लोक शिक्षण करने वाले परिष्कृत धर्म-तंत्र के स्थापक

November 2000

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धर्म-तंत्र साँस्कृतिक संवेदना के संचार का उत्कृष्ट माध्यम है। इसके द्वारा लोक-शिक्षण का महत् कार्य व्यापक रूप से संपन्न किया जा सकता है। संस्कृति पुरुष परमपूज्य गुरुदेव की ये उक्तियाँ उनके रोजमर्रा के जीवन में अपनी सुस्पष्ट अनुभूति कराती रहती थी। धर्म-तंत्र का कोई भी पहलू अथवा कोई भी प्रसंग हो, उन्होंने इसे लोक-शिक्षण का समर्थ माध्यम बनाया और इसके द्वारा साँस्कृतिक संवेदना का अपरिमित भाव विस्तार किया। बात चाहे धार्मिक प्रवचन की हो या कर्मकांड की अथवा धार्मिक व्यक्ति के रूप में रहन-सहन की। उनके हर किस आयाम से ऐसा कुछ अनोखापन अभिव्यक्त होता था, जिसे ग्रहण कर सीखकर कोई भी अपना जीवन धन्य बना सके।

गुरुदेव के लेखन से तो अब भारत के जन-जन ही नहीं, विदेशों के बहुसंख्यक जन भी सुपरिचित हो चुके हैं अखण्ड ज्योति, युग निर्माण योजना, युगशक्ति गायत्री आदि मासिक पत्रिकाएँ उन्हीं की लेखनी की अभिव्यक्ति हैं संपूर्ण वाङ्मय के शताधिक खंडों में शाँतिकुँज गायत्री, तपोभूमि से प्रकाशित तीन हजार से भी अधिक पुस्तकों में उन्हीं की लेखनी का वैभव विस्तार है और यह उनके धर्म-तंत्र से लोक-शिक्षण को ही प्रकाशित-परिभाषित करता है किंतु इसके अतिरिक्त उनके प्रवचन है जो उन्होंने गायत्री तपोभूमि में शाँतिकुँज में तथा क्षेत्रों के विविध कार्यक्रमों में दिए। ये प्रवचन इधर कुछ वर्षों से अखण्ड ज्योति मासिक में “अमृतवाणी” के रूप में प्रकाशित भी हो रहे है इसके अतिरिक्त इनके आडियो कैसेट्स भी उपलब्ध हैं। इन सबको आज भी क्रमशः पढ़ा और सुना जा सकता है।

परंतु धन्य है वे लोग, जिन्होंने उन्हें प्रत्यक्ष सुना। बड़भागी है वे लोग, जिन्होंने धर्म-तंत्र से लोक-शिक्षण के उनके कौशल से सीधे लाभ उठाया। ऐसे बड़भागी और कृतकृत्य होने वाले अभी भी अनेकों परिजन है। इनकी संख्या एक-दो नहीं, सैकड़ों हजारों में है। इनमें से हर एक के पास अपनी अनुभूतियाँ हैं जो उन्हें गुरुदेव का प्रवचन सुनते हुए। बहुसंख्यक अनुभवीजन यह बात भाव-विभोर होकर सुनाते हैं कि गुरुदेव प्रवचन करते समय उपस्थितजनों का शंका समाधान कर दिया करते थे एक-दो नहीं सबके सब अपने मन में जो प्रश्न लेकर बैठते थे प्रवचनकाल में उन सबका उतर मिल जाया करता था।

ऐसे अनुभवीजनों में से एक बाराँ-राजस्थान निवासी डॉ. फूलसिंह यादव है। डॉ. यादव चिकित्साशास्त्र में एम.डी. है और शाँतिकुँज के प्रारंभिक दिनों से शिविरों में भाग लेते रहे हैं ये अनुभवी एवं सुविख्यात चिकित्सक होने के साथ अपने क्षेत्र में गायत्री परिवार के कर्मठ-समर्पित कार्यकर्त्ता हैं उन्हीं के शब्दों में इन दिनों गुरुदेव दिन में दो बार प्रवचन करते थे। अपने कक्ष से प्रवचन मंच तक आने का उनका स्वरूप बड़ा ही मोहक होता था। उनमें वज्रवत् दृढ़ता एवं विद्युत की तेजी एक साथ दिखाई देती थी वह तेजी से चलते हुए प्रवचन मंच तक आते थे। उनके शरीर के वण् में परिवर्तन होता रहता था, परंतु सर्वदा उनमें सुनहले रंग की आभा दीख पड़ती। प्रचलन आरंभ करने के साथ ही उनका मुखमंडल तेजी दीप्त हो जाता और ऐसा लगने लगता कि मानों उनका पूरा व्यक्तित्व ही परिवर्तित हो गया है।

“उनके प्रवचन के प्रत्येक शब्द से उनकी आत्मिक शक्ति की समर्थता व प्रचंडता अभिव्यक्त होती थी उनके शब्द श्रवण की अपेक्षा अनुभूत ही अधिक होते थे। प्रत्येक प्रवचन में गुरुदेव के शब्दों ने मुझे अस्तित्व के एक ऐसे सागर में उच्चतर अनुभूति के भावों में डुबो दिया कि व्याख्यान समाप्त हो जाने पर वहाँ से लौटना बड़ा पीड़ादायी प्रतीत होता था। प्रवचन करते समय पूज्य गुरुदेव के नेत्र क्या ही अद्भुत होते थे। वे मानो प्रज्वलित नक्षत्रों के समान थे प्रतिक्षण उनसे से आलोक निकलता रहता था। अपने शब्दों से गुरुदेव धर्म की व्याख्याओं के माध्यम से जीवन जीना सिखाते थे। संस्कृति की वर्तमान दुर्दशा का वर्ण करते हुए उनकी आँखों से संस्कृति संवेदना झरने लगती। श्रोताओं के मन और आँखें भीग जाती। उनका हर शब्द बिना किसी प्रयास के आत्मा के समाता चला जाता। उनके प्रवचनों की स्मृतियाँ मेरे मन में अब भी ताजी हैं और चिरकाल तक वैसी ही रहेंगी।

डॉ. यादव की ही भाँति और भी अनेकों हैं, जिन्होंने गुरुदेव से प्रत्यक्ष रूप में धर्म-तंत्र से लोग-शिक्षण का पाठ पढ़ा है। गुरुदेव के प्रवचन ही नहीं, उनका समूचा व्यक्तित्व, उनके जीवन के छोटे-छोटे क्रियाकलाप एक सिखावन देते रहते थे। धार्मिक व्यक्ति का आदर्शतम स्वरूप क्या होना चाहिए, यह उन्हें नजर भर देखने से पता चल जाता था। वह ऐसा उत्कृष्ट साँचा थे। कि उनके अनुरूप जो भी स्वयं को ढाल सके, उसका स्वरूप अपने आप ही निखर आएगा। उनका रहन-सहन, रीति-नीति, लोक व्यवहार सब कुछ लोक-शिक्षण करता रहता था। वह कहा करते थे “लोक-शिक्षण बातों से नहीं, व्यक्तित्व से संभव बनता है।” उनकी यह उक्ति उन्हीं पर खरी प्रमाणित होती है।

धार्मिक कर्मकाँडों को भी उन्होंने अभिनव स्वरूप प्रदान किया। रूढ़ियों में कर्मकाँड किस कदर उलझ गया था, इसे अपने देश का जन-जन जानता है। कर्मकाँड क्यों और किसलिए ये प्रश्न तो जैसे निरर्थक थे बस कर्मकाँड के विधि-विधान एक परंपरा थे, जिनकी रीति निभाई जानी थी न लोक पीटी जानी थी। गुरुदेव ने कर्मकाँड को उद्देश्यपूर्ण एवं भावपरक बनाया। इसके माध्यम से संस्कृति के उच्चतम आदर्शों को जन-जन में प्रतिष्ठित करने की एक विशालकाय परियोजना तैयार की। इस क्रम में कर्मकाँड की जो पहली पुस्तक दो खंडों में प्रकाशित हुई, उसका नाम भी था। धर्म-तंत्र से लोक-शिक्षण।

कर्मकाँड का विधान-विज्ञान अनूठा है। इसका प्रत्येक मंत्र अपने आप में एक निश्चित संदेश लिए हुए है जिसे सुनिश्चित समय में और समुचित रीति-नीति के साथ दिया जाना है। मंत्रों के साथ तद्नुरूप मनोवैज्ञानिक एवं भावनात्मक माहौल भी पैदा करने का विधान है ताकि शिक्षण समुचित एवं उच्चस्तरीय बन सके। पुँसवन संस्कार के मंत्र गर्भवती नारियों को सामयिक एवं उचित रीति से प्रशिक्षण करते थे इसी तरह विवाह संस्कार आदि के बारे में भी यही बात है इनमें से हर एक के लिए नियम समय है और उसी के अनुरूप विधि-विधान है। कहना न होगा कि गुरुदेव ने कर्मकाँड के सभी विज्ञान-विधान को समय के अनुसार स्वयं सँजोया-संकलित किया और युगानुरूप इनकी व्याख्याएँ की हैं।

इस सारे कार्य के साथ उन्होंने पुरोहित भी तैयार किए। पहले के दिनों में तो वह सारा काम स्वयं करते थे, पर बाद में उनके सिखाए लोग धर्म’-तत्र से लोक-शिक्षण के कार्य को गति देने लगे। शुरुआत में कर्मकाँड के इस अभिनव स्वरूप का कट्टरपंथियों ने विरोध किया, पर उनका यह विरोध कारगर साबित नहीं हुआ, क्योंकि बुद्धिजीवी वर्ग के लोग खुलकर सामने आए। उन्होंने गुरुदेव की बातों को, उनके बताए साँस्कृतिक आदर्शों को बड़ी तत्परता से ग्रहण किया। तब तो लगातार ऐसे उदाहरण सामने आ रहें हैं, जिनमें पता चलता है कि कट्टर मान्यता वाले लोग भी संस्कृति पुरुष द्वारा रचे गए कर्मकाँड का ही प्रयोग करने लगे हैं धर्म-तंत्र से लोग-शिक्षण की रीति में उनका विश्वास प्रगाढ़ हो चला है। आखिर संस्कृति पुरुष गुरुदेव का समग्र जीवन इसी का पर्याय जो था। इसी की अभिव्यक्ति तो देवसंस्कृति की उस ज्ञान-गरिमा के रूप में प्रकट हुई, जिसकी अभिव्यक्ति हम आत्मवत् सर्वभूतेषु’ के रूप में पूज्यवर के जीवन में देखते है।

स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद सुभाव ने कॉलेज में दाखिला लिया। उस कॉलेज के अंग्रेज अध्यापकों में एक मिस्टर सी.एफ. औटन भी थे। उनमें एक बुरी आदत थी। वह बात-बात में भारतीय जीवन का मजाक उड़ाते थे। उनके प्रति घृणा पैदा करना वह अपना परम धर्म मानते थे। सुभाष को उनका यह व्यवहार कतई पसंद न था। वह उनकी इस आदत को छुड़ाना चाहते थे। एक दिन उनको मौका मिल गया। रोजाना की तरह ओटन साहब ने भारतीय जीवन का मजाक उड़ाना शुरू किया। पहले तो सुभाष चुप बैठे रहे। सुनते-सुनते उन्हें अपने देश का अपमान सहना असह्य हो उठा। वह तिलमिलाकर अपनी सीट से उठ खड़े हुए। चट से आगे बढ़े और उस गोरे अध्यापक के मुँह पर थप्पड़ जड़ते हुए बोले, “भारतीयों में अभी भी स्वाभिमान जीवित है। जो कोई इस तथ्य को भूलकर उसे चुनौती देगा, उसे इसी तरह मार खानी पड़ेगी।”


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