ऋषि-परंपराओं को नवजीवन दिया युगऋषि ने

November 2000

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जून 1971 में हुई संस्कृति पुरुष गुरुदेव की हिमालय यात्रा, पिछली सभी यात्राओं से कही अधिक अनूठी थी। हिमालय की गहन रहस्यमयता एवं सघन दिव्यता के बीच उनके मार्गदर्शक ने उन्हें बड़े विश्वास से निहारते हुए कहा, “इस बार यहाँ की समर्थ ऋषि सत्ताओं ने तुम्हें युगऋषि का दायित्व सौंपने के लिए बुलाया है। अपने समय में संस्कृति सृजेता इन ऋषिगणों ने अपने हिस्से के काम सँभाले और पूरे किए थे। उन दिनों ऐसी परिस्थितियाँ, अवसर और इतना अवकाश भी था कि समय की आवश्यकता के अनुरूप अपने-अपने कार्यों को वे धैर्यपूर्वक उचित समय में संपन्न करते रह सकें, पर अब तो आपत्तिकाल है। इन दिनों अनेकों काम एक ही समय में द्रुतगति से निपटाने हैं।”

“इसके लिए महान् ऋषियों ने तुम्हें चुना हैं ये ही तुम्हें कार्य के अनुरूप प्रेरणा, दिशा एवं सहायता जुटाते रहेंगे। इनकी समन्वित शक्ति-सामर्थ्य तुम्हारे माध्यम से अभिव्यक्त होगी। तुम्हें बस युग के अनुरूप इन समर्थ ऋषिगणों की सुप्त हो चुकी परंपराओं को जाग्रत् एवं जीवंत बनाना है। इसे यों भी कह सकते हैं कि पुरातनकाल में इन महर्षियों द्वारा संचालित-अन्वेषित परंपराओं को नवजीवन देना है। मार्गदर्शक ने बातों-ही-बातों में यह भी बताया कि युग परिवर्तन का जो कार्य किया जाना है, वह होना तो भगवान् की इच्छा-योजना के आधार पर ही है, पर भगवान् हमेशा ही अपने कार्य का श्रेय उस युग की श्रेष्ठतम जीवनमुक्त ऋषिकल्प आत्मा को देते हैं। वर्तमान युग में वह तुम हो और तुम्हारे माध्यम से यह श्रेय तुम से, तुम्हारे विचारों एवं आँदोलन से जुड़े लाखों-करोड़ों नर-नारियों को मिलेगा।”

अपने मार्गदर्शक की यह बात गुरुदेव को अत्यंत प्रीतिकर एवं सुखकर लगी कि श्रेय उनकी शिष्य-संतानों, कर्मठ कार्यकर्त्ताओं को मिलेगा, पर उनके हृदय में पुरातनकाल के ऋषिगणों के बारे में जानने की जिज्ञासा अंकुरित हो रही थी। उनके हृदय में उठते स्पंदन सम्मुख खड़े देवपुरुष से छिपे न रह सके। उन्होंने बताना शुरू किया, अब पुरातनकाल के ऋषियों में से प्रायः किसी का भी स्थूलशरीर नहीं है, पर सूक्ष्मशरीर में उनकी चेतना अभी भी निर्धारित स्थानों में मौजूद है, इन्हीं की कार्यपद्धति अपनानी है। उन्हें यह भी बताया गया कि शाँतिकुँज हरिद्वार में देवात्मा हिमालय का प्रतीक विनिर्मित करना है और वहीं से ऋषि-परंपरा को इस प्रकार क्रियान्वित करना है, जिससे युग परिवर्तन की प्रक्रिया का गतिचक्र सुव्यवस्थित रूप से चल सके।

अब बारी इन महर्षिगणों से मिलने की थी। अपने मार्गदर्शक के साथ गुरुदेव अद्भुत-अकल्पनीय रीति से हिमालय के और भी अधिक गहन व सघन रहस्यमय क्षेत्र में पहुँचे। वहाँ पहुँचने पर ऐसा कुछ लगा कि इन महर्षियों-संतों की आत्माएँ इन गुरु-शिष्य के आगमन से पहले ही अवगत थी। वहाँ विश्वामित्र सहित सभी सप्त ऋषिगण थे। इनके अलावा भगवान् परशुराम, वेदव्यास, देवर्षि नारद, आद्य शंकराचार्य, महर्षि पतंजलि आदि लोकोत्तर देवपुरुष थे। चैतन्य महाप्रभु, संत ज्ञानेश्वर एवं गोस्वामी तुलसीदास आदि संतों की उपस्थिति कार्य की गुरुता एवं उसके अलौकिक महत्त्व को दिखा रही थी।

इन सभी ने जो कहा, उसका सार यही था कि युग परिवर्तन के लिए जितनी आकुलता व उत्साह स्थूल जगत् में है, उससे कहीं अधिक भाव तरंगें सूक्ष्म जगत् में उमंग रही है। कार्यकर्ताओं की कर्मठता व कर्म-कुशलता का जो उफान एवं तूफान स्थूल जगत् व लौकिक रूप में दिखलाई पड़ता है, संतों-महर्षियों व देवपुरुषों की सूक्ष्म सक्रियता इससे अनेकों गुना अधिक हैं सभी कठोरतम तपश्चर्या व गुह्य-गहन साधनाओं के द्वारा प्रभु के संकल्प को मूर्त करना चाहते है। सबने अपने-अपने ढंग से इस बात का आश्वासन दिया कि जो भी हमारी परंपरा को आगे बढ़ाने में सहायक होगा, उसे हम अपनी तप-शक्ति का बहुमूल्य अंश प्रदान करेंगे।

गुरुदेव से कहा गया कि तुम महर्षियों द्वारा अन्वेषित-संचालित परंपराओं का बीजारोपण शाँतिकुँज में करो। हिमालय की दिव्य ऊर्जा उसे पोषित संवर्द्धित करेगी। हिमालय के अलौकिक अनुदानों एवं महर्षियों के दिव्य अनुबंधों को साथ लिए संस्कृति पुरुष गुरुदेव शाँतिकुँज आ गए और उन्होंने विश्वामित्र की गायत्री साधना, महर्षि पतंजलि की योगविद्या, वेदव्यास का लेखन, भगवान् परशुराम का विचारक्राँति अभियान, याज्ञवल्क्य का यज्ञ विधान, देवर्षि नारद का संगीत, महर्षि चरक का आयुर्वेद आदि सभी ऋषि-परंपराओं को नवजीवन देना शुरू किया।

आज ये और ऐसी अनेक ऋषि-परंपराएँ शाँतिकुँज से संचालित हो रही है। हिमालय के समर्थ ऋषिगणों के तप-अनुदानों से इनकी गति अनुदिन बढ़ती जा रही है। इन समर्थ ऋषियों ने युगऋषि गुरुदेव को एक आश्वासन और भी दिया था कि वे स्वयं भी शाँतिकुँज में सूक्ष्म रूप से निवास कर इस परिसर की दिव्यता में अभिवृद्धि करेंगी। महर्षियों के आश्वासन, उनकी परंपराओं के रूप में पुष्पित-पल्लवित हो रहे हैं-इस दृश्य सत्य को तो हम सभी देखते है, पर कतिपय सूक्ष्मद्रष्टा समर्थजन ऐसे भी हैं, जो युगऋषि के साथ समर्थ महर्षियों के सूक्ष्म सत्य को भी देखकर विभोर होते रहे है।

ऐसे ही एक दिव्यदृष्टा समर्थ पुरुष पं. मदनमोहन मिश्र सन् 1990 के अगस्त महीने में पधारे थे। दरअसल इन्हें एक साधनाजन्य अनुभूति इन्हें यहाँ ले आई थी। इन्होंने परमपूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी का भगवान् शिव एवं आदिमाता पार्वती के रूप में साक्षात्कार किया था। पं. मदनमोहन मिश्र अपनी तप-शक्ति व योग-सामर्थ्य से कठिन-से-कठिन लौकिक कार्यों को तुरत-फुरत कर देते थे। जब उनसे पूछा गया कि ऐसी अतुलनीय सामर्थ्य के स्वामी होते हुए वह यहाँ क्यों आए हैं, तब उन्होंने अपनी अनुभूति का भेद खोला। उन्होंने थोड़ा दुखी होते हुए कहा, लगता है मेरी तप-साधना में कुछ न्यूनता है, तभी तो गुरुदेव ने अपना रहस्य जीते-जी मेरे ऊपर प्रकट नहीं होने दिया। अब तो मैं वंदनीया माताजी से दीक्षा लेने आया हूँ, ताकि मरने से पूर्व मेरा कल्याण हो सके।

उन्होंने अपने शांतिकुंज आगमन के दूसरे दिन दो अगस्त, सन् 1990 को एक विलक्षण बात कही, अरे शाँतिकुँज तो धरती की अद्भुत जगह है, यहाँ देवता एवं ऋषिगण सूक्ष्म शरीर से भ्रमण करते है। जिससे उन्होंने बताया, उसने उनसे यह पूछा, यह सब आपको कैसे दिखाई दिया, तो वे बोले, इसमें खास बात क्या है, आज्ञाचक्र का पूर्ण विकास होने पर तुम भी इसे देख सकते हो। अपने बातचीत के क्रम में उन्होंने यह भी कहा, गुरुदेव युगऋषि हैं, युगावतार है, शिवस्वरूप साक्षात् महाकाल हैं। उनकी बातों पर शंका करने जैसी कोई बात नहीं है। उनकी बातों को अभी भले ही कोई न समझे, पर इक्कीसवीं सदी का पहला दशक पूरा होते-होते दुनिया जानेगी कि उन्होंने क्या किया पं. मदनमोहन मिश्र ने तो मई 1991 में अपना शरीर छोड़ दिया, पर उनकी अनुभूतियाँ अभी भी सत्य है। इस आध्यात्मिक सत्य को ही बोधगम्य, बुद्धिगम्य बनाने के लिए संस्कृति पुरुष गुरुदेव ने वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का प्रवर्तन किया।


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