संस्कृति पुरुष की वसीयत और विरासत

November 2000

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“अपने अनन्य आत्मीय प्रज्ञापरिजनों में से प्रत्येक के नाम हमारी यही वसीयत और विरासत है कि हमारे जीवन से कुछ सीखें। कदमों की यथार्थता खोजें। सफलता जाँचे और जिससे जितना बन पड़े, अनुकरण का, अनुगमन का प्रयास करे। यह नफे का सौदा हैं, घाटे का नहीं।” प्रस्तुत पंक्तियाँ उस अद्वितीय कृति का अंतिम पैराग्राफ है, जिसे हम ‘हमारी वसीयत और विरासत’ ‘माय लिगेसी एण्ड मेसेज’ नामक उनकी जीवन-कथा के रूप में जानते हैं। यह एक क्राँतदर्शी ऋषि की आत्मकथा, जीवन वृत्तांत के अंतरंग पक्ष खोलकर जन-जन के समक्ष रखे गए थे एवं अपने आचरण से शिक्षण देने का प्रयास किया गया। यह पुस्तक जिस-जिसने पढ़ी है, उसकी सोच में आमूल - चूल परिवर्तन आया है। 1976 में प्रकाशित इस पुस्तक ने लाखों के जीवन की दिशाधारा बदली है।

संस्कृति पुरुष परमपूज्य गुरुदेव की एक ही सबके लिए वसीयत-विरासत थी कि प्रत्येक परिजन संस्कृति दूत का गरिमामय दायित्व निभाएं। यदि वे अपनी चिरपुरातन भारतीय संस्कृति के आदर्शों को अभिमानपूर्वक जीवन में उतार सकेंगे, उस परम्परा के निर्वाह के लिए अपनी भूमिका निभा सकेंगे, तो भारतीय संस्कृति निश्चित ही विश्व-संस्कृति बनकर रहेगी।

प्रस्तुत अंक ‘सृजन संकल्प विभूति महायज्ञ’ की वेला में परिजनों के पास पहुँच रहा है। यह अंक संस्कृति पुरुष परमपूज्य गुरुदेव को समर्पित है, जिनके संकल्पों के आधार पर ही एक साधनात्मक पुरुषार्थ की महापूर्णाहुति इस वर्ष सम्पन्न हो रही है। परमपूज्य गुरुदेव ने भारतीय संस्कृति के खोए आदर्शों को, जीवन-मूल्यों को पुनः स्थापित किया। जीवन साधना को जन-जन के जीवन का एक अंग बना दिया। उन्होंने एक ही बात कहीं, “तुम मुझे अपनी क्षुद्रता, संकीर्णता दे दो, मैं तुम्हें महानता से लाद दूँगा।” यही होता चला गया। आज भारत व विश्वभर के सौ से अधिक राष्ट्रों में यदि नवजागरण का अलख गूँज रहा है, साँस्कृतिक मूल्यों के प्रति जन-जन के मन में अनुराग बढ़ रहा है तो उसका पूरा श्रेय उन आदर्शों को जाता है, जो पूज्यवर स्थापित कर गए।

प्रस्तुत अंक संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में हमारी गुरुसत्ता की जीवनी है, तो एक अनुभूतियों के गुँथन से किया गया ऐसा प्रयास भी, जो इस महापूर्णाहुति के चौथे चरण के उत्तरार्द्ध में परिजनों के समक्ष उद्घाटित किया जा रहा है। इस अंक में उनके जीवन संग्राम के कई पक्ष ऐसे दिए गए हैं जो आगे विस्तृत विवेचन करने पर नवयुग के आधार - स्तंभ बनेंगे। इतना बहुआयामी व्यक्तित्व उस युगपुरुष का रहा है कि यदि उसका एक अंश भी हमें स्पर्श कर जाए, तो हम उनके विराट् स्वरूप का दर्शन कर लेते है। जिसने उन्हें समग्र रूप से जान लिया, उसके लिए तो फिर यह साक्षात् ब्रह्म-मिलन जैसा रसास्वादन है। उनका उज्ज्वल भविष्य के प्रति दृढ़ विश्वास इतना बड़ा आधार बन गया 8 करोड़ के इस प्रज्ञा परिवार का, कि धीरे-धीरे सभी को अहसास होने लगा है कि वास्तव में समय बदल रहा है।

महर्षि अरविंद ने ‘ह्यूमन साइकल’ ग्रंथ में लिखा है “दक्षिणेश्वर में जो काम शुरू हुआ था, वह पूरा होने में अभी कोसों की दूरी पार होनी है। वह समझा तक नहीं गया है। विवेकानंद ने जो कुछ प्राप्त किया और जिसे अभिवर्द्धन करने का प्रयास किया, वह अभी तक मूर्त नहीं हुआ है। अगले दिनों वह आँदोलन के रूप में उठेगा और गति पकड़ेगा।” वस्तुतः यही बात स्वामी विवेकानंद भी भारत का भविष्य नामक अपने उद्बोधन में 100 वर्ष पूर्व 1919 ई. में कह गए थे। सतयुग की वापसी को उन्होंने भवितव्यता बताया था। यह भी कहा था कि यजुर्वेद का वाक्य “सा प्रथमा संस्कृति विश्ववारा” निश्चित रूप से मूर्त रूप लेगा एवं यह इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगेगा।

इक्कीसवीं सदी संवेदनामूलक समाज के विकास की अवधि है, नारी जागरण की अवधि है, साँस्कृतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना की अवधि है। योजना एवं संकल्पना सारी ईश्वर की है, तप एवं पुरुषार्थ ऋषियों का है, हम सब को तो मात्र श्रेय अर्जित करना है। इस अवधि में जो 1977-79 से आरम्भ एवं सन् 2000 के प्रथम दशक के समापन तक चलेगी। नवयुग के आगमन की प्रक्रिया को हम सभी गतिशील होते देखेंगे। मात्र देखेंगे ही नहीं, उसमें सक्रिय भूमिका भी निभा रहे होंगे। प्रज्ञापरिजनों को पूज्यवर ने अंशावतार-मध्यावतार की संज्ञा दी थी। उन्होंने कहा था 1967 में, कि देखते-देखते सामान्य से नजर आने वाले इन लोगों में समयदान, साधनदान, अंशदान की ललक पैदा होगी व देखते-देखते आत्मबल द्वारा अवतारी चेतना का लीला-संदोह दृश्यमान रूप में दिखाई देने लगेगा। आज पूज्यवर की चेतना कारणशरीर में सक्रिय हो, दिग्दिगंत व्यापी हो गई है। ढेरों संगठन श्रेष्ठ कार्यों में लगे दिखाई देते है। संस्कृति विस्तार हेतु संगठनों का संगतिकरण ही वास्तव में अब सतयुग लाएगा, इसमें किसी को जरा भी अविश्वास नहीं होना चाहिए।


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