वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः

November 2000

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“धर्म-संस्कृति की रक्षा के लिए अकाल पुरुष या महाकाल बलिदान माँगता है। खौलता हुआ ताजा रक्त चाहिए किसी में साहस हो, तो आगे आए। अपना सिर कटवाए और अकाल पुरुष को तृप्त करे।” गुरुगोविंद सिंह का था यह आह्वान। चुनौती सुनकर सभा में सन्नाटा छा गया था। एक युवक साहस कर उठा ओर उसके पास आया। गुरु उसे परदे के पीछे ले गए। कुछ क्षण बाद लौटे, तो उनके हाथों में रक्त-रंजित तलवार थी। वही आह्वान फिर गूँजा, “है कोई ओर जो अपना सिर कटा सके।” फिर एक ओर युवक उठा। उसने अपने आपको बलिदान के लिए प्रस्तुत किया। वही प्रक्रिया दोहराई गई। इस तरह पाँच आत्मबलिदानी प्रस्तुत हुए। समारोह संपन्न होने की घोषणा से पूर्व गुरु ने उन पाँचों को पुकारा और एक-एक सभी परदे के पीछे से बाहर आ गए। गुरु ने किसी का सिर कलम नहीं किया था सिर्फ एक परख सामने रखी थी। जो अपने आपका बलिदान करने के लिए प्रस्तुत हो, वही व्यक्ति संस्कृति की रक्षा में समर्थ हो सकता है। अहंकार, कामना, तृष्णा, वासना, मोह-माया और भोग-लिप्सा आदि भावों से मुक्त हुए बिना कोई व्यक्ति राष्ट्र और संस्कृति का काम कर नहीं सकता।

पाँच प्यारों के बलिदान की यह गाथा सुनाते हुए परमपूज्य गुरुदेव युग निर्माण के सृजन सैनिकों को अहंता और ममता के बंधनों से मुक्त होने के लिए ही प्रेरित करते थे। अहंता, ममता का विसर्जन ही वह शिरच्छेद है। जिसके लिए गुरुगोविंद सिंह ने आह्वान किया था। यह विसर्जन अपने आपको मिटा देने की भावना से कम में संपन्न नहीं होता।

सन् 1957 में सहस्र कुँडी गायत्री महायज्ञ में गुरुदेव ने भी अपने आपको विसर्जित कर देने वाले मनस्वी जनों का आह्वान किया। उसके बाद से अब तक उन्होंने हर बार पुकारा। उनकी पुकार पर आँशिक या पूर्ण समर्पण का उत्साह लिए आए कार्यकर्त्ताओं की संख्या अब तक लाखों की संख्या पार कर गई होगी। संस्कृति के उन्नयन और नए युग की संभावनाओं को प्रकट करने के लिए उनके प्रयत्नों की समीक्षा जब भी की जाएगी, तो यही निष्कर्ष निकलेगा कि इन लोगों ने युग के प्रवाह को उलट दिया।

सन् 1957 के सहस्र कुँडी गायत्री महायज्ञ में गुरुदेव का संकल्प उभरा था। वैदिक मंत्र को उद्धृत करते हुए उन्होंने सृजन सैनिकों की ओर से युग को आश्वस्त किया था। वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः ‘अर्थात् हम पुरोहित राष्ट्र को जीवंत ओर जाग्रत बनाए रखेंगे। पैंतालीस वर्ष पहले दिया यह आश्वासन अभी तक पूरा होता आया है। ‘पुरोहित शब्द का आशय समझाते हुए गुरुदेव कहा करते थे, “पूजा-पाठ, यज्ञ-याग ओर कर्मकाँड आदि करा देने वालों का नाम पुरोहित नहीं है। यह कौशल कोई भी दिखा सकता है। अब ऐसी सुविधा भी है कि कर्मकाँडों ओर पूजा-विधियों के मंत्र विधान, और निर्देशों के कैसेट तैयार किए जा सकते हैं। उन्हें बजाकर अभीष्ट क्रियाकृत्य किए जा सकते है। पौरोहित्य वस्तुतः अलग ही श्रेणी का साहस है। जिसमें वह जागता हैं वह मनस्वी शूरवीर के बंधन ढीले होने लगते हैं जिस अनुपात में ये बंधन ढीले होते है उसी अनुपात में वह राष्ट्र को, समाज को जाग्रत रखने में तत्पर होने लगता है।

साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ, समयदानी, जीवनदानी, सृजन सैनिक जैसे पद-प्रत्यनों का उपयोग करते हुए गुरुदेव ने संस्कारवान् आत्माओं में पुरोहित भाव का ही आह्वान किया। यह पद नाम समय और समाज की जड़ता के कारण रुढ हो गया और पूजा-पाठ कराने वालों को ही पुरोहित कहा जाने लगा। वस्तुतः ऐसा है नहीं वैदिक काल में अब तक ऐसे अनेक प्रमाण है जिनमें राष्ट्र की आत्मा मूर्च्छित होने लगी, तो पुरोहितों ने ही उसे चेतन रखा। प्राचीनकाल में अश्वमेध, नरमेध, राजसूय, वाजपेय, वावस, राष्ट्र ऐद्रायण आदि विराट् यज्ञों में उस समय की विपत्तियों के निवारण-उपाय ही होते थे। इन उपायों में शास्त्र और मनीषा से विभूषित प्रतिभाएँ समाज का नेतृत्व सँभालती थी। उनके पास किसी तरह की लौकिक सत्ता नहीं होती थी। राज्य या समाज ने उन्हें दंड अथवा पुरस्कार देने का अधिकार नहीं दिया होता था। केवल अपने तप, उत्सर्ग, ज्ञान और निष्ठा के कारण वे लोक-श्रद्धा का अर्जन करते थे ओर उसी आधार पर समाज को उपर्युक्त दिशा देते थे।

लोक-श्रद्धा ही वह शक्ति है जो दूसरों से अपनी बात मनवा लेती है। दंड, पुरस्कार की क्षमता रखने वाली राजसत्ता कितने का सुधार कर पाती है ? वह अपराध और अनीति आदि पर अंकुश तो लगा लेती है। लेकिन अंतस् को नहीं बदल पाती। मौका मिलते ही लोग उन्हीं कर्मों में प्रवृत्त हो जाते हैं जिन्हें रोका गया है। परिवर्तन या आँतरिक स्तर पर सुधार की प्रेरणा श्रद्धास्पद व्यक्तित्वों से ही मिलती है आवश्यक बल भी वहीं से आता है। गुरुदेव कहते थे कि पारिवारिक और उत्सर्ग भावना से संपन्न व्यक्तियों को महाकाल माध्यम के रूप में चुनता है। जिनके द्वारा वह कायाकल्प कर देने वाली संजीवनी का वितरण करती है। पुरोहित अथवा सृजन सैनिक इस तथ्य को समझते हैं समझ के आधार पर वे इतने परिपक्व हो जाते हैं कि परिवर्तन प्रक्रिया को श्रेय लेने की भावना को ही वे अनधिकार चेष्टा के रूप में देखने लगते हैं श्रेयभाजन बनने की चेष्टा तो बहुत दूर की बात है।

गुरुदेव ने पहला पुरोहित किसे सुचा ? इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है। वैदिक अर्थों में पुरोहित-परंपरा के नए प्रवर्तन का तथ्यात्मक विवरण भी नहीं है। शोधकर्त्ताओं ने उनसे कभी पूछा, तो यही कहा कि गायत्री परिवार का जन्म ही इस परंपरा से हुआ है। पहला पुरोहित निश्चित करना ही अभीष्ट हो तो सविता देवता को मान सकते हैं स्थूल रूप में यह देवसत्ता पूरे विश्व को अपनी किरणों से जगाता, ऊष्मा देकर ऊर्जावान बनाता और पूरे दिन सक्रिय रखता है। उसके सभी उपासक पहले पुरोहित है।

पहले दूसरे के आधार पर वरीयता के निर्धारण का कोई औचित्य नहीं है। सविता देवता के तेज को जिसने जिस रूप में धारण किया और अपनी विभूतियों को समाज में बाँटा वह उतना ही पुरोहित है। प्रवाह के रूप पुरोहित परंपरा की समझना हो, तो वह महाकाल को पुकार पर उठ खड़े हुए सृजन सैनिकों के रूप में देख सकते हैं शक्ति से नहीं श्रद्धा से समाज को बदलने तत्पर हुए परिजनों के रूप में पुरोहित का नया जन्म हुआ मान सकते हैं आरंभ में गुरुदेव ने अपने समय और उपार्जन का एक अंश युग देवता के चरणों में चढ़ाने के तौर पर ही आह्वान किया था। उस श्रेणी के परिजनों की संख्या ही सबसे ज्यादा हैं। पहले से चले आ रहे प्रचलनों में देखना हो, तो गुरुद्वारों में घंटा-आधा घंटा या थोड़े ज्यादा समय के लिए सेवा के लिए जाने वाले श्रद्धालुओं को देखा जा सकता है। सिखों के गुरुद्वारों में भोजन बनाने, सफाई करने, व्यवस्था सँभालने, पहरेदारी करने जैसे कितने ही काम होते हैं। इनके लिए गृहस्थ लोग अपने व्यस्त जीवन से ही थोड़ा समय निकालकर प्रतिदिन सप्ताह में एक बार या सुविधा अनुसार किसी और क्रम में नियमित रूप से आते हैं अंशदानी कार्यकर्त्ताओं में इस भावना के साथ क्रियाकलापों की विविधता का भी विस्तार होता है युगदेवता की दृष्टि में उस अंशदान का महत्व कम नहीं है।

कार्यकर्त्ताओं में उत्साह, बढ़ने लगा, तो गुरुदेव ने समयदानी, जीवनदानी, और वानप्रस्थों की नई श्रेणियोँ निर्धारित की। वानप्रस्थ स्तर के समयदानी ओर जीवनदानी कार्यकर्त्ताओं की संख्या सहस्र कुँडी महायज्ञ के बाद दिनों-दिन बढ़ी। अगले बीस वर्षों में यह हजारों तक पहुँच गई। इस बीच गुरुदेव ने घर-परिवार के उत्तरदायित्वों से मुक्त या निवृत्त हुए लोगों को पूरा समय समाज की आराधना में लगाने के लिए कहा। उनसे जो पचास के हो चले शीर्षक से उनका आह्वान गायत्री परिवार में ही नहीं दूसरे क्षेत्रों-संगठनों में भी ध्यान से सुना गया। वह पुस्तिका कई सामाजिक संगठनों में कार्यकर्त्ताओं के लिए आज भी दिशा-निर्देश की तरह है।

पुरोहित-परंपरा के अभियान को पूर्णकालिक प्रतिष्ठा 1974 में छेड़े गए वानप्रस्थ आँदोलन से मिलने लगी। प्राण प्रत्यावर्तन अनुदान सत्रों के बाद शुरू हुए वानप्रस्थ विचारों में राष्ट्र को जीवंत और जाग्रत् रखने के लिए कटिबद्ध हो रहे परिजनों की जैसे बाढ़ आ गई। अगले दिनों एक से तीन महीने के वानप्रस्थ शिविरों में लोक-शिक्षण और कर्मकाँड का समन्वित अभ्यासक्रम चला। उस में ढलकर निकले परिव्राजकों ने अनवरत यात्राएँ की। शक्तिपीठों प्रज्ञा संस्थानों में इन्हीं परिव्राजकों, वानप्रस्थों या पुरोहितों ने लोक-शिक्षण का दायित्व सँभाला। अब उस परंपरा का व्यापक विस्तार हो चला है। पारिवारिक दायित्वों को पूरा कर चुके, लौकिक जीवन से निवृत्त हुए व्यक्ति ही नहीं, समाज में सक्रिय ओर व्यस्त जीवन जी रहे युवावर्ग भी पुरोहितों की पंक्ति में अपना नाम लिखा रहा है।

सेवा और शिक्षण की गतिविधियाँ सरकारें भी चलाती है। समाज कल्याण, साक्षरता, म़निषेध ओर दहेज उन्मूलन के लिए कई प्रकोष्ठ बने हुए है। गैर सरकारी स्तर पर स्वयंसेवी संगठन (एनजीओ) भी काम करते है। उनका उतना प्रभाव क्यों नहीं होता ? उत्तर एक ही है कि वे शुद्ध व्यवस्था बुद्धि से चलते हैं प्रबंधन और अनुदान, अर्थ-तंत्र पर निर्भर रहने वाले इन संगठनों या एजेन्सियों के कार्यकर्त्ताओं में लगन ओर निष्ठा की कमी नहीं होती। वे पूरे मन से काम करते हैं फिर भी उनका अपेक्षित प्रभाव नहीं होता। सिर्फ इसलिए कि उसके पास परंपरा की शक्ति नहीं होती।

परंपरा की शक्ति अर्थात् हजारों वर्ष की स्मृति ने लोक-मानस में धर्म क्षेत्र को उत्कृष्ट, सौम्य और आत्मीय भावों से सराबोर कर रखा है। वह अपने ही बीच का संस्थान है, लेकिन ऊँचाई पर बैठा हुआ, अत्यंत सौम्य और उदार है। जिसके सामने प्रणत होना ही पड़ता है और विशिष्ट होते हुए भी अत्यंत अपना-सा प्रतीत होता है। उसके सामने बैठकर अपनी पीड़ा को हल्का किया जा सकता है, रोया-धोया जा सकता है। और कठिनाइयों का समाधान भी पूछा जा सकता है। पुरोहित या श्रद्धा का केंद्र बना धर्म-क्षेत्र का प्रतिनिधि वह चरित्र है जो अगाध समुद्र में अकेली तैर रही नौका के यात्रियों में से ही एक है, लेकिन वह दिशाधारा तय करने में समर्थ है। बल्कि वही तय करता है। इसलिए राष्ट्र और समाज की सामर्थ्य का प्रतीक बना हुआ है। गुरुदेव ने पुरोहित के इस यथार्थ को प्रत्यक्ष, किया उसे आज के युग के अनुरूप आकार दिया। साथ ही अर्थ और गौरव भी।


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