रामकृष्ण परमहंस की माता एक बार कलकत्ता आईं और कुछ समय स्नेहवश पुत्र के पास रहीं। दक्षिणेश्वर मंदिर की स्वामिनी रासमणि ने उन्हें गरीब और सम्मानास्पद समझकर तरह-तरह के कीमती उपहार भेंट किए। वृद्धा ने उन सभी को अस्वीकार कर दिया और मान रखने के लिए एक इलायची भर स्वीकार की।
उपस्थित लोगों ने कहा, ऐसी निस्पृह माताएँ ही परमहंस जैसे पुत्र को जन्म दे सकती हैं।
गोपालकृष्ण गोखले निर्धन अवस्था में पलकर बड़े हुए। आरम्भिक शिक्षा तो पूरी हुई। कॉलेज की ऊँची पढ़ाई का प्रश्न आया। ऐसे में भाई-भाभी मदद को आगे आए। उन्होंने आभूषण बेचकर प्रारंभिक फीस भर दी। स्वयं भाई को पन्द्रह रुपये मासिक वेतन मिलता था। ऐसे में निर्वाह के लिए आठ रुपये रखकर शेष सात वे छोटे भाई को दे देते थे। पढ़ाई पूरी हुई। गोखले को नौकरी मिली व 35 रुपये प्रतिमाह पर वे अध्यापक बने। रोम-रोम तक उपकार से भरे गोपाल ने कृतज्ञतापूर्वक मात्र 10 रुपये अपने खरच को रख बीस रुपये प्रतिमाह उन्हें जीवन भर भेजे, कर्ज चुकाने के लिए नहीं, समय पर निबाहें कर्त्तव्य ममता की प्रतिक्रियास्वरूप श्रद्धाँजलि रूप में। ऐसे भाई जिसे मिले और ऐसा अध्यवसायी-नैतिक जिसका जीवनक्रम रहा हो, वह व्यक्ति आगे चलकर स्वतन्त्र संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सका।