देव पुरुष का अवतरण

November 2000

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ब्रजमंडल अपने आप में भारतीय संस्कृति की सारी मधुरता संजोए है। चैतन्य महाप्रभु, वल्लभाचार्य, रूप गोस्वामी, जीव गोस्वामी आदि संतों की साधना भूमि यही है। मीरा यहीं विह्वल हुई थीं। भक्त रसखान तो हर जन्म में ब्रजभूमि में ही रहना चाहते थे, भले ही उन्हें पशु-पक्षी, वृक्ष-वनस्पति यहाँ तक कि पाषाण होकर ही क्यों न रहना पड़े। ब्रज की धरती का यह साँस्कृतिक एवं आध्यात्मिक अनूठापन निश्चित ही विधाता को भी भा गया। तभी तो नियति ने अपनी अकाट्य लिपि लिखी। देवशक्तियों ने नवयुग की साँस्कृतिक चेतना के रूप में संस्कृति पुरुष परमपूज्य गुरुदेव के अवतरण का विधान बनाया।

दशरथ एवं कौशल्या, वसुदेव एवं देवकी की ही तरह पं. रूपकिशोर शर्मा एवं देवी दानकुँवरि को ऋषियों एवं देवों ने मिलकर चुना। पं रूपकिशोर शर्मा आगरा जनपद के आँवलखेड़ा ग्राम में रहने वाले जमींदार थे और देवी दानकुँवरि उनकी सहधर्मिणी थीं। इन ब्राह्मण दंपत्ति में ब्राह्मणत्व सच्चे अर्थों में साकार हुआ था। पं. रूपकिशोर जहाँ एक ओर भारतीय संस्कृति के प्रति अगाध निष्ठावान् थे, वहीं वह संस्कृति के ज्ञान-विज्ञान के विविध पक्षों में निष्णात भी थे। संस्कृत के असाधारण पाँडित्य के साथ ज्योतिष विद्या एवं आयुर्वेद शास्त्र पर उनका परिपूर्ण अधिकार था। भागवत के कथावाचक के रूप में देश के अनेक राजा-महाराजा उनका सम्मान करते थे। आस-पास के सामान्य जनों में भी उनके प्रति एक आँतरिक श्रद्धाभाव था।

देवी दानकुँवरी परम तपस्विनी नारी थीं। पवित्रता उनमें लिपटी सिमटी थी दाँपत्य जीवन के अनेक सुखद वर्षों के बाद उन्हें एक दिन लगा कि जैसे कोई ज्योतिर्मय चेतना उनके गर्भ में प्रवेश कर गई है। उस दिन से उन्हें अपूर्व उल्लास की अनुभूति होने लगी। उनके मुखमण्डल पर एक अलौकिक आभा आ गई। घर परिवार एवं अड़ोस पड़ोस की महिलाओं को उसने शरीर से यदा-कदा सुगंध का अहसास भी होता। इन महिलाओं में से प्रायः सभी को माँ बनने का अनुभव हो चुका था। वे गर्भ के लक्षणों से परिचित थीं, पर ये लक्षण तो कुछ और ही थे। इन महिलाओं में ऐ एक आध तो उनको जब-तब टोक भी देतीं, “लगता है तुम्हारी कोख में कन्हैया स्वयं आए हैं, तभी तो तुम्हारी ओर आजकल नजर टिकाकर देखना भी मुश्किल हो गया है। चेहरे पर नजर ही नहीं टिकती।”

देवी दानकुँवरि भी अपने में आए परिवर्तनों से चकित थीं। उनके मन में हर समय आध्यात्मिक पवित्रता की तरंगें उठती रहती थीं। जब से उनका गर्भकाल शुरू हुआ, उन्हें विचित्र सपने आने शुरू हो गए थे। ये सपने उनकी दृष्टि में विचित्र इसलिए थे, क्योंकि वह इनका अर्थ नहीं खोज पाती थीं। हालाँकि इन स्वप्नों को देखने के बाद वह गहरी आध्यात्मिक तृप्ति एवं उल्लास से भर जाती थीं। वह अपने स्वप्नों में प्रायः हिमालय के हिमशिखरों को देखतीं। यदा-कदा उन्हें यह लगता कि हिमालय के आँगन में तेजस्वी महर्षि बैठे यज्ञ कर रहे हैं। यज्ञ-मंत्रों की सस्वर गूँज से उनके मन-प्राण गूँज उठते थे।

कभी-कभी अर्द्ध निद्रा में उन्हें लगता कि सूर्यमण्डल से गायत्री महामन्त्र की ध्वनि तरंगें निकलकर उनके रोम-रोम में समा रही हैं। गायत्री महामन्त्र का इतना सस्वर एवं सम्मोहक पाठ उन्होंने कभी न सुना था। दोपहर को जब वह घर-गृहस्थी के कामों को निबटाकर थोड़ी देर के लिए विश्राम करतीं, तो उन्हें लगता कि अनेक देवी देवता उनके आस पास हाथ जोड़े खड़े हैं। जैसे वे सब उनकी स्तुति कर रहे हों। अपने इन स्वप्नों की चर्चा वह अपने पति से भी करतीं। उनके पति भी उनमें आए इन परिवर्तनों को देखकर चकित थे। वह उनको समझाते हुए कहते, लगता है तुम किसी देवशिशु की जननी बनने जा रही हो। यह कहकर पं. रूपकिशोर किसी अनजानी गहनता में खो जाते।

परन्तु ये तो जैसे सामान्य स्वप्न थे जो रोज-रोज दिखाई पड़ते थे। इनके अलावा उन्होंने गर्भकाल के नौ महीनों में नौ विशेष स्वप्न देखे। गर्भ के पहले महीने में उन्होंने देखा कि वह यमुना नदी पर गईं, जहाँ उन्हें चाँद तैरता हुआ दिखा। उन्होंने अपनी हथेलियों में चाँद लेकर नदी का पानी पिया और फिर उन्हें लगने लगा कि वही चाँद उनकी कोख में उतर गया है। दूसरे महीने में उन्होंने देखा कि किसी ने उनकी कोख को एक नीड़ बना लिया है और जब वह अन्तर में देखती हैं, तो हैरान देखती रह जाती हैं, क्या माँ को ईश्वर का दीदार कोख में से होता है।

तीसरे महीने में उन्हें सपना आया कि वह दही बिलोने बैठी हैं, तो दही की मटकी से मक्खन की जगह सूरज का गोला निकलकर आ जाता है। चौथे महीने जो सपना आया, उसमें उन्होंने देखा कि वह अपने घर के आँगन में बैठी गेहूँ फटक रही हैं, तो पूरा छाज सितारों से भर गया है। गर्भकाल के पाँचवे महीने में उन्हें सपने में एक ध्वनि सुनाई दी, जो जल-थल से उठ रही है। वह सपने में ही सोचने लगीं, क्या यह ममता का गीत है या ईश्वर की काया का गीत है ? और उन्हें हिरणी की तरह अपनी नाभि से कस्तूरी की सी सुगंध आती लगी। जब वह जागीं, तब भी उन्हें अपनी देह से सुगंध आती महसूस हो रही थी।

छटवें महीने में उन्होंने सपने में हिमालय स्थित मानसरोवर देखा, जहाँ से एक हंस उड़ता हुआ आता है और जगने पर उन्हें लगा कि हंस का पंख उनकी कोख में हिल रहा है। सातवें महीने में उन्होंने एक सपना देखा, जिसमें उनके आँचल में सूर्यमंडल से एक नारियल आ गिरा और घर के दरवाजे पर लोग-ही-लोग दिखाई दे रहे हैं, जो नारियल की गिरी का प्रसाद लेने के लिए आए हैं। आठवें महीने के स्वप्न में उन्हें जैसे एक अन्तर दृष्टि मिली। उन्होंने देखा कि वह बच्चे को पहनाने के लिए किरणों का कपड़ा बुन रही हैं। कपड़ा बुनते हुए उन्हें लगने लगा कि यह तो सच-सी वस्तु है। चाँद-सूरज की किरणें भी इसके लिए कोई कपड़ा नहीं बुन सकतीं।

और धीरे-धीरे गर्भकाल का नवाँ महीना भी लग गया। इस महीने भी उन्होंने एक सपना देखा। इस सपने में उन्हें लगा कि वह अपनी कोख के सामने माथा नवा रही हैं। देवी दानकुँवरि को इस स्वप्न में लगने लगा कि जो भी अपनी कोख में है, वह न अपना है, न पराया है, वह तो अजल का योगी है, सदाशिव है, संस्कृति पुरुष है, जो थोड़े समय के लिए मेरी कोख को धन्य करने आया है। स्वप्न में ही उन्हें लगा कि हवाओं में गीता के स्वर गूँज रहे हैं-”अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।”

यह गूँज उनकी आत्मा में समाती गई। इसका सम्मोहन इतना प्रबल था कि वह प्रसव-पीड़ा भी भूल गईं। जब तंद्रा टूटी, तब घर-परिवार के सदस्य उन्हें पुत्र-जन्म की बधाई दे रहे थे। पं. रूपकिशोर को जब पुत्र-जन्म का समाचार मिला, तो उन्होंने उसका नाम ‘श्रीराम’ रखा। उनकी ज्योतिष गणना के अनुसार बालक को भगवान् राम की तरह मर्यादाशील, महान् तपस्वी एवं देव संस्कृति का उद्धारक होना था। बालक श्रीराम की जन्म तिथि थी आश्विन कृष्ण त्रयोदशी वि. संवत् 1967। आज के कैलेंडर के अनुसार 20 सितंबर, 1911। यह दिन नवयुग की साँस्कृतिक चेतना के अवतरण का दिन बन गया। अब संस्कृति पुरुष के जीवन में देवसंस्कृति के विविध आयामों का विकास होना था।


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