लोकनायक-निर्माण की परंपरा का नवोन्मेष

November 2000

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जिस आधार पर हमारे साँस्कृतिक मूल्य आज भी अक्षुण्ण बने हुए है, जिस चैतन्य धारा ने आत्मवत् सर्वभूतेषु से लेकर वसुधैव कुटुम्बकम् के प्रवाह को जीवित बनाए रखा है, उसका नाम है, साधु-ब्राह्मण परंपरा, वानप्रस्थ संस्था का हमारे मध्य होना। यह पुण्य परंपरा काल के प्रवाह में लुप्त हो चली थी, किंतु आज के भौतिकवाद के युग में भी इसे जिंदा बनाए रखा गया है एवं सही अर्थों में ऐसे नव संन्यास के प्रतीक परिव्राजक व वानप्रस्थ समाज में विद्यमान् है, तो उसका समूचा श्रेय युगऋषि, वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य को जाता है।

भारतीय धर्म को दूसरे शब्दों में वर्णाश्रम धर्म कह सकते है। चार आश्रमों की सुदृढ़ आधारशिला पर अपनी संस्कृति का भवन खड़ा था। जब तक वे स्तीं बने रहे, तब तक गौरव-गरिमा गगनचुँबी बनी रही। जब उनमें विग्रह-संकट उत्पन्न हुआ, तो सारा ढाँचा ही लड़खड़ा गया। धर्म-संगठनों की, धर्मध्वजी महंतों-मठाधीशों की, कथा-कीर्तनों की, रात्रि जागरण से लेकर देवाराधन कर्मकाँडों की आज धूम है। बड़ी तेजी से मंदिर बनते जा रहे है, पर इतना सब होते हुए भी लगता है धर्म की आत्मा मर गई। उसकी सड़ी लाख की हमारे हाथ रह गई है। अब एक ही वर्ण शेष है ‘वैश्य’ और एक ही आश्रम जीवित है ‘गृहस्थ’। शेष तीन वर्ण समाप्त हो गए, तीनों आश्रमों का अंत हो गया।

वर्णाश्रम धर्म में जहाँ ब्राह्मण की बात आती है, वहाँ अज्ञानी मूढ़ लोग इसे किसी जाति विशेष के साथ जोड़ देते है, जबकि ब्राह्मण संवेदनामूलक समाज का मेरुदंड है। इन्हें लोक-शिक्षक, पुरोहित भी कह लें तो अत्युक्ति न होगी। मनुष्यता के ये शिक्षक जन्म से किसी भी जाति के न होकर ज्ञान के आराधक होते थे। ये ज्ञान बांटते थे। यह विकसित व्यक्तित्व की एक अवस्था थी, जो राष्ट्र को जाग्रत् और जीवंत बनाए रखती थी। ब्राह्मण वह उत्कृष्ट व्यक्तित्व संपन्न महामानव होता था, जिसके हर अणु में विद्या और तप सँजोया होता था। ऐसा ब्राह्मण धारण किए महामानवों की नस्ल समाप्त न हो जाए, इसके लिए सही अर्थों में परमपूज्य गुरुदेव ने एक ब्राह्मण का जीवन जीकर सबके समक्ष एक नमूना रखा। ब्रह्मकमल की तरह जीवन जीकर, अस्सी पुष्प खिलाकर उसकी सुरभि वे चारों ओर बिखेर गए। अपने जैसे अनेक ब्राह्मण तैयार कर गए।

एक व्याख्या के अनुसार, मानवी काया शूद्र वर्ण की है, तो मानवी मन वैश्य है। हर समय श्रम कर शिश्नोदरपरायण जीवन जीना काया की नियति है, तो मन का कार्य है, गाँठ की अक्ल हिसाब-किताब में, अर्थ-संचय में लगाना। पश्चिम का पूरा विकास इन दो वर्णों पर टिका हुआ है। मानवी आत्मा क्षत्रिय है, जो बल संपन्न है व जब वह जाग्रत् होता है, तो व्यक्ति व समाज दोनों की रक्षा करता है। परब्रह्म परमात्मा ही ब्राह्मण है। हम सबके जीवन का लक्ष्य होना चाहिए उस ब्राह्मण तत्व से एकाकार हो जाना। क्षत्रिय धर्म का निर्वाह कर ही ऋषिगण ब्रह्मतत्व को प्राप्त होते थे, यह व्याख्या समस्त भ्राँतियों को मिटा देती है।

पुरुष सूक्त के अनुसार, ब्राह्मण समाज का-विराट् ब्रह्माँड का मुख है। वैदिक समाज ने, क्षुद्र कामनाओं से उबर सकने वाले व्यक्तित्वों को ही ब्राह्मण, पुरोहित नाम से सुशोभित किया था। सच्चा ब्राह्मण वही बताया गया है, जो अहं और आसक्ति से ऊपर उठकर करुणा से लबालब भरा हो। ऐसे पुरोहितों को, अग्रदूतों को समाज में ऋषियों ने साक्षात् अग्नि की उपाधि दी है। उसी प्रकार आश्रम धर्म के अंतर्गत वानप्रस्थ ही था, जिसकी गरिमा प्राचीनकाल में सर्वोत्कृष्ट थी। व्यक्ति अपना आधा जीवन भौतिक प्रयोजनों के लिए रखकर चढ़ते खून के उभारों को सही दिशा में खरच कर लेता था। परिवार संस्था की सेवा करता था। राष्ट्र की भौतिक समृद्धि में योगदान देता था। जीवन का उत्तरार्द्ध परमार्थ प्रयोजनों के लिए निर्धारित होता था। उसका प्रथम सोपान होता था, ब्रह्मविद्या का पारायण करना, उसमें पारंगत होना। ऐसे व्यक्ति ही लोक-निर्माण जैसे महान् प्रयोजन के अधिकारी बनते है। तप-साधना, योगाभ्यास के लिए भी यही आश्रम श्रेष्ठ माना जाता रहा है। दबी हुई आँतरिक प्रखरता इसी मार्ग से निखरती थी। तीसरा सोपान इस आश्रम का होता था, सेवा-साधना। जन-मानस में उत्कृष्टता बोना, उगाना और बढ़ाना। देखा जाना चाहिए कि यह ब्राह्मण वर्ग, यह वानप्रस्थ वर्ग समाज में से कैसे हटता चला गया और क्षति पहुँचाता चला गया।

गहराई से चिंतन करें, तो पाते हैं कि ऋषियों के बताए मार्ग पर न चलने के कारण ही हम वर्तमान स्थिति को प्राप्त हुए है। देवसंस्कृति का ढाँचा खड़ा करने हेतु परमपूज्य गुरुदेव ने आश्रम-व्यवस्था में आई सामयिक विकृतियों में हेरफेर कर लोकजीवन की सबसे सशक्त परंपरा ‘वानप्रस्थ’ का पुनरुज्जीवन किया। अपने समय की यह सबसे बड़ी क्राँति मानी जानी चाहिए कि सामान्य जीवन जीने वाले अगणित व्यक्ति अनायास ही तप प्रधान वानप्रस्थ जीवन की प्रेरणा पाकर इस आश्रम में प्रवृत्त हो गए। गायत्री परिवार इन्हीं साधु-ब्राह्मणों, वानप्रस्थों का समुच्चय है, यह देख-समझने के बाद इस क्राँति के मर्म को जाना जा सकता है। धर्म-तंत्र की विकृतियों को, बौद्धकाल की विडंबना भरी परिस्थितियों को पहले आद्य शंकराचार्य ने बाद में स्वामी विवेकानंद ने काफी सीमा तक ठीक किया। स्वामी विवेकानंद कहते थे, मैं चाहता हूँ कि ऐसा व्यक्ति अगले दिनों विश्व का नेतृत्व सँभाले जिसका हृदय बुद्ध की तरह विशाल हो, करुणा का सागर हो तथा जिसका मस्तिष्क आचार्य शंकर की तरह कुशाग्र हो। ऐसा व्यक्ति ही देवसंस्कृति के निर्धारणों को विश्वभर में पहुँचाकर पुनः उसे विश्वसंस्कृति बना सकता है।” स्वामी विवेकानंद के महाप्रयाग के साठ वर्ष के भीतर ही ऊपर कही गई बात चरितार्थ हो गई। परमपूज्य गुरुदेव जिनके अंतस् में अथाह करुणा थी, अपनी प्रखर प्रज्ञा के माध्यम से सद्गृहस्थों के निर्माण में जुटे रहे, जैसी कि समय की आवश्यकता थी, साथ ही लाखों को वानप्रस्थरूपी युग-धर्म हेतु भी प्रेरित करते रहे, यह उनके जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि है।

मथुरा में गायत्री तपोभूमि की स्थापना के साथ-साथ ही ऐसे लोकसेवा परिव्राजकों का प्रशिक्षण पूज्यवर द्वारा आरंभ कर दिया गया था, किंतु उसे व्यवस्थित स्वरूप दिया उन्होंने यहाँ हरिद्वार आकर शाँतिकुँज की स्थापना के बाद। 1872 में पूज्यवर हिमालय प्रवास से लौट आए तथा विधिवत ऋषि परंपराओं के पुनरुज्जीवन हेतु आधारशिला बनाने में जुट गए। पहले उन्होंने प्राण प्रत्यावर्तन शृंखला आरंभ की, जो 1873 के पूर्वार्द्ध में चलती रही। इसके माध्यम से तपस्वी-प्राणवान् साधकों को शक्तिपात स्तर की साधना द्वारा आत्मबलसंपन्न बनाया गया। इसके तुरंत बाद जुलाई 1873 में उन्होंने एक विशेषाँक प्रकाशित किया, जिसकी विषयवस्तु थी, ‘वानप्रस्थ परंपरा का पुनर्जीवन’। परमपूज्य गुरुदेव ने लिखा, “राष्ट्र निर्माण हेतु सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है, सुयोग्य, भावनाशील, अवैतनिक और सेवा की लगन के साथ जुट पड़ने वाले कर्मठ कार्यकर्त्ताओं की। इस प्रयोजन को वानप्रस्थ परंपरा का पुनर्जागरण करके ही पूरा किया जा सकता है।” (जुलाई पृष्ठ 16)

कितना सशक्त एवं द्रष्टा स्तर का चिंतन था उस युगऋषि का कि उन्होंने आज की सभी समस्याओं का समाधान इस परंपरा के पुनर्जागरण द्वारा बताया। उन्होंने लिखा, “सेवा-साधना के लिए इन दिनों हमें एक ही केंद्र पर केंद्रित होना है। वह है, ज्ञानपज्ञ, ज्ञानयज्ञ। विचारक्राँति, विचारक्राँति, विचारक्राँति। चूँकि अपना कार्य भावनाओं के परिष्कार से संबंध रखता है, इसलिए उसके साथ आध्यात्मिक पृष्ठभूमि अनिवार्य है।.........वानप्रस्थों की सेवा-साधना की दिशा धर्म कलेवर की पृष्ठभूमि बनाकर ज्ञानयज्ञ की ज्योतिर्मय प्रखरता उत्पन्न करना ही हो सकती है। (पृष्ठ 20)।

एक क्राँतिकारी चिंतन प्रस्तुत करते हुए युगऋषि ने कहा, “पारमार्थिक जीवन जीने के लिए व्रत-धारण करने वाले नर-नारी ऐसा भी कर सकते है। कि विवाह तो करें, पर संतानोत्पादन के झंझटों से बचे रहें। ऐसी स्थिति में वे सुविधापूर्वक किसी भी आयु में वानप्रस्थ में प्रवेश कर सकते है। जिन्हें संयोगवश संतान नहीं मिली, उनके सौभाग्य को हजारों मुखों से सराहा जाना चाहिए कि उन्हें देव जीवन जीने का लाभ लेने का अवसर मिला।” (पृष्ठ 24) वस्तुतः समाज-सुधारक स्तर की संस्कृति पुरुष की सत्ता ही यह सब लिख सकती थी। परमपूज्य गुरुदेव का अध्यात्म लोक-शिक्षकों के निर्माण को बढ़ावा देता है एवं यही उसकी सबसे बड़ी विशेषता है। बहुप्रजनन, कामुकता के उभार, जनसंख्या विस्फोट से पीड़ित विश्व-वसुधा के समक्ष साक्षरता विस्तार, ग्रामीण संस्कृति के उत्थान, स्वास्थ्य संवर्द्धन, ग्रामोद्योगों के प्रशिक्षण हेतु वे लोक-शिक्षकों के निर्माण की बात कहते रहे, प्रशिक्षित करते रहे एवं अपने कई विकल्प अपने सामने ही बनाकर चले गए। परिष्कृत धर्म-तंत्र के माध्यम से यह किसी भी महामानव की सबसे बड़ी सेवा है।

वानप्रस्थों के परमार्थ पथ प्रवेश को पूज्यवर ने तीन स्तरों में विभक्त किया। उत्तम, मध्यम व कनिष्ठ पूरा समय परमार्थ प्रयोजनों के लिए लगाने वाले उत्तम कहे गए, मध्यम वे जो घर-परिवार के बीच रहते हुए भी सर्वाधिक समय समाज-सेवा करते रहें। कनिष्ठ वे जो परिवार में तो रहें, जिम्मेदारियाँ न बढ़ाएँ, प्रतिदिन 4 घंटे समाज हेतु दें। यह एक ऐसी अवधारणा थी जो न केवल युगानुकूल थी, क्राँतिकारी भी थी। गृह-कलह से ऊबे हुए, पग-पग पर अपमानित होते हुए, आलस्य और प्रमाद से अपनी आदतों को घिनौनी बनाकर चैन से मुफ्त की रोटी तोड़ने वालों ने, शास्त्रार्थ द्वारा अपने ज्ञान की झंडियाँ गाड़ने की इच्छा रखने वालों ने जो दुर्गति वानप्रस्थ आश्रम की थी, उसे बहुत हद तक गायत्री परिवार के लोकनायकों-परिव्राजकों-वानप्रस्थों का निर्माण कर परमपूज्य गुरुदेव ने पलटने का प्रयास किया। सही अर्थों में भूसुर-पुरोहित-पृथ्वी पर रहने वाले देवताओं ने ही कभी धरती को स्वर्गोपम बनाया था। आज भी यदि प्रतिभाशीलों, विभूतिवानों के जागरण के माध्यम से एक सशक्त तंत्र खड़ा दिखाई देता है, उसके कई गुना होने की संभावनाएँ भी परिलक्षित होती है, तो यह मानना चाहिए कि सतयुगी आधारशिला इसी वानप्रस्थ, साधु-ब्राह्मण परंपरा के पुनरुज्जीवन से ही रखी जाएगी।

ज्ञान-साधना, तप-योग एवं सेवा-साधना के समन्वय से मानव के जीवन के उत्तरार्द्ध का कैसे श्रेष्ठतम उपयोग किया जा सकता है, कैसे उसका नियोजन परमार्थ प्रधान प्रवृत्तियों के, राष्ट्र निर्माण की गतिविधियों के विस्तार हेतु हो सकता है, इसका नमूना है गायत्री परिवार। वेद संन्यास के द्वारा, सामूहिक वानप्रस्थ दीक्षा द्वारा इस पूर्णाहुति वर्ष में इस माह के सौत्रामणी प्रयोग, पुरुषमेध महायज्ञ में उसी प्रक्रिया का पुनरावर्तन किया जा रहा है। यही परंपरा तो देवसंस्कृति के उत्कर्ष का आधार बनी है, जिसके कण-कण में उल्लास-ही-उल्लास छाया दिखाई देता हैं जीवन को जो उत्सवमय बना देती है।


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