संस्कारों के माध्यम से संस्कृति की प्रतिष्ठा

November 2000

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महर्षि अरविंद कहा करते थे कि मनुष्य इतर प्राणियों और भावी संभावनाओं जिसे वे अतिमानस कहते थे, के बीच की कड़ी है। ऋषि -मुनियों ने प्रवचनों-उपदेशों और शास्त्रों में तरह- तरह से निरूपित किया है कि सिर्फ मनुष्य को ही अपना भविष्य चुनने की स्वतंत्रता है। भविष्य अर्थात् वह चाहे तो मानवी स्तर से ऊपर उठकर देवता बन सकता है ईश्वरीय चेतना से संबद्ध हो सकता है और उसकी सामर्थ्य को अपने भीतर प्रकट कर सकता है। मनुष्येत्तर प्राणी अपने प्रारब्ध और प्रकृति से बँधे हुए हैं। वे एक ही तरह से जीते, विचरण और व्यवहार करते और अपने आपको व्यक्ति किए बिना ही मर जाते हैं। उन्हें इस बँधी-बँधाई व्यवस्था के कारण ही भोग-योनि में जीते बताया जाता है। मनुष्य का जन्म कर्म-योनि में मानते हैं, इसलिए कि इस कलेवर में रहते हुए वह कर्म कर सकता है। अपना अच्छा-बुरा भविष्य चुन सकता है।

स्वाभाविक ही ऋषि सत्ताओं की रुचि मनुष्य के उत्थान में रही। उन्होंने कर्म करने की स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए भी प्रेरणा दी कि मनुष्य महामानव, देवमानव और ईश्वरीय अंशों के रूप में स्वयं को विकसित करे। निजी प्रयत्नों से इस क्षेत्र में जो हो सकता था, उसका विधि-विधान ऋषिगणों ने किया। साथ ही ऐसी व्यवस्थाएँ भी रची कि उसे स्वाभाविक ही उत्थान की प्रेरणा मिलती रहे। स्वयं को देवमानव और ईश्वर का अंश सिद्ध करने योग्य बाल मिले। पर्व, त्यौहार संस्कार, कर्मकाँड, यज्ञ-याग, पूजा-पाठ, प्रार्थना आदि उपायों का उद्देश्य यही था। इन्हें सामूहिक और साँस्थानिक व्यवस्था के रूप में रचा गया।

संस्कार व्यवस्था मनुष्य को उत्थान के लिए प्रेरित करने वाले विधानों में एक थी। जन्म से पहले और मृत्यु के बाद तक संपन्न होने वाले इन कर्मकाँडों का प्रभाव व्यक्ति पर गहन रूप से पड़ता था। वैदिककाल से चली आ रही संस्कार व्यवस्था ने किसी समय पूरे समाज को आच्छादित कर रखा था। एक परिवार में विभिन्न सदस्यों के अलग-अलग संस्कार होते रहने से आए दिन किसी-न-किसी धर्म-आयोजन का उपक्रम चलता ही था। किसी का नामकरण हो रहा है तो किसी यज्ञोपवीत, उपनयन, किसी का विवाह, तो किसी का पुँसवन, नामकरण। सोलह संस्कार थे और परिवार में पाँच सदस्य भी हों, तो एक ही पीढ़ी में अस्सी आयोजनों का क्रम बैठता था। एक पीढ़ी की अवधि चालीस वर्ष भी मानें तो वर्ष में दो आयोजनों का औसत बैठ ही जाता है। आयोजनों में विविधता इतनी अधिक है कि प्रत्येक कार्यक्रम से जीवन के विविध पक्षों पर प्रकाश पड़ता है। परिवार के लोगों को ही नहीं, आयोजन में सम्मिलित होने वाले पास-पड़ोसियों और नाते-रिश्तेदारों को भी उन प्रेरणाओं से लाभान्वित होने का अवसर मिलता था।

संस्कार क्या है ? शबर मुनि के भाष्य को उद्भूत करते हुए पूज्य गुरुदेव ने लिखा है, “संस्कार वह प्रक्रिया है जिसे संपन्न करने के बाद कोई व्यक्ति या पदार्थ उपर्युक्त स्थिति में आ जाता है वह अपना अस्तित्व सार्थक करने लगता है। संस्कार एक आध्यात्मिक उपचार है। आयुर्वेदिक रसायन बनाने की प्रक्रिया में औषधियोँ पर कितने ही प्रभाव डाले जाते हैं, उन्हें संस्कार कहते हैं अनेक बार विभिन्न प्रकार के रसायनों को खरल में डालकर, तो कभी तपाकर, गला और जलाकर एक स्थिति तक पहुँचाया जाता है। उन प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद रांगा, जस्ता, ढाँबा, लौह, अभ्रक जैसी साधारण और कम महत्व की धातुएँ चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत करने वाली बन जाती है। उनमें संजीवनी सामर्थ्य आ जाती है। और वे मुरदों में भी जान फूँक देती है। मनुष्य को भी समय-समय पर इस तरह के आध्यात्मिक उपचारों से सुसंस्कृत बनाने की पद्धति भारतीय तत्त्ववेत्ताओं ने विकसित की। हजारों वर्षों तक देशवासियों ने उसका लाभ उठाया है।”

किसी युग में घर-घर संपन्न होने वाले ये संस्कार अंधकार युग में लुप्तप्राय हो गए। इस सदी के पूर्वार्द्ध तक लोगों को मुश्किल से दो-तीन संस्कारों का ही ज्ञान था। एक विवाह, दूसरा अंत्येष्टि और उसके बाद मरणोत्तर संस्कार। ब्राह्मण जाति के परिवारों में यज्ञोपवीत का भी कहीं-कहीं प्रचलन रहा। बाकी संस्कार लुप्त ही हो गए थे। लोगों को उनके नाम भी याद नहीं रहे। अब भी लाखों लोगों को नहीं मालूम कि संस्कारों की संख्या सोलह है। कौन-सा संस्कार किस अवसर पर संपन्न किया जाना चाहिए-इस बारे में तो संस्कृत-साहित्य ओर संस्कृति-दर्शन के गंभीर विद्यार्थी भी शायद ही बता पाएँ। गर्भाधान, पुँसवन, सीमाँतोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, कर्णवेध, उपनयन, विद्यारंभ, वेदारंभ, के शाँत, समावर्तन, विवाह, अंत्येष्टि, ओर मरणोत्तर संस्कार के सोलह नामों की स्मृति ही लुप्त हो चली। उनके प्रचलन की बात के बहुत दूर है। साँस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए पूज्य गुरुदेव ने युग निर्माण योजना का सूत्रपात किया, तो उसमें संस्कारों को पुनर्जीवित, पुनः प्रतिष्ठित करने के कार्यक्रम भी सम्मिलित किए गए।

गुरुदेव की दृष्टि में संस्कार आयोजन मात्र व्यक्ति का ही नहीं, पूरे कुटुंब को आत्मिक दृष्टि से विकसित करने वाली व्यवस्था रही है। उस व्यवस्था से गुजरने के बाद लोग एक स्थायी प्रभाव ग्रहण करते हैं। उदाहरण देकर गुरुदेव ने समझाया कि सामान्य ढंग से उथले मूड में दी गई शिक्षा या कही हुई बात की कोई कीमत नहीं है। मजाक में किसी की झूठी कसम भी खाई जा सकती है। लेकिन गंगा में खड़े झूठी कसम भी खाई जा सकती है, लेकिन गंगा में खड़े होकर गीता पर हाथ रखकर खाई गई कसम का महत्व ही कुछ और है। व्यभिचारी लोग अपनी प्रेमिका या प्रिय से लंबे-चौड़े वायदे करते हैं। उनका कोई महत्व नहीं है, पर विवाह, संस्कार के समय अग्नि की परिक्रमा करते हुए संपन्न की गई सप्तपदी ओर संकल्प वर-वधु को जीवन भर के लिए एक-दूसरे के प्रति निष्ठावान बना देते हैं वे एक-दूसरे की खामियों को सहते हुए भी साथ-साथ जीवन बिता लेते हैं। संस्कार प्रक्रिया अपनी विधि-व्यवस्था और वातावरण के कारण आयोजन को प्राणवान् बना देती है। व्यक्ति उस प्रभाव को जीवन में उतार लेता है।

1960 तक विवाह आदि संस्कारों का ही चलन था। गुरुदेव ने शतसूत्री युग निर्माण योजना का उद्घोष किया, तो यज्ञोपवीत संस्कार को सबसे पहले नई प्रतिष्ठा दी। आद्यशक्ति गायत्री भारतीय धर्म के सभी अनुयायियों की इष्ट-आराध्य है। यज्ञोपवीत उसी शक्ति की ऐसी प्रतिमा है, जो शरीर को आच्छादित करते हुए धारण की जाती है। गुरुदेव ने इसे पारिवारिक आयोजन के दायरे से बाहर निकाल ओर सामूहिक स्तर पर व्यवस्थित किया। गायत्री यज्ञों में लोगों को सामूहिक दीक्षा देना शुरू किया। शास्त्र तो पाँच-सात वर्ष उम्र में ही यह संस्कार करा लेने का निर्देश देते है। इस उम्र में एकाध प्रतिशत बच्चों के संस्कार भी नहीं होते। इसका अथ यह नहीं है कि समय चूक गए तो आगे कभी संस्कार कराया ही न जाए। गुरुदेव ने इस मान्यता को व्यर्थ बताया और जब जागे तभी सवेरा का सिद्धान्त अपनाने के लिए कहा। गायत्री यज्ञों में उन्होंने हर उम्र और स्थिति के लोगों को यज्ञोपवीत धारण कर सकने की व्यवस्था दी। शुरू में इस व्यवस्था का विरोध हुआ। सामान्य और घोर विरोध से लेकर बाधाएँ खड़ी करने के प्रयास भी हुए, लेकिन इससे संस्कृति के नवोन्मेष की प्रक्रिया रुकी नहीं, आगे ही बढ़ती गई। आज गायत्री यज्ञों ओर सामूहिक दीक्षा समारोहों में यज्ञोपवीत धारण करने, यज्ञीय जीवन जीने का व्रत लेने वालों की संख्या प्रायः आठ करोड़ से ऊपर पहुँच गई है। विश्व इतिहास में किसी भी मनीषी और युग प्रवर्तक ने इतनी बड़ी संख्या में लोगों को अपनी मूल परंपरा से नहीं जोड़ा होगा।

यज्ञोपवीत आधारभूत संस्कार है। बाकी पंद्रह संस्कारों में सभी का प्रचलन एक साथ करना व्यावहारिक नहीं था। गुरुदेव ने उनमें से आठ का चुनाव किया और कहा कि जिन्हें सुविधा हो वे सोलहों संस्कार संपन्न कराएँ नौ संस्कारों का चुनाव उनकी उपयोगिता और संभावना की स्थिति को ध्यान में रखकर किया गया है। चुने गए संस्कारों के नाम इस प्रकार हैं पुँसवन, नामकरण, मुँडन, (चूड़ाकर्म), विद्यारंभ यज्ञोपवीत, विवाह, वानप्रस्थ, अंत्येष्टि और मरणोत्तर संस्कार। नौ में से छह संस्कार जीते जी संपन्न कराए जाते हैं। पुँसवन जन्म से पहले और अंत्येष्टि तथा मरणोत्तर शरीर छूटने के बाद। नामकरण, अन्नप्राशन, मुंडन, विद्यारंभ, यज्ञोपवीत, विवाह और वानप्रस्थ (सोलह मान्य संस्कारों में वानप्रस्थ और संन्यास की गणना नहीं की जाती) की नई पद्धति निर्धारित हुई, वानप्रस्थ के साथ परिव्राजक संस्कार भी स्थापित किया गया जिसे पूज्यवर ने नवसंन्यास की संज्ञा दी। गुरुदेव ने उनके विधान में स्मृति ग्रंथों और प्रचलित पद्धतियों की विशेषताएँ तो अपनाई, लेकिन जटिलताएँ छोड़ दी। उनके स्थान पर आज के उपर्युक्त नई विशेषताओं को समावेश और कर दिया। निजी स्तर पर आयोजन की व्यवस्था जुटाना जिन लोगों को झंझट लगता था, उनके लिए सामूहिक यज्ञों में संपन्न कराने का रास्ता दिखाया। यह व्यवस्था बहुत लोकप्रिय हुई है और छहों संस्कार यज्ञ-महायज्ञ में उत्साहपूर्वक कराए जाने लगे। कहीं भी होने वाले छोटे-बड़े यज्ञों में दस-बीस से लेकर दस-बारह हजार विभिन्न संस्कार आराम से हो रहे हैं।

गुरुदेव ने जन्मदिवस और विवाहदिवस के दो नए संस्कारों की व्यवस्था दी। ऋषि और युग प्रवर्तकों को नई व्यवस्थाएँ देने का अधिकार स्वभाव सिद्ध है। नए संस्कारों का उद्देश्य व्यक्ति को अपने जन्म और जीवन का उद्देश्य स्मरण करने के साथ गृहस्थ धर्म की मूल भावना, मर्यादा ओर दायित्वों को भी याद कर लेता है। कहीं कोई भूल हो रही हो तो उसे दूर करना, निजी जीवन में उत्कृष्टता के समावेश के लिए नई योजनाएँ बनाना है। जन्मदिन ओर विवाहदिन मनोरंजन के रूप में तो कई जगह मनाए जाते हैं। संस्कार के रूप में मनाने का महत्व उत्सव के साथ उस अवसर की गरिमा और गंभीरता का निर्वाह करना भी है। इन अवसरों को संस्कार के रूप में मनाने वालों की संख्या बीस लाख से ज्यादा है। नोट किए जाने लायक है। कि नए संस्कारों का प्रवर्तन और परंपरा का पुनरुद्धार इस युग का भगीरथ कार्य हैं। संस्कारों के माध्यम से संस्कृति की गंगा को पृथ्वी पर बहा देने का पुरुषार्थ भगीरथ कार्य में बड़ा ही हो सकता है, जो युग-भगीरथ ने किया।


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