गुरुदेव की गृहस्थी कुछ ऐसी ही रही। उनके गृहस्थ जीवन के अगणित प्रसंग है। असंख्य बातें हैं। इन सभी में यदि एक तथ्य हर कहीं है तो वह है प्यार और संस्कार। हर पहलू से, हर आयाम से इन्हीं दो की झलक मिलती हैं।
गुरुदेव-माताजी इन दोनों में से कौन बड़ा, कौन छोटा, यह चर्चा निरी महत्त्वहीन हैं, क्योंकि ये दोनों, दो दिखते हुए भी दो थे ही नहीं। जीवन एवं प्राण, काया एवं श्वास, सूर्य एवं प्रकाश, चन्द्रमा एवं चाँदनी यही नाता था दोनों में दोनों ही एक-दूसरे के प्रति गहराई से अर्पित-समर्पित थे। उनका सब कुछ तो एक था। यह सचाई उनसे मिलने वाले भी अनुभव करते रहते थे। न जाने कितने प्रसंग हैं, जब परिजनों ने पाया कि जो पहले वंदनीया मिलने वाले भी अनुभव करते रहते थे। न जाने कितने प्रसंग हैं, जब परिजनों ने पाया कि जो पहले वंदनीया माताजी ने कहा, वही बाद में परमपूज्य गुरुदेव ने बताया। अथवा जो पहले गुरुदेव ने कहा, वही बाद में माताजी ने बताया। यह अभेद, एकत्व मात्र आध्यात्मिक या अतींद्रिय प्रसंगों तक सीमित न था। सामान्य जीवनक्रम में रोजमर्रा के कामों में इसकी उतनी ही झलक मिलती थी। दोनों ही नित्य एकता मथुरा के जीवनकाल में वंदनीया माताजी पत्र पढ़कर सुनाती थी। परमपूज्य गुरुदेव जवाब लिखते थे जिस तरह से पत्र-लेखन आदि गुरुदेव के द्वारा किए जाने वाले काम में माताजी सहयोग देती थी, ठीक उसी तरह माताजी के घर-गृहस्थी के सामान्य काम-काज में गुरुदेव भी हाथ बँटा देते थे। ऐसे प्रसंग पुराने परिजनों द्वारा आज भी सुने जा सकते थे। उनके दाँपत्य संबंध दिव्य एवं अतिमानवीय होते हुए भी मानवीय सहृदयता घनिष्ठता, आत्मीयता एवं प्रेम का उज्ज्वल उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
जहाँ तक परिवार की बात है तो उन दोनों के कभी भी अपने परिवार को अपने दो पुत्र दो पुत्रियों तक सीमित नहीं माना। हालाँकि अपने पुत्र-पुत्रियों को उन्होंने अच्छी शिक्षा दिलाई, उत्तम-उत्कृष्ट संस्कार दिए। अपनी वसीयत एवं विरासत के रूप में उन्हें उज्ज्वल प्रेरणाएँ एवं आदर्शनिष्ठा सौंपी, पर उनके मन में परिवार के स्वजनों के प्रति जो कर्त्तव्य भाव था, उसकी सीमा इससे कहीं अधिक बृहत्तर थी। उसकी परिधि अपनी चार संतानों से कही अधिक विशाल एवं विराट् थी।
गुरुदेव माताजी का अपना सबसे छोटा परिवार अखण्ड ज्योति परिवार था। सही मायने में इसे ही उनके गृहस्थ जीवन की शुरुआत कहें तो उचित होगा, क्योंकि अखण्ड ज्योति पत्रिका और अपने हस्तलिखित पत्रों के माध्यम से वे अपने बच्चों को शिक्षा एवं संस्कार देने में ही तो लगे थे। उनके द्वारा विनिर्मित गृहस्थ का तपोवन इसी व्यापक दायरे में फैला था। इस अखण्ड ज्योति परिवार में बात शिक्षा एवं संस्कार तक ही सीमित न थी। प्यार-दुलार, अपनत्व, ममता, झिड़की, फटकार, मनुहार सभी कुछ इसमें शामिल था। बच्चों पर माँ-बाप का अधिकार होता है। तो बच्चे भी माँ-बाप पर अपना पूरा अधिकार जताते थे।
मथुरा के दिनों का ही एक प्रसंग उन दिनों से जुड़े एक परिजन आज भी बड़े चाव से सुनाते थे। उनके अनुसार संस्थान पहुँचे। सब लोग सो चुके थे। दरवाजा खटखटाने पर वंदनीया माताजी ने दरवाजा खोला। बड़े प्यार एवं अपनत्व से उन्हें अंदर बिठाया। घर-परिवार निजी-जीवन की थोड़ी चर्चा के बाद भोजन का उपक्रम हुआ। माताजी ने पराँठे बनाए और उन्होंने खाए। इसके बाद उन्होंने निवेदन किया, माताजी गुरुदेव से मिलवा दो। माताजी ने समझाया, बेटा सुबह मिल लेना। इस पर वह परिजन दुःखी हो गए। कहने लगे, हम तो गुरुजी से मिलने भागे-भागे चले आए लेकिन गुरुजी तो मिलेंगे ही नहीं। तभी गुरुजी अपने कमरे से निकलकर आ गए और बोलें, “कोई बात नहीं, मिल लो। बच्चों का हठ तो माँ-बाप को रखना ही पड़ता है, पर अब तुम सो जाओ बातें सुबह आराम से करेंगे।”
ऐसी पारिवारिक भावनाएँ बोई थी गुरुदेव ने। इन्हीं की व्यापकता-विशालता आज कोटिजनों को अपने में समेटे युगनिर्माण मिशन में दिखाई पड़ रही है। छोटी शुरुआत धीरे-धीरे बड़ी हुई। अखण्ड ज्योति परिवार और अधिक बड़ा होकर गायत्री परिवार बना। गुरुदेव मथुरा से शाँतिकुँज हरिद्वार आए। इसे अन्य शब्दों में कहें तो गुरुदेव का गृहस्थ जीवन और व्यापक हुआ। या यों कहा जाए कि उनके गृहस्थरूपी तपोवन ने अपना और अधिक विस्तार किया। दायरा बढ़ा पर दायित्व वही निभाया जाना था, अपनी संतानों को शिक्षा व संस्कार देने का। अपने बच्चों को गढ़-सँवारकर, उन्हें निखारकर सुसंस्कृत बनाना ही तो उनका मकसद था। वे अनूठे थे उनकी गृहस्थी अनोखी थी और आज भी लाखों-करोड़ों को संस्कार देने वाला ही तो सच्चे अर्थों में संस्कृति पुरुष होगा। यह संज्ञा किसी और ने नहीं उनके बच्चों ने उनको दी है। उन्होंने अपने स्नेही पिता को इसी रूप में पहचाना है।
आज गायत्री परिवार और अधिक बड़ा होकर विश्वव्यापी हो रहा है लेकिन इसके मूल में वही भावनाएँ है जो गुरुदेव ने अपने गृहस्थ जीवन में सँजोई थी। उनके गृहस्थ जीवन के अगणित प्रसंग आज उनकी संतानों के लिए भारतीय संस्कृति में निष्ठा रखने वालों के लिए भी अनमोल प्रेरणाएँ है बात अखण्ड ज्योति संस्थान, गायत्री तपोभूमि मथुरा की हो या फिर शाँतिकुँज की परम स्नेही पिता के रूप में परमपूज्य गुरुदेव एवं वात्सल्यमयी माँ के रूप में वंदनीया माताजी हर कहीं अपना आदर्श प्रस्तुत कर शिक्षा एवं संस्कार देते दिखाई पड़ते है।
अभी भी ऐसे लोग है जो शांतिकुंज के शुरुआती दिनों से आते रहे हैं। उन्हें उनके ऐसे ढेरों प्रसंग याद हैं कि कैसे गुरुदेव-माताजी रात दो बजे जगकर भी किसी आगंतुक परिजन की भोजन व्यवस्था करते थे करवाते थे। रूठ जाने वालों की मान-मनुहार करते थे और गलती करने वालों पर कड़ी फटकार भी लगाते थे यही तो अपनी संस्कृति की पहचान है पर्याय है इसी संस्कृति संवेदना से तो संस्कार पनपते है। सद्गुणों का बीजारोपण होता है वह सब बनता-विनिर्मित होता है, जिसके लिए भारत, भारतीयता एवं भारतवासी चिरकाल से प्रसिद्ध रहे है उन्हें उनकी यह प्रसिद्धि देवात्मा हिमालय ने दी है क्योंकि यही तो है देवसंस्कृति का उद्गम केंद्र ओर संस्कृति पुरुष गुरुदेव की कठोर तप-साधनाओं का साक्षी।
जब भक्त स्वयं को उत्कृष्टता के अनुरूप बना लेता है तो सुपात्र कहलाता है। महात्मा गाँधी और विवेकानन्द ने स्वयं को आदर्शवादिता के अनुरूप बनाया। स्वयं को उन्होंने श्रेष्ठता से जोड़ा तो वे ईश्वर के प्रियपात्र बने और बदले में वैभव अनुदान पाए। बुद्ध ने अमरत्व की प्राप्ति को नहीं, जन-जन में व्याप्त भ्रांतियों को मिटाना तथा आद्य शंकराचार्य ने धर्म चेतना के जन-जागरण को अपना आदर्श माना। नानक ने सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन तथा बापा जलाराम ने परमार्थपरायणता की अपनी वृत्ति के कारण परमात्म सत्ता से जुड़ने का सौभाग्य पाया। ये सभी महामानव ईश्वरीय सत्ता के दिव्य गुणों के अनुरूप स्वयं को विकसित कर सुपात्र कहलाए। इसके लिए उन्हें कोई अगल से कर्मकाँड अथवा उपचार उपक्रम नहीं अपनाना पड़ा।
भगवान की कृपा प्रसन्नता पाने के लिए सुपात्र बनना भी अनिवार्य है यह तथ्य बहुतों के गले उतरता नहीं। ऐसे व्यक्ति दिग्भ्रांत हो भटकते ही रहते हैं।