पर्वों को दी चैतन्यता एवं सुसंस्कारिता

November 2000

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भारतीय संस्कृति उत्सवमयी है। सत्-चित्-आनंद इसका संदेश ही नहीं, इसकी प्रकृति भी है। पर्व-त्योहारों के माध्यम से यह साँस्कृतिक चेतना आनंद, निर्मल संस्कार एवं सात्विक उल्लास प्रवाहित करती रहती है। संस्कृति पुरुष परमपूज्य गुरुदेव का स्वरूप व स्वभाव अपनी इसी साँस्कृतिक विशेषता के सर्वथा अनुरूप रहा है। उनके अस्तित्व (सत्) से चैतन्यता (चित्) एवं उल्लाह (आनंद) हर पल झरता-बिखरता रहता है। उन्होंने पर्व-त्योहारों के प्रचलन में आई जड़ता को तोड़ा, उनमें चैतन्यता एवं सुसंस्कारिता का पुट दिया।

प्रचलित परिपाटी के अनुसार पर्व-त्योहारों को धूम-धाम से मनाए जाने की प्रथा है। इस धूम-धाम का अर्थ है फिजूलखर्ची का उन्माद, दुर्व्यसनों को बढ़ावा। गुरुदेव ने पर्व-त्योहारों को सामाजिक संस्कार की प्रक्रिया कहा। उन्होंने बताया कि जन-जन की भावनाओं के परिष्कार हेतु बहुरंगी व्यक्तित्व के बहुआयामी, बहुविध पक्षों के प्रकटीकरण हेतु देवसंस्कृति में त्योहारों का प्रावधान किया गया है। ऋषिगण के दमन व विकृत होने से ही होता है। यदि भावनाओं को परिष्कृत उल्लास में बदलकर समूह की शक्ति का उसमें समावेश किया जा सके व इसे एक आध्यात्मिक उत्सव का रूप दिया जा सके, तो इससे समाज स्वस्थ रहेगा।

बात पर्व-त्योहारों के माध्यम से समाज को संस्कारित करने तक सीमित नहीं है, गुरुदेव के स्वयं के व्यक्तित्व का भी इससे गहरा जुड़ाव था। उनके मार्गदर्शक गुरुदेव वसंत पर्व पर उनसे मिले थे। अपने गुरु से मिलन के इस शुभ दिन को गुरुदेव महापर्व के रूप में मनाया करते थे। वसंत को ऋतुराज कहा गया है। इसके आगमन के अवसर पर प्रकृति का कण-कण उल्लास बिखेरता है। पशु-पक्षी, वृक्ष-वनस्पति एक नवीन चेतना से अनुप्राणित होते है। मानव-जीवन में साँस्कृतिक चेतना की अधिष्ठात्री माँ सरस्वती का अवतरण दिवस भी यही है। इसे मनुष्य में संस्कृति एवं संस्कार का शुभारंभ दिवस कहना कोई अत्युक्ति न होगी। गुरुदेव के लिए तो यह पर्व जैसे सब कुछ था। उन्होंने से आध्यात्मिक जन्मदिन की संज्ञा दी। इस शुभ पर्व से ही उन्होंने अपने जीवन के प्रायः सारे महत्त्वपूर्ण कार्यों की शुरुआत की।

गुरुदेव के जीवन में प्रथम महिमामय वसंत पंचमी सन् 1916 में आई और अंतिम वसंत पंचमी सन् 1990 में। परिजन भूले न होंगे, इस अंतिम वसंत पंचमी के अवसर पर उन्होंने अपने आत्मीय शिष्यों-स्वजनों को स्वयं बुलाया था। इस अवसर पर हुई भेंट-मुलाकात गुरु का अपने शिष्यों-स्वजनों से लौकिक रूप से अंतिम मिलन था। इस अवसर पर उन्होंने एक संदेश भी दिया था, जो ‘वसंत पर्व’ पर महाकाल का संदेश’ नाम के एक परिपत्र के रूप में प्रकाशित हुआ था। इस परिपत्र के शीर्षक से एक तत्त्व को हम लोग आसानी से समझ सकते है कि वसंत पर्व 1926 ई. को उन्होंने एक शिष्य-साधक के रूप में जो यात्रा प्रारंभ की थी। वह वसंत पर्व 1990 में महाकाल से तद्रूप होकर समाप्त हुई।

वसंत पर्व की ही तरह उनके जीवन में गायत्री जयंती का भी विशेष स्थान था। पर्व-त्योहारों का दृश्य रूप तो प्रायः सबका एक ही रहा है, पर अदृश्य रूप से सबका अपना मौलिक वैशिष्ट्य है। गायत्री जयंती, युगशक्ति गायत्री के अवतरण का पर्व है। संस्कृति पुरुष गुरुदेव की अवराम कठोर तप-साधना से प्रसन्न होकर ही आदिशक्ति गायत्री मानवी चेतना में अवतरित होने के लिए संकल्पित हुईं। गुरुदेव कहा करते थे, मनुष्य के जन्म एवं मृत्यु दोनों ही उल्लास भरे त्योहार है।, उस उसे जीना आना चाहिए। उनकी यह उक्ति उन पर खरी प्रमाणित हुई। वसंत पंचमी से जिन जीवन की उन्होंने उल्लासमय शुरुआत की थी, वह उल्लासपूर्ण ढंग से गायत्री में विलीन हो गया।

जब गुरुदेव अखण्ड ज्योति संस्थान में रहा करते थे, उस समय से जुड़े एक परिजन बताते हैं कि वह एक बार गायत्री तपोभूमि मथुरा गए। उस दिन गायत्री जयंती थीं सब ओर उल्लास-उत्सव का माहौल था। गुरुदेव एक ओर कुरसी पर बैठे थे। आने वाले लोग उनसे मिल रहे थे। इस आगंतुक परिजन ने भी गुरुदेव का चरणस्पर्श किया। प्रणाम के अनंतर बाद में खड़े होने पर उन्होंने कहा कि गुरुजी आज तो सब कुछ स्वर्गीय लग रहा है। गुरुदेव बोले, “बेटा! पर्व-त्योहार आते ही हैं हमारे जीवन में स्वर्ग अवतरित करने के लिए। इन्हें यदि ठीक ढंग से मनाया जाए, तो बाहर ही नहीं, हमारा आँतरिक जीवन भी स्वर्गीय हो जाएगा बस जरूरत पर्व में निहित प्रेरणा को आत्मसात् करने की है।”

गुरुदेव जितने गुरुभक्त थे, उतने ही शिष्यवत्सल भी। इसी की अभिव्यक्ति देने वाला पर्व गुरुपूर्णिमा है। जो उनके जीवन में सतत् अनूठा स्थान बनाए रहा। उन्होंने कई स्थानों पर लिखा है कि मैंने ईश्वर को गुरु के रूप में जाना और पाया है। कहना न होगा कि प्रत्येक वर्ष की गुरुपूर्णिमा हमें भी वैसी ही अनुभूति पाने के लिए प्रोत्साहित करती रहती है। उनकी शिष्यवत्सलता कितनी अद्भुत एवं अपूर्व थी, इसे बताते हुए एक अनुभवीजन का कथन है, बात 1979 की शुरुआत की है। गुरुदेव आलस्य-प्रमाद बरते जाने के कारण लगातार काफी नाराज हो रहे थे। एक दिन जब ये सज्जन मेहनत से अपना नियोजन कार्य करके उनके पास गए। तो उन्होंने बड़ी प्रसन्नता के साथ कहा कि आज तुमने बड़ा जोरदार काम किया है। इस प्रशंसा को सुनकर ये कहने लगे, गुरुदेव ! जब आप नाराज होते हैं, तो बड़ा डर लगता है। यह पंक्ति सुनकर गुरुदेव की आँखें छलक आईं, बोले, बेटा ! तुम सोच नहीं सकते कि मैं तुम सबको कितना प्यार करता हूँ। डाँटता तो बस दिखावटी हूँ, ताकि तुम लोग हमेशा आगे बढ़ते रहो। ऐसे थे शिष्यवत्सल गुरुदेव, गुरुपूर्णिमा जिनका उल्लास बिखेरती है।

इन तीन पर्वों के अतिरिक्त गुरुदेव कुछ अन्य प्रेरणाप्रद पर्वों को मनाए जाने के लिए उत्साहित थे। ये पर्व (1) चैत्र नवरात्रि, (2) रामनवमी, (3) श्रावणी, (4) श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, (5) सर्वपित् अमावस्या, (6) शारदीय नवरात्रि, (7) विजयादशमी, (8) दीपावली, (9) गीता जयंती, (10) शिवरात्रि, (11) होली इन सभी पर्वों में भारतीय संस्कृति के आदर्शों का सार समाया है। गुरुदेव के शब्दों में ये संस्कृति की ऐसी स्थापनाएँ हैं, जो व्यक्ति को सुसंस्कारित करने के साथ समष्टि चेतन सत्ता से एकाकार होने की व्यवस्था जुटाते है।

इन पर्व-त्योहारों के साँस्कृतिक वैभव को पुनरुज्जीवन देने वाले गुरुदेव सच्चे अर्थों में युगऋषि थे। उनमें ऋषि-महर्षियों की समन्वित चेतना कार्यरत थी, तभी तो इसकी अभिव्यक्ति विभिन्न ऋषि-परंपराओं के नवजीवन के रूप में हुई।

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