नवयुग में संस्कृति पुरुष की चेतना का नवोदय

November 2000

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संस्कृति पुरुष गुरुदेव आज हम सबके बीच स्थूल कलेवर में नहीं है, परन्तु उनकी स्थूल देह का अवसान भी सामान्य प्रक्रिया न होकर चेतना जगत में एक उच्चस्तरीय प्रयोग था। 2 जून 1990 से लेकर 2000 तक सूक्ष्म जगत में इसका विविध रीति से विकास होता रहा, इसके नए नए आयाम प्रकट होते रहे। इसकी पूर्णता भी महापूर्णाहुति के साथ संपन्न हो रही है। अब वह समय आ गया है, जिसके लिए गुरुदेव ने पहले 1968 में लिखा था कि सन 2000 के पास पूर्णावतार प्रकट होगा। दरअसल पूर्णावतार का यह प्राकट्य नवयुग में संस्कृति पुरुष की चेतना का नवोदय है। गुरुदेव के अपने शब्दों में “यह महान् व्यक्तियों के रूप में भी होगा और महान घटनाओं के रूप में भी।” इसकी परिणति व्यक्ति, परिवार एवं समाज में क्या दृश्य प्रस्तुत करेगी, इसका स्पष्ट चित्रण वह स्वयं कर गए है।

मानव प्रकृति में इसके प्रभाव से क्या मौलिक परिवर्तन होंगे, इस संदर्भ में परमपूज्य गुरुदेव लिखते है, “मनुष्य की आकृति तो वैसी ही रहेगी जैसी अब है, पर अगली शताब्दी में उसकी प्रकृति असाधारण रूप में बदल जाएगी। दुर्व्यसन हर किसी को अरुचिकर लगेंगे और न जनसाधारण की उनमें प्रीति रहेगी, न प्रतीत। चोरी, ठगी, निष्ठुरता, क्रूरता, पाखंड, प्रपंच अपने लिए न अनुकूलता पाएंगे न अवसर प्राप्त करेंगे। अधिकाँश लोगों में जब गुण कर्म, स्वभाव में सज्जनता भरी होगी, तो दुष्ट, दुर्जनों की करतूतें न तो बन पड़ेगी और न सफल होंगी।”

आगे पूज्यवर लिखते है कि, “लोग आत्मविश्वासी, स्वावलंबी और पुरुषार्थपरायण होंगे, तो दरिद्रता, अभावग्रस्तता के लिए कोई कारण शेष न रहेगा। मनुष्य की श्रमशीलता और बुद्धिमता यदि काम करें, तो उचित आवश्यकताओं की पूर्ति में कमी क्यों पड़ेगी? उदारता जीवंत हो तो दुखों को बाँट लेने और सुखों को बाँट देने की परम्परा ही चल पड़ेगी। तब न किसी को क्रोध का आवेश ही जकड़ेगा, न प्रतिशोध के लिए हाथ उठेगा, न छोटी लड़ाइयाँ होंगी और न महायुद्ध रचे जायेंगे।”

व्यक्ति के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति कैसी होगी, इस विषय में पूज्यवर लिखते हैं, “तब शारीरिक और मानसिक व्याधियों से सहज ही छुटकारा मिल जाएगा, क्योंकि लोग प्रकृति के अनुशासन में रहकर आहार विहार का संयम बरतेंगे और अन्य प्राणियों की तरह अंतः चेतना का अनुशासन मानेंगे। फलतः न दुर्बलता सताएगी और न रुग्णता। असमय बुढ़ापा आने तथा अकाल मृत्यु से मरने का भी तब कोई कारण न रहेगा। सभी संतोषी, नीतिवान, उदार एवं सरल सौम्य जीवन पद्धति अपनाएंगे, मिल बाँटकर खाएंगे, हंसती-हंसाती जिंदगी जिएंगे, फलतः उन्हें हर परिस्थितियों में आनंद-उल्लास से भरा पूरा पाया जाएगा। सभी के शरीर नीरोग और मस्तिष्क शाँत-संतुष्ट पाए जाएंगे।”

जीवन के मूल्याँकन के आधारभूत मानदंडों के विषय में गुरुदेव लिखते हैं, “संचित कुसंस्कारिता के शमन, समाधान, प्रतिरोध, निराकरण पर नवयुग के विचारशील व्यक्ति पर पूरा ध्यान देंगे। संयम बरतेंगे और संतुलित रहेंगे। शौर्य साहस का केंद्रबिन्दु यह बनेगा कि किसने अपने दृष्टिकोण स्वभाव रुझान एवं आचरण में कितनी उत्कृष्टता का उपयोग किया। प्रतिभा, पराक्रम एवं वैभव को इस आधार पर सहारा जाएगा कि उस उपार्जन का जनकल्याण एवं सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन में कितना उपयोग हो सका। विचारशील लोग इसी आधार पर आत्मनिर्माण करेंगे और पुरुषार्थ का क्षेत्र चुनते समय निजी सुख-सुविधाओं की पूर्ति का नहीं, विश्व-उद्यान को समुन्नत-सुसंस्कृत बनाने की महानता को महत्व देंगे। अमीरी को नहीं, गरिमा को अपनाया-सराहा जाएगा। संकीर्ण स्वार्थपरता में संलग्न व्यक्ति तब प्रतिभा के बल पर कोई श्रेय-सम्मान प्राप्त नहीं करेंगे, वरन् भर्त्सना के भाजन बनेंगे।”

व्यक्ति एवं समाज के मध्य किस तरह के संबंध रहेंगे, इस संदर्भ में पूज्यवर लिखते हैं, “तब हर व्यक्ति अपने को समाज का एक छोटा-सा घटक, किंतु अविच्छिन्न अंग मानकर चलेगा। निजी हानि-लाभ का विचार न करके विश्व हित में अपना हित जुड़ा रहने की बात सोचेगा। अहंता को परम ब्रह्म में समर्पित कर आध्यात्मिक जीवन, मुक्ति का लक्ष्य अगले दिनों इस प्रकार क्रियान्वित होगा कि किसी को भी अपनी चिंता में डूबे रहने की, अपनी ही इच्छापूर्ति की, अपने परिवारीजनों की प्रगति की न तो आवश्यकता होगी, न चेष्टा चलेगा।”

नारी जाति एवं विवाह संस्था की क्या स्थिति होगी, इस विषय में वे कहते हैं, “इन दिनों स्त्रियों को दासी की तरह प्रयुक्त किया जाता है, यह प्रथा उलटकर उन्हें समानाधिकार वाली सहयोगिनी का सम्मान भरा स्थान मिलेगा। शृंगार सज्जा को नारी की आँतरिक हीनता तथा दुर्बलता का चिन्ह मानकर उसे अनुपयुक्त गहराया जाएगा। विवाह कामुकता की तृप्ति के लिए रूप सौंदर्य से खेलने के लिए नहीं, वरन् साथी को स्नेह-सहयोग, सम्मान देकर जीवन की अपूर्णता दूर करने के लिए, मिल-जुलकर अधिक उच्चस्तरीय प्रगति करने की आदर्शवादिता से प्रेरित होकर किए जाया करेंगे।”

परिवार संस्था की स्थिति के संदर्भ में तब व्यक्तित्व को प्रखर, प्रामाणिक एवं परिवार को सुसंस्कारी-स्वावलंबी बनाने के लिए गंभीरतापूर्वक ध्यान दिया जाएगा। परिवार को सुसंस्कारिता प्रशिक्षण की पाठशाला बनाया जाएगा और इस कारखाने में ढल-ढलकर नर-रत्न निकला करेंगे। व्यक्तित्व और परिवार को एक-दूसरे का अगले दिनों पूरक माना जाएगा और संयुक्त परिवार की वैज्ञानिक आचार संहिता विकसित होगी। हर गृहस्थ को धरती पर स्वर्ग की तरह स्नेह-सद्भाव एवं उत्साह-उल्लास से भरा-पूरा पाया जाएगा, क्योंकि उसके सभी सदस्य श्रमशीलता, सुव्यवस्था, मितव्ययिता, उदार सहकारिता और सुसंस्कारी सज्जनता के पंचशीलों को सुख−शांति का आधारभूत कारण होने की बात पर सच्चे मन से विश्वास करेंगे।

आगे पूज्यवर कहते हैं, “अभी जो परस्पर आपाधापी, लोभ-मोहवश संचय और परस्पर विलगाव की प्रवृत्ति नजर आती है, उसको आने वाले समय में अतीत की कड़ुई स्मृति कहा जाएगा। हर व्यक्ति स्वयं में एक आदर्श इकाई होगा एवं हर परिवार उससे मिलकर बना समाज का एक अवयव।”

संस्कृति पुरुष की चेतना का नवोदय व्यक्ति, परिवार एवं समाज की ऐसी आदर्श संरचना के रूप में होने वाला है। इस चित्रण को उनके शब्दों में, “यह मात्र कल्पना या यूटोपिया न माना जाए, वरन् ऋषितंत्र की समर्थ तप साधना की प्रभावकारी परिणति मानी जाए, जो आगामी कुछ दशकों में ही साकार होकर रहेगी।”

एक तपस्वी ने इंद्र देव की आराधना की। वे प्रसन्न हुए और वरदान देने पहुँचे। तपस्वी ने उनका वज्र माँगा, ताकि संसार को आतंकित करके चक्रवर्ती शासन कर सके। इंद्र देव रुष्ट होकर वापस चले गए। वरदान न पाने के दुख से तपस्वी ने निराशाग्रस्त मनःस्थिति में शरीर त्याग गया। इंद्र को यह समाचार मिला, तो वे दुखी हुए और सोचने लगे, तपस्वी को कष्ट देने की अपेक्षा उसकी मनोकामना पूर्ण करना उचित है। कुछ समय बाद किसी तपस्वी ने फिर इंद्र की वैसी ही आराधना की। निदान उन्हें वरदान देने के लिए जाना पड़ा।

अब की आर वज्र साथ ही लेकर गए और पहुँचते ही बिना मांगे वज्र तपस्वी के आगे रख दिया। तपस्वी ने आश्चर्यचकित होकर उस निरर्थक वस्तु को देने का कारण पूछा, तो इंद्र ने पूर्व तपस्वी का सारा वृत्तांत कह सुनाया। वज्र को लौटाते हुए उसने निवेदन किया, देव ऐसे वरदान से क्या लाभ, जिसे पाकर अहंकार भरी तृष्णा जगे और न मिलने पर निराशाग्रस्त मरण का वरण करना पड़े। मुझे तो ऐसा वर दीजिए कि उपलब्ध तप शक्ति को सत्प्रयोजनों के निर्मित नियोजित कर सकूँ।

उपासना इस स्तर के श्रेष्ठ उद्देश्य को लेकर की जाए, वहीं सार्थक हैं। यही विभिन्न उपासकों को मिलने वाले प्रतिफलों का कारण बनती है।


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