उदार चरितानाम तु वसुधैव कुटुम्बकम्

November 2000

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जहाँ अपने समान ही मानव सबको लगता है तो उसका और भी विकसित रूप “वसुधैव कुटुम्बकम्” के भाव के रूप में दृष्टिगोचर होने लगता है। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की संवेदना के प्रखर होते ही निष्ठुरता-संकीर्णता गलकर नष्ट हो जाती है जी में अंतः में मात्र करुणा ही शेष रह जाती है। वह दिनों -दिन रत्तीभर कम न होकर बढ़ती ही जाती है। परमपूज्य गुरुदेव संस्कृति पुरुष युगद्रष्टा उस महामानव के जीवनक्रम को हम “वसुधैव कुटुम्बकम्” के भाव से सतत् अनुप्राणित पाते हैं वे अपनी अंदर की बात अपनों के समक्ष लिखते हुए कहते हैं, “ सुना है आत्मज्ञानी सुखी रहते है और चैन की नींद सोते हैं। अपने लिए ऐसा आत्मज्ञान अभी दुर्लभ है। ऐसा ज्ञान मिल भी सकेगा या नहीं इसमें पूरा संदेह है। जब तक व्यथा-वेदना का अस्तित्व इस जगती पर है जब तक प्राणियों को क्लेश और कष्ट की आग में जलना पड़े तब तक हमें भी चैन से बैठने की इच्छा न हो। जब भी प्रार्थना का समय आया, भगवान् से यही निवेदन किया। हमें चैन नहीं, वह करुणा चाहिए जो पीड़ितों की व्यथा को अपनी व्यथा समझने की अनुभूति करा सकें, हमें समृद्धि नहीं, वह शक्ति चाहिए जो आँखों के आँसू पोंछ सकने की अपनी सार्थकता सिद्ध कर सके।” (अखण्ड ज्योति फरवरी, 1971)।

उपर्युक्त पंक्तियों समष्टि के साधक सारी वसुधा को अपना परिवार मानने वाले एवं समाज देवता के आराधक के अंतस् की अभिव्यक्ति है। कितनी पीड़ा है कसक है इन शब्दों में तभी तो थोड़ा-सा ज्वर आने की स्थिति में जब परमवंदनीया माताजी द्वारा पूज्यवर को मुसम्मी का रस दिए जाने पर वे गले में डालकर उसे बाहर निकाल देते है व कहते है “शैलो! जिस दिन सारे अपने कार्यकर्त्ताओं को, इस विश्व वसुधा को यह मैं उपलब्ध करा सका, मैं निश्चित ही इसे पी लूँगा। अभी तो यह मुझे जहर, एक विलासिता मालूम होता है।” तभी तो दहेज के कारण जलने वाली बहुओं का वृत्ताँत पढ़ते ही उनका गला रुँध जाता है एवं वे लिखने लगते हैं, ‘6 विवाहोन्माद के महिषासुर का विचारक्राँति की देवी के तीखे त्रिशूलों से वध होकर ही रहेगा।” (अखण्ड ज्योति नवम्बर 1971)।

जब मानव का विकास इस स्तर पर हो जाए तो सारी धरित्री का कष्ट उसका कष्ट बन जाता है। उसका तप , उसकी समस्त साधना जगत् के निर्मित नियोजित होती है स्वामी विवेकानन्द के जीवन में एक महत्त्वपूर्ण घटना यहाँ उल्लेखनीय है। फिजी के पास प्रशाँत महासागर के एक द्वीप में हुए ज्वालामुखी विस्फोट एवं उससे फैले विषाक्त धुएँ से हजारों नागरिकों की पीड़ा उनकी दैनंदिन साधना में व्यवधान डाल उनके लिए प्रार्थना करने हेतु उन्हें विवश कर देती घटना की जानकारी जनमानस को बाद में होती है किंतु विश्वात्मा के एक घटक होने के नाते वे उसे पहले ही अनुभव कर अपने एक सेवक-शिष्य के समक्ष अपनी मनोव्यथा बेचैनी का बखान कर देते हैं। परमपूज्य गुरुदेव के जीवन के अनेक घटनाक्रमों में विश्व-वसुधा की कष्ट भरी घड़ियों में उनकी सहभागिता व उनकी उस अवधि में विशिष्ट साधना के ढेरों प्रमाण देखने को मिलते हैं।

वे अपने विषय में वास्तविकता उजागर करते हुए लिखते है, “कितनी बार हम बालकों की तरह बिलख-बिलख कर फूट-फूटकर रोए हैं इसे कोई जानता है ? लोग हमें संत, सिद्ध ज्ञानी मानते हैं कोई लेखक, विद्वान वक्ता, नेता समझते हैं पर किसने हमारा अंतःकरण खोलकर पढ़ा-समझा है ? कोई उसे देख सका होता, तो उसे मानवीय व्यथा-वेदना की अनुभूतियों के करुण कराह से हाहाकार करती एक उद्विग्न आत्मा भर इन हड्डियों के ढाँचे में बैठी बिलखती ही दिखाई पड़ती है।” (अखण्ड ज्योति फरवरी, 1991) विश्व मानव की तड़पन जब अपनी तड़पन बन जाए, जब जन-जन की व्यथा-वेदना को समाने खड़ा देख अपनी निज की पीड़ा से अधिक कष्ट अनुभव होने लगे तो यही अभिव्यक्ति होती है, “ दर्द और जलन ने हमें क्षणभर चैन से न बैठने दिया तो हम करते भी क्या ? जो दर्द से इठा जा रहा हो, वह हाथ-पैर न पटके, तो क्या करें ? “ (अखण्ड ज्योति फरवरी, 1971)।

एक-एक वाक्य लगता है कि समस्त वसुधा को अपना कुटुँब मानने वाले विश्व मानव की अपनी अंतः व्यथा का परिचायक है। आध्यात्मिक आदर्शों को व्यावहारिक जीवन में तालमेल बिठाते हुए विश्वात्मा की सेवा करते हुए आँतरिक प्रगति के पथ पर कैसे चला जा सकता है संस्कृति पुरुष का जीवन उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। ऐसा ही प्रयोगात्मक जीवन उन्होंने जिया।

नवनिर्माण में अनुरूप व्यक्तित्वों एवं परिस्थितियों का सृजन करने हेतु ही परमपूज्य गुरुदेव की चार हिमालय यात्राएँ संपन्न हुई। पूज्यवर ने इस नवनिर्माण का स्वरूप और तं. “वसुधैव कुटुम्बकम्” के आदर्श को व्यावहारिक रूप देने की आधारशिला पर ही खड़ा किया। ऐसे समाज में जब हम जातिवाद संकीर्ण संप्रदायवाद के आधार पर पूरे समुदाय को टूटता देख रहे थे। उन्होंने लिखा कि समस्त मानव-समाज को अगले दिनों एकता-आत्मीयता के मूल बंधनों के आबद्ध हो जाना है। नए युग के उनने कुछ आधारभूत आदर्श बताए थे। (1) एकता, (2) समता, (3) शुचिता (4) ममता। व्यामोहग्रस्त लोक-मानस को बदलकर न्यास एवं औचित्य के अनुरूप विवेकसम्मत बनाना निस्संदेह ही एक अत्यंत कठिन कार्य था, पर संस्कृति पुरुष ने उसकी पृष्ठभूमि विराट गायत्री परिवार के माध्यम से बनाने का संकल्प किया।

परमपूज्य गुरुदेव ने जून 1936 की अखण्ड ज्योति में लिखा है “नये विश्व का निर्माण एकता, समता, ममता, शुचिता की चार आधारशिलाओं पर निर्भर है। इन चारों को संसार के कोने-कोने में विभिन्न देशों और विचारों के व्यक्तियों में अलग-अलग ढंग से प्रतिष्ठापित परिपुष्ट एवं फलित किया जा रहा है। भारत में शतसूत्री युग निर्माण योजना उसी आधार पर यहाँ की परिस्थितियों के अनुरूप गतिशील की गई है।”

धर्म, संस्कृति भाषा, शासन के बीच अनेक प्रकार की विभिन्नताएँ-खाइयाँ पाटकर एकता की स्थापना करना एक भागीरथी कार्य है। वे लिखते है कि अगले दिनों ऐसे विश्वधर्म का विकास होगा, जो मानवीय आस्थाओं और प्रक्रियाओं को पशुता के स्तर से ऊँचा उठाकर देवत्व की दिशा में विकसित कर सकेगा। ऐसा विवेकपूर्ण धर्म मनुष्य-मनुष्य के बीच प्रेम और आत्मीयता उत्पन्न करने तथा अंतःकरण के दिव्य तत्त्वों के उत्कर्ष में सहायक होगा। धर्म के नाम पर विराजमान मूढ़मान्यताओं, व्यर्थ आडंबरों में लगी ज्ञानवान् शक्ति जब विश्वधर्म की विवेकसम्मत आदर्शवादी प्रतिष्ठापनाओं में नियोजित होगी, तब उसके रचनात्मक परिणाम इतने शानदार होंगे कि यह संसार स्वर्ग जैसा दिखाई देने लगेगा। मालूम नहीं निराशावादी क्या सोचते हैं परंतु आज क्रमशः विवेकवानों का ऐसा तबका उभरकर आ रहा है जो विज्ञानसम्मत धर्म-वैज्ञानिक अध्यात्मवाद को धुरी बनाकर जीने का माहौल बना रहा है।

सुस्थिर मानवी एकता के लिए साँस्कृतिक एकता जरूरी है। “ग्लोबल बिलेज’ बन गए विश्व में विज्ञान के आविष्कारों ने जिस तरह सबको एक-दूसरों के समीप ला दिया है तो साँस्कृतिक स्तर पर भी सर्वोपयोगी अंशों के समुच्चय के रूप में एक विश्व-संस्कृति स्थापित होनी चाहिए। इसी आधार पर जाति-पाँति का भेद मिटेगा। भारतीय संस्कृति में वे सारे मूल्य-गुण मौजूद है जो उसे विश्व संस्कृति बना सकें। ऐसा ही विकास अगले दिनों होने जा रहा है।

विश्व नागरिकता का, विश्व-बंधुत्व की भावना का यदि विस्तार होना है तो एक विश्वभाषा भी उसका आधार बनेगी। संस्कृत भाषा आज की कम्प्यूटर की भाषा के सबसे समीप पाई गई है। कोई आश्चर्य नहीं कि इक्कीसवीं सदी में वह विश्वभाषा बन जाए। राष्ट्रवाद के नाम पर पनप रही संकीर्णता युद्धों का मूल कारण है। अगले दिनों विश्वशासन ही समस्त राजनीतिक, सामाजिक समस्याओं का हल कर सकेगा। आज विश्व बाजार बना है, तो अगले दिनों एक आचार संहिता एक ही व्यवस्था का विकास असंभव नहीं है। ये चारों ही कार्य भावनात्मक परिष्कार पर टिकें है, जिसे परमपूज्य गुरुदेव ने गायत्री परिवार चिंतन की मूल धुरी बनाया, इसी निमित्त सारे कार्यक्रम जुटाए।

मानव-मानव के बीच असमानता आज जाति, लिंग धन, पद इन चार आधारों के कारण हैं। असमानता अस्वाभाविक है अवाँछनीय है। अज्ञान और अन्याय का सम्मिश्रित स्वरूप ही असमानता के रूप में प्रकट होता है। गोरे-कालों का भेद नस्लभेद, वर्णभेद को मिटाकर ही “वसुधैव कुटुम्बकम्” का आदर्श स्थापित किया जा सकेगा। जैसे राजतंत्र जमींदार समाप्त हो गए ऐसे ही अब वर्गतंत्र भी समाप्त होगा ऐसी परमपूज्य गुरुदेव की घोषणा है। आध्यात्मिक साम्यवाद की धुरी पर विश्वभर की व्यवस्था स्थापित होना भी अब अवश्यंभावी प्रक्रिया है उसी प्रकार परमपूज्य गुरुदेव ने ममता-आत्मीयता के विस्तार को तथा शुचिता-पवित्रता के आचरण में समावेश को भावी युग के निर्माण का आधार माना है।

जुलाई 1969 की अखण्ड ज्योति में पूज्यवर लिखते हैं “अपनों से अपनी बात कहते हुए हमें इन पंक्तियों द्वारा यह स्पष्ट कर देना है कि नया युग तेजी से बढ़ता चला आ रहा है। उसे कोई रोक न सकेगा। प्राचीनकाल की महान् परंपराओं की पुनः प्रतिष्ठा होनी है। महाकाल उसके लिए आवश्यक व्यवस्था बना रहे हैं और तदनुकूल आधार उत्पन्न कर रहे हैं युग का परिवर्तन अवश्यंभावी है। हमारा छोटा-सा जीवन इसी की घोषणा करने सूचना देने के लिए है। .... जिस काम के लिए हम आए थे पूरा होने को है। अगला काम महाकाल स्वयं करेंगे। उनकी प्रेरणा से एक-से-एक बढ़कर प्रतिभाशाली और प्रबुद्ध आत्माएँ सामने आएँगी। वे एकता, समता, ममता, शुचिता की मंगलमयी परिस्थितियों का शुभारंभ कर इस धरती पर स्वर्ग का वातावरण संभव कर दिखाएँगी।”

हममें से किसी को युगपुरुष के इस कथन पर अविश्वास नहीं करना चाहिए। ‘अयं निजः’ यह मेरा है, -परोवेति यह उसका गणनाँ लघुचेतसाम्’ ऐसी मान्यता संकीर्ण चिंतन वालों की होती है। उदार चरितानाम् तू’ भावनाशील उदार हृदय व आचरण वालों के लिए तो “वसुधैव कुटुम्बकम्” सारी विश्व-वसुधा ही एक परिवार होती है। ऐसा उदाहरण आज के युग में हम सबके समक्ष परमपूज्य गुरुदेव एवं परमवंदनीया माताजी के माध्यम से सामने आया। जो हमारा मार्गदर्शन आज भी कर रहा है। यही तो देवसंस्कृति के सृजन सैनिकों साधु ब्राह्मणों की आचार-संहिता बनने जा रहा है।


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