“एक साधु ने अपने सो सकने जितने आकार की एक झोपड़ी बनाई। अकेला रहता था। वर्षा की रात में एक और साधु कहीं से आया। उसने जगह माँगी। झोंपड़ी वाले साधु ने कहा, इसमें सोने की जगह एक के लिए है, पर बैठे तो दो भी रह सकते है। इस प्रकार उन दोनों ने आधी रात काटी। इतने में एक तीसरा साधु और कहीं से भीगता हुआ आ गया। वह भी आश्रय चाहता था। झोपड़ी वाले साधु ने फिर कहा, जगह तो कम है, पर खड़े होकर हम तीनों रात काट सकते है। तीनों खड़े रहकर वर्षा से बचाव करते रहे। यदि अंदर उदारता हो, वसुधैव कुटुँबकम् का भाव हो, तो कम साधनों में भी अधिक व्यक्तियों का निर्वाह होता रह सकता है।”
लोकमान्य तिलक को अंग्रेज सरकार द्वारा 1906 में गिरफ्तार किया गया था ओर उन्हें सजा सुनाकर एक स्पेशल डिब्बे से अहमदाबाद लाया जा रहा था। रास्ते में एक स्टेशन पर साथ आए हुए एक योरोपीय पुलिस अफसर ने उन्हें पाव रोटी और पानी का गिलास लाकर दिया। लोकमान्य ने वे ले लिए और सहज भाव से रोटी खाने लगे। यह देखकर उस अफसर ने कहा, “ मि.तिलक, आप जैसे विद्वान् व्यक्ति को भी इस स्थिति में रहकर मात्र रोटी और पानी पर गुजारा करना पड़ रहा है। आखिर इसमें मजा क्या है ?” लोकमान्य ने शाँतिपूर्वक उत्तर दिया, “मेरे करोड़ों देशबंधु ऐसे है, जिन्हें दो जून पेटभर खाने के लिए रोटी भी नसीब नहीं होती। इस हिसाब से मेरे लिए यह रोटी का टुकड़ा भी बहुत है। मैं उन्हीं के उपयुक्त आहार स्वयं लेकर ही तो उनके लिए कुछ कर सकने योग्य बना हूँ।”