साँस्कृतिक संवेदना को मिला मूर्त रूप

November 2000

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संवेदना से संस्कार पनपते है, जिनसे संस्कृति अपना आकार लेती है। संस्कृति पुरुष परमपूज्य गुरुदेव के जीवन में चहुँओर यही सत्य बिखरा हैं जो भी उनसे मिलता गया, उनकी संवेदना का स्पर्श पाकर उनसे जुड़ता गया। श्रद्धासिक्त हृदय में वे संस्कारों का बीज डालते गए और आत्मीयता के सूत्रों में बँधता परिकर, परिवार का रूप लेता गया। इस तरह संस्कार और संवेदना दोनों ने मिलकर विराट् संगठन के रूप में गायत्री परिवार को जन्म दिया।

वस्तुतः परमपूज्य गुरुदेव साँस्कृतिक संवेदना के मूर्त रूप थे। यदि दो शब्दों में उनके व्यक्तित्व रूपी महासागर को समेटना हो, तो वे दो शब्द होंगे, प्रेम व करुणा। करुणा, प्रेम, छलकती संवेदना, उफनती भावनाएँ ही उनके व्यक्तित्व के उपयुक्त पर्यायवाची शब्द है। जो भी उनसे मिला, वही इस प्रेमरस का स्वाद चखकर निहाल हो गया। प्रेम का स्वाद पाकर औरों को भी करा देना, अपने में गहरी और दुःसाध्य साधना का अंतिम परिणाम है। सामान्य व्यक्तियों की बात तो दूर, महामानवों में से बहुत कम ही इस अंतिम सीढ़ी पर चढ़ सकने में सफल होते है।

परमपूज्य गुरुदेव का समूचा जीवन साँस्कृतिक संवेदना के विकास की दुष्कर तप साधना था। जिसका अंकुरण बचपन में ही उन्हें असहाय, बूढ़ी, कुष्ठ रोग से पीड़ित मेहरबानी की सेवा करने, कसाई के हाथ पड़ी गाय की जीवन रक्षा करने के लिए विवश करने लगा। धीरे-धीरे जीवन की हर चेष्टा संवेदना की कसक बन गई। इस स्थिति में उनकी अंतःभूमि की क्या दशा थी, उन्हीं के शब्दों में, “इन दिनों बहुत करके रात में जब आँख खुल जाती है, तो हमें विदाई का दृश्य दिखाई देने लगता है। स्मृति पटल पर स्वजनों की हँसती बोलती मोह ममता से भरी एक कतार उमड़ती चली आती है। सभी एक से एक बढ़कर प्रेमी, सभी एक से बढ़कर आत्मीय, सभी की एक से एक बढ़कर ममता। इस स्वर्ग में से हमें कोई कहाँ क्यों लिए जा रहा है ? इन्हें छोड़कर हम कहाँ रहेंगे ? कैसे रहेंगे ? कुछ भी तो सूझ नहीं पड़ता। आंखें बरसती रहती है और सिरहाने रखे वस्त्र गीले होते रहते हैं।’ (अखण्ड ज्योति जनवरी, 1971)।

संवेदना के उफान में सुख, सुविधा स्वार्थपरता एवं अपने पन आदि न जाने कहाँ विरोहित होते गए, गुरुदेव के शब्दों में, “अपने को क्या कुछ कष्ट या अभाव है, इसे सोचने को फुरसत ही कब मिली? अपने सुख-साधन चाहिए इस का ध्यान ही कब आया है। विलासिता की सामग्री जहर-सी लगती हैं विनोद और आराम के साधन जुटाने की बात कभी सामने आई, तो आत्मग्लानि से उस क्षुद्रता को धिक्कारा, जो मरणासन्न रोगियों के प्राण बचा सकने में समर्थ पानी एक गिलास को अपने पैर धोने की विडंबना में बिखेरने के लिए ललचाती है। भूख से तड़पकर प्राण त्यागने की स्थिति में पड़े हुए बालकों के मुख में जाने वाला ग्रास छीनकर कैसे अपना भरा पेट और भरे? दर्द से कराहते बालक से मुँह मोड़कर पिता कैसे शतरंज का साज सजाए ?” (अखण्ड ज्योति मार्च, 1971)।

“किसी का मूल्याँकन बहिरंग रूप से नहीं, उसकी संस्कार निधि द्वारा किया जाना चाहिए। किसी ने पूछा कौए का रंग कैसा है?” सीधा उत्तर था, काला पर विचारशील ने कहा,”नहीं, वह लाल और सफेद भी है। बाहर से न दीख पड़ने वाला उसका खून लाल और अस्थि-पंजर सफेद होता है।” बाहर से जो दिखता है वही सब कुछ नहीं है।”

संवेदना का यह जागरण, अपने सर्वस्व के उत्सर्ग का साहस भी साथ ले आता है। इसके बल पर, गुरुदेव के शब्दों में, “जो पाया उसका एक एक कण हमने उसी प्रयोजन के लिए खरच किया, जिससे शोक संताप की व्यापकता हटाने और संतोष की साँस ले सकने की स्थिति में थोड़ा योगदान मिल सके।” यही क्यों, वह तो अपना उदाहरण सामने रखते हुए हम -आपको भी निर्देश देते है, “नव निर्माण की लाल मशाल में हमने अपने सर्वस्व का तेल टपकाकर उसे प्रकाशमान रखा है। अब परिजनों की जिम्मेदारी है कि वे उसे जलते रखने के लिए अपने अस्तित्व के सार तत्व को टपकाएँ।”

साँस्कृतिक संवेदना का विकास एवं विस्तार जब समष्टि में हुआ, तो यह करुणा में बदल गई। यह स्थिति, जंगल की किसी अनजान पगडंडी के किनारे खिले एक गुलाब के फूल जैसी है, जो भी आता है, सम्राट हो या भिखारी, वही उसकी खुशबू एवं प्रेमिल मुस्कान से विभोर होता चला जाता है। कोई नहीं आए, तो भी वह अपनी सुरभि अनंत में फैलता रहता है। सुरभि बिखेरना, मुस्कान लुटाना उसकी स्वाभाविक अवस्था है। यह करुणा से ओत-प्रोत व्यवस्था को प्राप्त व्यक्ति के अंतः करण की भी स्वाभाविक अवस्था है।

परमपूज्य गुरुदेव के अंतःकरण में करुणा का यह उमड़ता सागर पुकार उठता है, “जब तक व्यथा-वेदना का अस्तित्व इस जगती में बना रहे, जब तक प्राणियों को क्लेश और कष्ट की आग में जलना पड़े, तब तक हमें भी चैन से बैठने की इच्छा न हो। जब भी प्रार्थना का समय आया, जब भगवान् से यही निवेदन किया, हमें चैन नहीं करुणा चाहिए, जो पीड़ितों की व्यथा को अपनी व्यथा समझने की अनुभूति करा सके। हमें समृद्धि नहीं, वह शक्ति चाहिए, जो आँखों से आँसू पोंछ सकने की अपनी सार्थकता सिद्ध कर सकें। बस इतना ही अनुदान-वरदान भगवान् से माँगा और लगा कि द्रौपदी को वस्त्र देकर उसकी लज्जा बचाने वाले भगवान् हमें करुणा की अनंत संवेदना से ओत-प्रोत करते चले जाते हैं।”

साँस्कृतिक संवेदना की परमावस्था अपनी व्यापकता में सघन शाँति, अविराम प्रसन्नता एवं गहरी एकात्मता के रूप में प्रकट हुई, जिसे ‘प्रेम’ कहते है। संवेदना के चरमोत्कर्ष की यह स्थिति, रामकृष्ण कहा करते थे, सबको उपलब्ध नहीं होती। उनके अनुसार तीन अतिमानव ही इसके रस को चख पाए। इनमें प्रथम हैं, राधा, दूसरे चैतन्य एवं तीसरे स्वयं रामकृष्ण । वर्तमान युग में पुनः श्री रामकृष्ण ने स्वयं ‘श्रीराम’ के रूप में आकर पुनः एक बार घोषित किया, “हमने एक ही रस चखा है, वह है प्रेम का।”

यह प्रेम ही तो परमात्मा है, जो सृष्टि के कण-कण में समाया है, पर सबसे अधिक जहाँ उन्होंने परमात्मा की घनिष्ठता अनुभव॰ की , इसे उन्हीं के शब्दों में कहे, “परिजन हमारे लिए भगवान् की प्रतिकृति है और उनसे अधिकाधिक गहरा प्रेम प्रसंग बनाए रखने की उत्कंठा उमड़ती रहती है। इस वेदना के पीछे भी एक ऐसा दिव्य आनंद झाँकता है, इसे भक्तियोग के मर्मज्ञ ही जान सकते है” आराध्य सता का यह भाव प्रवाह आज सूक्ष्म जगत् में और भी प्रखरता से विद्यमान् है। अपनी संवेदना थोड़ी भी जाग्रत में और भी प्रखरता से विद्यमान् है। अपनी संवेदना थोड़ी भी जाग्रत है, तो इस प्रवाह को अनुभव किया जा सकता है और यह तब तक बना रहेगा, जब तक कालजयी आत्मचेतना का अस्तित्व है। विश्वास न हो रहा हो, तो सुने उनकी वाणी, “लोगों की आंखें से हम दूर हो सकते है, पर हमारी आँखों से कोई दूर न होगा। जिनकी आंखें में हमारे प्रति स्नेह और हृदय में भावनाएं है। उन सबकी तस्वीरें हम अपने कलेजे में छिपाकर ले जाएंगे और उन देव प्रतिमाओं पर निरंतर आँसुओं का अर्घ्य चढ़ाया करेंगे। कह नहीं सकते, उस ऋण होने के लिए प्रत्युपकार का कुछ अवसर मिलेगा या नहीं, पर यदि मिला तो अपनी इन देव प्रतिमाओं को अलंकृत और सुसज्जित करने में कुछ उठा न रखेंगे। लोग हमें भूल सकते है, पर हम अपने किसी स्नेही को भूलेंगे नहीं।” (अखण्ड ज्योति फरवरी, 1979)।

प्रेम करुणा से भरी आराध्य सत्ता की साँस्कृतिक संवेदना ही गायत्री परिवार के रूप में महापूर्णाहुति के इन क्षणों में परिजनों के श्रद्धासिक्त एवं स्नेहिल हृदयों में छलकती एवं हिलोरें मारती देखी जा सकती है। जिनका प्रत्येक चरण गुरुसत्ता के पग चिह्नों का अनुगमन कर रहा है। गायत्री परिवार के परिजनों का हर प्रयास पूज्यवर की संवेदनामूलक साँस्कृतिक क्राँति को मूर्त रूप देने के लिए आगे बढ़ा है, जो मनुष्य, समाज, राष्ट्र एवं विश्व को एक भाव सूत्र में पिरोने के लिए तत्पर है।


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