साँस्कृतिक क्राँति के अग्रदूत

November 2000

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भौगोलिक दृष्टि से इनसान एक दूसरे के इतना नजदीक कभी नहीं रहा, जितना कि वह आज है। विज्ञान की प्रगति ने दुनिया को एक गाँव में तब्दील कर दिया है, किन्तु घर, परिवार, राष्ट्र एवं विश्व के कोने में दरारें, टूटन, बिखराव फैला पड़ा है। सभी की दौड़ अलगाव की ओर है। प्रत्येक स्वयं में आतंक से सहमा है और औरों को आतंकित कर रहा है। भौगोलिक समीपता के बावजूद भावनात्मक स्तर पर विश्व की यही दिशा है। दार्शनिकों से लेकर राजनीतिज्ञों तक सभी इसी उधेड़ बुन में है कि बिखरती जा रही मनुष्य जाति को कैसे समेट-बटोरकर एक सूत्र में बाँधा जाएं?

संस्कृति पुरुष गुरुदेव के अनुसार, इतिहास के पन्नों पर गौर करें तो एकता के प्रयास निताँत आधुनिक नहीं है। यूनान और रोम के विजय अभियान रचने वालों ने भी अपना मकसद यही बताया था। सिकंदर का मन विश्वराष्ट्र की सुखद कल्पनाओं से रंगा था। अंग्रेजों ने यही उद्देश्य प्रचारित कर अपने उपनिवेश स्थापित किए थे, विश्व को एक करूंगा हिटलर ने इसी संकल्प की आड में अपना ताना-बाना बुना था। 20वीं सदी के दूसरे दशक में मार्क्स के साम्यवाद का नारा देकर स्टालिन ने रूस में छोटे पैमाने के पर यही करतब दिखाने की कोशिशें की, लेकिन ये ढेरों प्रयास पुरुषार्थ अपनी चरम परिणति में एकता से उतनी ही दूर रहे, जैसे आकाश से धरती।

इतिहास के इन अभियानों का बारीकी से सर्वेक्षण करने पर इनकी विफलता का कारण ज्ञात होता है कि एकता के नाम पर ज्यादातर कोशिशें आधिपत्य की रहीं। छह सौ करोड़ मनुष्य के जगत में ऐसों की संख्या दो-चार मुट्ठी से अधिक न होगी, जिनका एकता की ओर झुकाव रहा हो। अतः मनुष्य को अपने पूर्व अनुभवों से एकता का एक ही अर्थ मालूम हो सका है, स्वतंत्रता का अपहरण व मौलिकता का छिन जाना और अब तक के हुए प्रयासों में यह बात सच भी है, क्योंकि आधिपत्य की इनकी शैली को न तो मानवीय व्यक्तित्व की बारीकियों का पता है और न उसकी मौलिकता के रक्षण की जानकारी।

वस्तुतः ऐसे अधिकाँश प्रयास राजनीतिक क्राँति प्रधान रहे हैं। इसका ऐतिहासिक उदाहरण है, राष्ट्र सीमाओं को लाँघ चुका रोमन साम्राज्य। इसका व्यापक सुरक्षा प्रबंध जहाँ सराहनीय था, वहीं व्यक्ति, नगर, प्रदेश को अपने स्वाधीन जीवन एवं सहज सृजन की विजयशील प्रेरणा का बलिदान कर मशीनी कल-पुरजे बनकर रहना पड़ा था और अंततः व्यक्ति को तुच्छता एवं दुर्बलता के कारण नष्ट होने के लिए विवश होना पड़ा था। रूस में हुए साम्यवादी प्रयोग को इसी का नवीन उदाहरण कह सकते हैं। मार्क्स की नजर में मनुष्य एक आर्थिक प्राणी भर था। कल्पना, स्वतंत्र इच्छाशक्ति, मौलिक क्षमताओं का विकास जैसी चेष्टाएं भी इनसान के अंदर समाई है, शायद इसे सोचने की उसे फुरसत नहीं मिली। परिणामस्वरूप समाजवाद के नाम पर ऐसा शिकंजा तैयार हुआ, जिसे तोड़ फेंकने के लिए जनजीवन शुरू से कोशिश में जुटा रहा और जब तक तोड़ न फेंका, चैन नहीं लिया।

वस्तुतः राजनीतिक क्रांतियों की अपनी सीमा है। इसकी सीमाओं से भली-भाँति अवगत परमपूज्य गुरुदेव के अनुसार “मानवीय भावनाओं को एक - दूसरे में घोलकर क्षत-विक्षत हो रहे समाज को पुनः सौंदर्य-मंडित करने का प्रयास, जिस तकनीक से संभव है, उसका नाम है, सांस्कृतिक क्राँति”। वस्तुतः यहीं एकता को अपना वास्तविक अर्थ मिलता है, जो अपनी व्यापकता एवं विस्तार में पारिवारिक, जातीय एवं राष्ट्रीय सीमाओं को पार करती हुए, विश्वमानव तक आ जुड़ती है। गुरुदेव के शब्दों में, “विश्वानुभूति के लिए साँस्कृतिक संवेदना का उफान चाहिए। इसी का एक नाम आध्यात्मिक संवेदना भी है। जिसका बोध श्वेताश्वेतर उपनिषद् के शब्दों में, “एको देवा सर्वभूतेषु गूढ़ः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा” अर्थात् वे एक ही परम देव परमेश्वर समस्त प्राणियों के हृदय रूप गुहा में घुसे हुए है। वे सर्वव्यापी और समस्त प्राणियों में घुसे हुए हैं। वे सर्वव्यापी और समस्त प्राणियों में अंतर्यामी परमात्मा है। (श्वेता 6/11)” संवेदनाओं की यह व्यापक अनुभूति जब संबंध बनकर प्रकट होती है। तब विश्वमानव के प्रति प्रेम का उफान अस्वाभाविक नहीं रहा पाता। सामंजस्य की इस परम स्थिति में प्रेम झरने लगता है।

इस बोध की व्यापकता एवं सघनता के अनुरूप, एकत्व भी उतना ही विस्तृत होता जाता है। मानवीय हृदयों के बीच की खाई यहाँ सहज ही पट जाती है और मानवीय स्वतंत्रता को भी अक्षुण्ण संरक्षण मिल जाता है, क्योंकि मानव अपनी अंतः भावनाओं की कसक और हुलस के कारण आकुल-व्याकुल होकर स्वतः ही अपने स्वार्थों का उत्सर्ग कर डालता है। इस तरह परमपूज्य गुरुदेव के शब्दों में, “विश्व के जीवन में साँस्कृतिक क्राँति ही एकमात्र वह प्रक्रिया है, जो अपनी चरम परिणति में उसे एकता और स्वतंत्रता दोनों अलभ्य उपलब्धियाँ एक साथ सौंपने में समर्थ है।” यहाँ देवसंस्कृति की भूमिका भारत की सामयिक संस्कृति में है। जैसे भारत ने किसी भी धर्म का दलन किए बिना अपने यहाँ धार्मिक एकता स्थापित की है। जैसे इसने किसी भी जाति की विशेषता को नष्ट किए बगैर सभी जातियों को एक साँस्कृतिक सूत्र में आबद्ध किया है। कुछ इसी प्रकार हम संसार के सभी देशों, सभी जातियों एवं सभी विचारो के बीच एकता स्थापित कर सकते हैं।

साँस्कृतिक क्राँति के अग्रदूत के रूप में परमपूज्य गुरुदेव ने इसी कार्य का अभिनव शुभारंभ किया। 40 के दशक में प्रकाशित हो रही अखण्ड ज्योति सतत् इसी का ताना-बाना बुन रही है। गायत्री तपोभूमि पूज्यवर की प्रथम कर्मस्थली रही। यहाँ पर एक प्रतिष्ठित संस्कृत प्रेमी सज्जन एक बार आए, तो वे गुरुदेव की हर बात को अनसुना करते हुए एक ही बात की रट लगाए रहे कि यहाँ सब कुछ संस्कृत में क्यों नहीं पढ़ाया जाता ? यहाँ सारा जोर संस्कृत पर ही क्यों नहीं दिया जाता। बहुत सुनने के बाद पूज्यवर का दो टूक जवाब था, मेरा सारा जोर संस्कृत की जगह संस्कृति पर है। मैं यहाँ संस्कृत नहीं, संस्कृति का शिक्षण देता हूँ। वस्तुतः तपोभूमि से शुरू किए गए युगनिर्माण आँदोलन के नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनर्जागरण प्रयास से देश भी में एक उल्लास की लहर फैली। इस प्रयास को और व्यापक एवं गतिशील बनाते हुए संस्कृति पुरुष ने शाँतिकुँज से गायत्री यज्ञों, संस्कार महोत्सवों, वैदिक सम्मेलनों एवं अश्वमेध यज्ञों के माध्यम से साँस्कृतिक क्राँति को विश्वव्यापी विस्तार दिया है। युग के सबसे बड़े सामूहिक धर्मानुष्ठान की महापूर्णाहुति के रूप में पुरुषमेध एवं सोत्रामणी प्रयोग द्वारा इसका महास्फोट होने लगा है।

इसके प्रभाव स्वरूप मानवी जीवन में बौद्धिक क्राँति, नैतिक क्राँति एवं सामाजिक क्राँति का ऐसा स्वरूप उभरेगा, जिनसे वशीभूत हुआ सामूहिक मन, मानव-जीवन के समस्त क्षेत्रों में गंभीर एवं अद्भुत परिवर्तन प्रस्तुत करेगा। भावलोक में इसका दिग्दर्शन कर जर्मन दार्शनिक शोपेनहाँवर ने भविष्यवाणी की थी, “शीघ्र ही विश्व विचार जगत में सर्वाधिक शक्तिशाली और दिगंतव्यापी साँस्कृतिक क्राँति का साक्षी होने वाला है। विचारों का यह तूफान उपनिषदों के देश से उठेगा।”

साँस्कृतिक क्राँति के अग्रदूत की प्रचंड तप-साधना एवं अथक पुरुषार्थ की फलश्रुति, यह तूफान उठ चुका है। इसकी वृहद योजना अपने आरंभ से ही विश्व को एक नया रंग और वातावरण एक उच्चतर भावना, एक बेहतर उद्देश्य देने के लिए कटिबद्ध रही है। नवयुग की साँस्कृतिक चेतना के रूप में इसका पुनरोदय हो रहा है। जिसका अंतिम परिणाम होगा, विश्वराष्ट्र का नया युग। व्यवस्थाओं, प्रणालियों, नीतियों की दृष्टि से अद्भुत होने के साथ व्यक्तित्व संरचना की दृष्टि से भी यह अभूतपूर्व होगा। आइए! हम सभी इसका स्वागत करने हेतु कटिबद्ध हों।


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