“आँधी का तेज झोंका आया और वृक्ष को जड़ से उखाड़कर नीचे गिरा गया । वृक्ष को धरती पर बड़ा गुस्सा आया। बड़बड़ाते हुए बोला ‘आज जो मेरी दुर्गति हुई, उसके लिए तू ही उत्तरदायी है। तूने मेरी खुराक बंद कर दी। एक दो दिन की बात होती, तो मैं सहन कर लेता। मैं भूख और प्यास से तड़प-तड़पकर सूख गया और तूने मेरे साथ यह निर्दयता दिखाई। अब भूमि पर पड़ा देखकर तेरा कलेजा ठंडा गया।”
वृक्ष की यह जली-कटी बाते सुनकर धरी बड़ी दुःखी हुई, वह बोली, “भला माँ अपने बच्चे की दुर्गति देखकर कभी खुश हो सकती है। मैं तो तुम सभी के लिए अपने अंतर में जल तथा अन्य पौष्टिक तत्त्वों को समेट-समेटकर रखती हूँ। जिस प्रकार तुम जैसे वृक्ष-फलों का उपयोग अपने लिए न कर दूसरों को बाँटते रहते हो, वैसे ही एकत्रित खुराक को मैं भी तुम सबके लिए ही रखती हूँ और आवश्यकतानुसार देती रहती हूँ, पर तुम्हारी जड़े ही खोखली हो गई थी, इसके लिए मैं क्या करती ?”