पुरुषार्थ चतुर्ष्टथ के थे वे साकार भाव विग्रह

November 2000

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देवसंस्कृति जीवन में संतुलन व समग्रता बनाए रखने की सीख देती है। यदि यह सिखावन मानी जाए तो धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के रूप में पुरुषार्थ चतुष्टय का साकार होना इसकी स्वाभाविक परिणति है। संस्कृति पुरुष गुरुदेव के जीवन की शुरुआत प्रगाढ़ धर्म भावना से हुई। सामान्यक्रम में लोग धर्म को छिटपुट कर्मकाँडों, परंपराओं, कट्टरताओं एवं कतिपय रूढ़ियों के रूप में अपनाकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते है। परंतु गुरुदेव का मानना था कि नैतिकता, तत्वदर्शन एवं आध्यात्मिक साधना ये तीनों मिलकर धर्म को उसका समग्र स्वरूप प्रदान करते हैं।

होश सँभालते ही उन्होंने अनुभव किया कि नैतिकता, शिष्टाचार एवं सदाचार का मिला-जुला रूप है। पारिवारिक जनों, गुरुजनों के प्रति आदर भाव, मित्रों-कुटुँबियों के प्रति स्नेह-सौहार्द्र प्रारंभ से ही उनके जीवन में घुला-मिला था। बाद के दिनों में आगंतुक, अतिथिगण एवं अपने परिजन इसे सतत् अनुभव करते रहे। कई बार तो उनकी शिष्टता-शालीनता देखकर पास खड़े शिष्य वर्ग को स्वयं पर शर्म महसूस होने लगती थी। ऐसे कई घटना-प्रसंग है, जब उन्होंने बड़ी तत्परता से आगंतुक अतिथियों के लिए स्वयं उठकर कुरसी लाकर रखी। उनकी आध्यात्मिक विभूतियों से परिचित अतिथिगण उनके इस शिष्टाचार को देखकर नतमस्तक होते रहते थे।

सदाचार के तो वैसे वे मूर्त स्वरूप थे। बातचीत के क्रम में, गोष्ठियों में वह बताया करते थे कि शिष्टाचार बाह्य है तो सदाचार आँतरिक। मानसिक संयम एवं शमन से ही सदाचार सधता है। ये दोनों मिलकर नैतिकता की सृष्टि करते है। नैतिकता का तात्पर्य है, बाह्य जीवन में सामंजस्य एवं आँतरिक वृत्तियों का ऊर्ध्वमान। इसके परिपालन से जीवन ऊर्जा का क्षरण रुकता है। ओर आध्यात्मिक प्रगति का पथ प्रशस्त होता है। उनकी इन बातों से सदा ही अनुभूति का पुट रहता था। नैतिक मर्यादाओं की नींव पर ही उन्होंने अपनी आध्यात्मिकता का भव्य भवन खड़ा किया था। मार्गदर्शक के प्रथम मिलन के बाद से जीवन के अंतिम पलों तक वह गहन आध्यात्मिक साधनाओं में लीन रहे। अध्यात्म के विविध आयाम उनके जीवन में प्रत्यक्ष और प्रकट हुए। इनमें से बहुत कुछ ऐसा था, जिसे अध्यात्म के इतिहास में पहली बार सुना एवं जाना गया। विश्व राष्ट्र की कुँडलिनी का जागरण एवं ब्रह्माँड आनंदमय कोश का जागरण ऐसे ही तथ्य है।

उनके तत्त्वदर्शन का आधार भी उनकी आध्यात्मिक अनुभूतियाँ एवं उपलब्धियाँ ही रहीं। उनकी आँखिन की देखी ही उनकी कागद की लेखी बनी। यों तो वह नित्य प्रति प्रातः अपने तत्त्वदर्शन को शब्दों में गूँथते-सँवारते रहते थे, पर कुछ ऐसा भी लेखन था जो उन्होंने विशिष्ट साधनाकाल में हिमालय प्रवास में किया। उपनिषदों का भाष्य इन्हीं में से एक है। यह उन्होंने उत्तरकाशी में अपनी विशेष साधना के दौरान संपन्न किया। उन दिनों के एक प्रत्यक्षदर्शी श्री दिगंबर दत्त थपलियाल अभी कुछ दिनों पूर्व शाँतिकुँज आए। उन्होंने अपनी लगभग चालीस वर्ष पुरानी यादों में विभोर होते हुए बताया कि किस तरह परमपूज्य गुरुदेव एक गुफा में साधनारत रहकर उपनिषदों का भाष्य किया करते थे। अनवरत ध्यान और समाधि में निमग्नता, अवकाश मिलने पर उपनिषदों का भाष्य लेखन। ऐसा था तत्त्ववेत्ता का तत्त्वदर्शन लेखन।

धर्म के बाद अर्थ का प्रसंग आता है। संस्कृति पुरुष गुरुदेव कहा करते थे अर्थ का तात्पर्य विपुल संपदा से नहीं, वरन् उन साधनों से है जो जीवित रहने के लिए आवश्यक हैं। जिनके माध्यम से औसत भारतीय स्तर का निर्वाह बन पड़े उनका व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन उनके इन्हीं आदर्शों के अनुरूप था। वंदनीया माताजी के गहने-जेवर उन्होंने गायत्री तपोभूमि के निर्माण में लगा दिए। जो पैतृक संपत्ति मिली, वह लड़के-लड़कियों के लिए महाविद्यालयों के निर्माण में लग गई। निर्वाह के लिए उन्होंने बहुत थोड़ी-सी व्यवस्था जुटाई। जिसमें घर-परिवार की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाया करती थी। आने-जाने वाले आगंतुक-अतिथियों का स्वागत-सत्कार भी इसी में होता रहता था। संत कबीर की उक्ति,”साईं इतना दीजिए जामें कुटुँब समाय, मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाए।” यही थी उनकी अर्थ-नीति।

जीवन का तीसरा पुरुषार्थ है काम। गुरुदेव कहते थे, काम का अर्थ कामुकता नहीं, वरन् विनोद क्रीड़ा है। जिसका अर्थ होता है हँसते-हँसाते जीना। मिल-बाँटकर खाना। स्नेह ओर सहयोग बढ़ाना और उसकी परिधि में सुनिश्चित समुदाय को लपेटना। उनकी यह नवीन परिभाषा उन्हीं की जीवन शैली के अनुरूप थी। जहाँ में दांपत्य संबंधों की बात है, सो वह तो देह के तल से ऊपर उठक आत्मा के तल पर प्रतिष्ठित हो चुके थे। यहाँ तो लीलामय का भाव राज्य था, पर जैसा वह कहते थे कि काम का अर्थ उल्लास है तो वह पल-पल उल्लास बिखेरते रहते थे।

उनके पास उठने-बैठने का जिन्हें भी अनुभव है, वे अच्छी तरह जानते है कि वह किस तरह हास्य बिखेरते रहते थे। इन अगणित प्रसंगों में एक प्रसंग सन् 1969 के जाड़ों का है। शाम के चार बजे होंगे, चर्चा टिहरी बाँध की चल रही थी। उस दिन के अखबारों ने टिहरी बाँध टूटने के खतरे गिनाए थे। उनमें से यह भी था कि बाँध टूटने पर हरिद्वार सहित अनेक शहर-गाँव बह जाएँगे। पास बैठे एक शिष्य ने हँसी में कहा, तब तो गुरुजी आपका शाँतिकुँज भी नहीं रहेगा। गुरुजी इस पर खूब हँसे और चुटकी लेते हुए बोले, इसी डर से तू अपनी किताबें अपने घर रखता है लेकिन गंगा तो वहाँ भी है। अगर बाढ़ का पानी वहाँ तक पहुँच गया तो, ऐसा कर तू अपनी किताबें मुझे दे दे, मैं राजस्थान में कहीं रखवा दूँगा। गुरुजी ऐसी ने जाने कितनी बातें कहते रहे, चारों ओर निर्मल हास्य बिखरता रहा। फिर पल-दो पल चुप रहकर बोले, बेटा। अगर मेरा सब कुछ बह भी गया, मेरी पुस्तकें सबकी सब बह भी गई तो ऐसी दशा में उनका एक-आध पन्ना जब कभी किसी को मिलेगा, तो वह यह सोचने के लिए जरूर मजबूर होगा कि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य नाम का जो व्यक्ति था उसमें मनुष्य समाज, राष्ट्र एवं संस्कृति के लिए कितनी तड़प थी ? तभी तो उसके विचारों में कितनी क्राँति की आग है ? उसका हर शब्द तभी तो क्रान्ति की चिनगारी है और फिर से इन क्राँति बीजों से नई क्राँति का सूत्रपात हो जाएगा। ऐसा होता था उनका निर्मल हास्य। हँसी के बीच में वह कुछ अनोखा संदेश दे जाते थे।

काम के बाद मोक्ष का प्रसंग आता है। शास्त्रकारों ने इसे परम पुरुषार्थ कहा है। उन्होंने जीवनमुक्त, विदेहमुक्त जैसी श्रेणियाँ भी निभाई है। उन्होंने इनके लक्षण भी गिनाए है। यह बात शपथपूर्वक कही जा सकती है, जिन्होंने शास्त्रों को पढ़ा ओर उन्हें देखा, उनके पास बैठे तो उन्होंने परमपूज्य गुरुदेव में उन सारे लक्षणों को पाया। सच तो यह है कि वह स्वयं मोक्षस्वरूप ही नहीं, मोक्षप्रदाता भी थे। उनके पास रहने वाले अनुभव करते थे कि वह सदा-सर्वदा देहातीत है। देह तो बस उन आलोक पुरुष की छाया मात्र है। यह सत्य है कि धर्म, काम एवं मोक्ष इन पुरुषार्थ चतुष्टय के वह साकार भाव विग्रह थे। उनकी जीवन की यही भावानुभूतियाँ उनकी लेखनी से देवसंस्कृति की ज्ञान-गरिमा के रूप में व्यक्त हुई।

इंद्र का वैभव नष्ट हो चला। वे बड़े चिंतित हुए और राजर्षि प्रह्नाद के पास जाकर उसका कारण पूछा, प्रह्नाद ने बताया, राजन् तुमने अहिल्या जैसी सती-साध्वी का शील नष्ट किया है जब तक उसका प्रायश्चित कर पुनः शील संग्रह नहीं करोगे, अपने वैभव को भी बचा नहीं सकोगे। लोभी इंद्र ने अपने को प्रह्नाद का अतिथि बताकर उन्हीं का शील माँग लिया। प्रह्नाद ने अपना शील दान कर दिया। उनके शरीर से तीन ज्योति पुरुष निकले ओर बोले, हम सत्य, धर्म और वैभव है, तात! जहाँ चरित्र (शील) नहीं रहता, वहाँ हम भी नहीं रहते।

प्रह्नाद ने कहा, मैंने इंद्र को नेक सलाह देकर सत्य का तथा अतिथि को चायित वस्तु दान कर धर्म का ही पालन किया है। अतः आपका जाना उचित नहीं। फिर मैंने शील दान ही तो किया है। जिस जीवन देवता को आराधना से मैंने शील अर्जित किया था, उसे मैं पुनः संग्रह कर लूँगा। जाते हुए सत्य, धर्म और वैभव के चरण रुक गए और प्रह्नाद को अपने खोए चारों देव वापस मिल गए।

महामानव हर स्थिति में नगद भुनाने योग्य इस बहुमूल्य जीवन-संपदा को नष्ट नहीं करते। इसी कारण वे सम्मान पाते थे। तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में दैवी अनुदान भी।


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